देसी रियासतों का एकीकरण
प्रमुख आयाम
1.
देसी रियासत: सामान्य परिचय
2. देसी रियासतों
में काँग्रेस की बढ़ती रूचि
3. देसी रियासत
विभाग पटेल के जिम्मे
4. कश्मीर, जूनागढ़ और हैदराबाद-समस्या
5. कश्मीर का विलय, अक्टूबर,1947
6.
जूनागढ़ का विलय, फरवरी,1948
7.
हैदराबाद का विलय, सितम्बर,1948
8.
चंदन नगर का विलय, मई,1950
9.
पांडिचेरी का विलय, नवंबर,1954
10.
गोवा का विलय, दिसम्बर,1961
11.
विश्लेषण
देसी रियासत:
सामान्य परिचय:
दरअसल, ब्रिटिश प्रान्त के अलावा, भारत में करीब 565 देसी
रियासतें थीं, जो वैधानिक रूप से ब्रिटिश भारत का हिस्सा तो नहीं थीं, पर वे
ब्रिटिश क्राउन के अधीन थीं। औपनिवेशिक सत्ता के द्वारा इन देसी रियासतों का इस्तेमाल भारतीय राष्ट्रीय
आन्दोलन को नियन्त्रित करने के लिए किया गया। इन रियासतों और यहाँ के शासकों ने औपनिवेशिक सत्ता के बतौर सहायक की
भूमिका का निर्वाह किया, जिस बात को काँग्रेस को समझने में देर लगी, या फिर जिस
बात को काँग्रेस ने अपेक्षाकृत देर से समझा।
उस
समय भारत में जितनी देसी रियासतें मौजूद थीं, उनमें 13 देसी रियासतें, जो भौगोलिक
दृष्टि से पाकिस्तान के निकट थीं और जहाँ की आबादी मुस्लिम-बहुल थी, पाकिस्तान के
साथ गयीं। शेष
बची 552 रियासतें भारत के 48 प्रतिशत क्षेत्रफल और 28 प्रतिशत आबादी का
प्रतिनिधित्व करतीं थीं। इसके अलावा, ये देसी रियासतें राष्ट्रीय
एकता एवं अखण्डता की दृष्टि से ही नहीं, सामरिक दृष्टि से भी
भारत के लिए महत्वपूर्ण थीं।
देसी रियासतों में काँग्रेस की बढ़ती रूचि:
बीसवीं सदी के दूसरे दशक तक
काँग्रेस ने देसी रियासतों के प्रति अपनी उदासीनता का प्रदर्शन किया। लेकिन, 1920 तक आते-आते उसे देसी रियासतों की अहमियत का पता चला।
उसने यह महसूस किया कि देसी रियासतों में रह रहे लोगों की आकांक्षाओं की अनदेखी कर
पाना न तो उसके लिए संभव है और न ही व्यावहारिक। उनकी चिन्ताएँ शेष भारत के लोगों
की चिन्ताओं से जुदा नहीं हैं और इनको अपने साथ जोड़े बिना न तो राष्ट्रीय आन्दोलन
को मजबूती दी जा सकती है और न ही औपनिवेशिक सत्ता पर दबाव को बढाया ही जा सकता है।
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें
सन् 1920 में देसी रियासतों के प्रति अपनी उदासीनता छोड़कर उनमें रूचि लेनी शुरू की
और फिर तब से लेकर देश की आजादी तक देसी रियासतों के प्रति उसकी नीति में बदलाव
आते रहे जिन्हें निम्न परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है:
1. पहला चरण
(1920-29): नागपुर अधिवेशन,1920: नागपुर अधिवेशन, 1920 में काँग्रेस ने पहली बार देशी रियासतों के प्रति अपनी नीति घोषित करते हुए यहाँ
की प्रजा के लिए अपनी सदस्यता के दरवाज़े खोल
दिए। इसने वहाँ के शासकों से यह अपील की कि:
a. वे वहाँ पर उत्तरदायी सरकार के गठन की दिशा में अविलम्ब पहल
करें, और
b. वहाँ की जनता को काँग्रेस का सदस्य बनने की अनुमति प्रदान
करें।
लेकिन, देसी
रियासतों को लेकर काँग्रेस की हिचक पूरी तरह से अभी समाप्त नहीं हुई। इसका प्रमाण यह है कि देसी
रियासतों में काँग्रेस के सदस्यों के द्वारा किसी भी प्रकार की राजनीतिक गतिविधि
प्रारम्भ नहीं की जा सकती है। जब सन् 1927 में अखिल भारतीय
प्रजा-मण्डल सम्मलेन (All India State People’s Conference) के पहले अधिवेशन में काँग्रेस
ने देसी रियासतों के प्रति नीति के सन्दर्भ में नागपुर लाइन को ही दोहराया गया।
2. दूसरा चरण
(1929-39): लाहौर अधिवेशन, 1929: आगे चलकर,
लाहौर अधिवेशन, 1929 में जवाहर लाल नेहरु ने
देसी रियासतों के प्रति काँग्रेस की नीति को
पुनर्परिभाषित करते हुए यह स्पष्ट किया कि:
a. देसी रियासतें अब शेष भारत से अलग नहीं रह सकती हैं।
b. इन देसी रियासतों के तकदीर का फैसला वहाँ की जनता ही कर
सकती है।
बाद के
वर्षों में, काँग्रेस देसी रियासतों की जनता
के मौलिक अधिकारों के प्रति संवेदनशील हुई और उसने वहाँ के शासकों से अपने
यहाँ की जनता के लिए मौलिक अधिकारों की बहाली की माँग की।
3. तीसरा चरण
(1939-47): त्रिपुरी अधिवेशन,1939: अन्ततः
देसी रियासतों में राष्ट्रवाद की लहर को देखते हुए त्रिपुरी अधिवेशन,1939 में
काँग्रेस ने अपने नाम पर आन्दोलन की अनुमति
प्रदान की। इसी वर्ष आल इण्डिया पीपुल्स काँग्रेस में जवाहर लाल नेहरु के
अध्यक्ष चुने जाने के बाद देसी रियासतों में
चलने वाले राष्ट्रीय आन्दोलन ब्रिटिश भारत में चलने वाले राष्ट्रीय आन्दोलन के साथ
सम्बद्ध हो गये।
4. भारत छोड़ो
आन्दोलन की अहमियत: सन् 1942
में जब भारत छोड़ो आन्दोलन का आह्वान किया गया, तो महात्मा गाँधी ने यह स्पष्ट कर
दिया कि यह आन्दोलन सिर्फ ब्रिटिश भारत का आन्दोलन नहीं है, वरन् यह सम्पूर्ण भारत
का आन्दोलन है। इस रूप में देखें, तो भारत छोड़ो आन्दोलन राष्ट्रीय आन्दोलनों में
अपनी प्रकृति का ऐसा पहला आन्दोलन था जिसने ब्रिटिश भारत के साथ-साथ देसी रियासतों
को भी अपनी जद में लेने की कोशिश की। इसने देसी
रियासतों में काँग्रेस और उसके नेतृत्व के लिए एक ऐसा अनुकूल वातावरण निर्मित किया
जिसे भुनाने की कोशिश उनके द्वारा आजादी की बाद की गयी।
5. चौथा चरण
(1947-48): माउंटबेटन
योजना,1947 और देसी रियासतें: जब जून,1947 में माउंटबेटन योजना, जिसे डिकी बर्ड प्लान (जो लॉर्ड माउंटबेटन
का निकनेम था) के रूप में भी जाना जाता है, प्रस्तुत की गयी, तो आरम्भ में इस
योजना में देसी रियासतों को यह विकल्प दिया गया कि वे या तो भारत में शामिल हों या
पाकिस्तान में, या फिर स्वतन्त्र रहने के विकल्प को अपना सकते हैं। लेकिन, अन्तरिम सरकार के उपाध्यक्ष जवाहर लाल नेहरु की तीखी प्रतिक्रिया ने
तीसरे विकल्प की संभावनाओं पर विराम लगाया। इसीलिए जब इस योजना को अन्तिम रूप दिया गया, तो देशी रियासतों के समक्ष दो ही विकल्प थे: या तो वे भारत का
हिस्सा बनना स्वीकार करें, या फिर पाकिस्तान का; इन दोनों से पृथक इनका कोई
अस्तित्व नहीं होना था। इसकी उन्हें इजाजत नहीं दी गयी।
6. आत्मनिर्णय का
सिद्धान्त: भारत के द्वारा देशी रियासतों के भारत में
विलय के लिए आत्मनिर्णय के सिद्धांत (Theory of Self Determination) को आधार बनाया गया। इसके तहत् इन देशी रियासतों की जनता को यह निर्णय लेना था कि वे भारत के साथ
रहना चाहते हैं या नहीं। लेकिन, इस
सिद्धान्त की व्याख्या भारत ने अपनी सुविधा और सहूलियत के हिसाब से की: कहीं
शासकों के सन्दर्भ में, तो कहीं जनता के सन्दर्भ में।
7. ग्वालियर
सम्मलेन, 1947: इस पृष्ठभूमि में सन् 1947
में ग्वालियर में अखिल भारतीय राज्य जन-सम्मलेन (AISPC) का आयोजन किया गया। इस कॉन्फ्रेंस की अध्यक्षता करते हुए तत्कलीन
प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरु ने स्पष्ट शब्दों में इस बात की घोषणा की, “जो
राज्य संविधान-सभा में शामिल होने से इन्कार करेंगे, उनसे शत्रुतापूर्ण व्यवहार
किया जाएगा।”
स्पष्ट है कि 15
अगस्त,1947 को भारत को आजादी तो मिली, लेकिन
विभाजन एवं साम्प्रदायिक त्रासदी की पृष्ठभूमि में अंग्रेजों ने देश के 565
देशी रियासतों को भारतीय संघ में शामिल होने या न होने का अधिकार
देते हुए इसे लुंज-पुंज और कमजोर बनाये रखने की अपनी ओर से हरसंभव कोशिश भी
की। फलतः इनमें से कुछ देसी रियासतों ने भारत में शामिल होने का निर्णय
लिया, तो कुछ ने पाकिस्तान में शामिल होने का निर्णय; लेकिन
अधिकांश ने स्वतंत्र रहने का निर्णय लिया। हैदराबाद, जम्मू-कश्मीर और जूनागढ़ रियासतों ने
अंग्रेजों की इसी चाल का फायदा उठाते हुए भारत से पृथक अपने स्वतंत्र अस्तित्व को
बनाये रखने का निर्णय लिया और अन्त-अन्त तक ऐसा करने की कोशिश की। ऐसी स्थिति में भाररत के समक्ष चुनौतियाँ कहीं अधिक गहन थीं।
देसी रियासत विभाग पटेल के जिम्मे:
यही
वह पृष्ठभूमि है जिसमें देसी रियासतों का विभाग का गठन किया गया जिस पर देसी
रियासतों के भारत में विलय को सुनिश्चित करने की जिम्मेवारी थी, और सरदार वल्लभ
भाई पटेल को इसका नेतृत्व सौंपा गया। इस कार्य में उन्हें सहयोग देने के लिए वी.
पी. मेनन को नियुक्त किया गया। इस विभाग के प्रमुख के रूप में सरदार पटेल को विलय
से सम्बंधित नीतियों के निर्धारण और उसकी कार्ययोजना तैयार करने के साथ-साथ उन्हें
क्रियान्वित करने की जिम्मेवारी सौंपी गयी। 22 जून,
1947 को देसी
रियासत विभाग का कार्य-भार सँभालते हुए सरदार पटेल ने कहा, “भारत को यह बर्दाश्त नहीं होगा कि उसके
क्षेत्र का कोई इलाका ऐसा रह जाये जो उस संघ को नष्ट कर दे जिसे सबने मिलकर अपने
खून-पसीने से बनाया है।” उन्होंने
भारत के भौगोलिक दायरे में आने वाली देसी रियासतों से यह अपील की कि वे देश-हित
से सम्बद्ध तीन विषयों: विदेश-सम्बंध, सेना और संचार पर भारतीय संघ को स्वीकृति प्रदान करें।
इस क्रम में उन्होंने देसी रियासतों और उनके शासकों को परोक्षतः यह चेतावनी भी दी कि अगर उनका रवैया सकारात्मक नहीं रहा, तो “वे
रिसासत की बेकाबू हो रही जनता को नियन्त्रित करने में मदद के लिए समर्थ नहीं हो
पायेंगे। साथ ही, 15 अगस्त के बाद सरकार की शर्तें और कड़ी होती जायेंगी।”
इस सन्दर्भ में बिपिन चन्द्र लिखते हैं, “रियासतों में जनता के आन्दोलन और कठोर कार्यक्रम लागू
करने के दबाव और पटेल की दृढ़ता, यहाँ तक कि कठोरता की ख्याति के कारण इनमें से अधिकांश देसी रियासतों के
शासकों ने पटेल की अपील को तुरन्त मान लिया।” परिणामतः 15 अगस्त, 1947 तक हैदराबाद, जूनागढ़ और जम्मू-कश्मीर रियासत को छोड़कर सारी देसी रियासतों
ने भारत में शामिल होने का निर्णय लिया।
अब सवाल यह उठता है कि सरदार पटेल ने इस महती जिम्मेदारी का
निर्वाह कैसे किया? इस सन्दर्भ में देखें, तो सरदार पटेल ने इस कार्य को
अपने सहयोगी वी. पी. मेनन की सहायता से अन्जाम दिया। उन्होंने कूटनीतिक कौशल का परिचय देते हुए साम, दाम, दण्ड और भेद
की नीति को अपनाकर भारत में देशी रियासतों के एकीकरण को
संभव बनाया। इस क्रम में कुछ रियासतों ने
व्यवहारिक नजरिया अपनाते हुए संविधान सभा में शामिल होने का निर्णय लिया, परन्तु
अधिकांश देसी रियासतें और उनके शासक इससे अलग ही रहे। इनमें से कुछ देसी
रियासतों: कश्मीर, हैदराबाद, जूनागढ़, त्रावणकोर और भोपाल आदि के शासकों ने अपनी
स्वतन्त्र एवं स्वायत्त पहचान बनाये रखने की मंशा सार्वजनिक रूप से जाहिर की। इनमें भी कश्मीर, जूनागढ़ और हैदराबाद अन्त-अन्त तक
डटे रहे। उनके पास अपने स्वतन्त्र
अस्तित्व बनाये रखने के विकल्प नहीं थे, पर देसी रियासतों के शासक आसानी से मोह
छोड़ने को तैयार नहीं थे। ऐसे में इस बात को समझा जा सकता है कि सरदार पटेल के लिए आगे की राह आसान
नहीं होने जा रही थी। इतिहासकार बिपिन चन्द्र लिखते हैं, “27 जून, 1947 को सरदार पटेल
ने नवगठित रियासत विभाग का अतिरिक्त कार्यभार सचिव वी. पी. मेनन के साथ सँभाल लिया। इन रियासतों के शासकों द्वारा संभावित राजनीति दुराग्रहता
से उत्पन्न भारतीय एकता के खतरे के प्रति पटेल पूरी तरह परिचित थे। उन्होंने मेनन को उस समय कहा कि इस परिस्थिति में खतरनाक
संभावनाएँ भी छुपी हुई हैं और यदि इन्हें शीघ्र ही प्रभावी तरीके से सँभाला नहीं गया,
तो हमारी मुश्किल से अर्जित आज़ादी इन रजवाड़ों के दरवाज़ों से निकल कर गायब हो जा
सकती है। इसलिए वह आनाकानी कर रहे
रजवाड़ों को सँभालने के लिए तेज़ी से काम पर लग गए।”
भारत
संघ के साथ देसी रियासतों के विलय की इस मुहिम
में सरदार पटेल को सफलता तो मिली, लेकिन, इसके लिए उन्होंने कहीं जनान्दोलन
को उत्प्रेरित कर उनके माध्यम से जनता के दबाव को सृजित करने की कोशिश की, तो कहीं
देसी रियासतों के शासकों को अनेक रियायतों एवं प्रलोभनों के जरिये भारत में शामिल
होने के लिए प्रोत्साहित किया। और, जहाँ उपर्युक्त दोनों रणनीति अप्रभावी रही,
वहाँ धमकी एवं दबाव की रणनीति को भी अपनाया गया। इस क्रम में 549 देशी रियासतों
में से कई देशी रियासतों का समूहीकरण करते हुए उन्हें प्रान्त का रूप प्रदान किया
गया और कई रियासतों को प्रशासनिक केन्द्र के रूप में पुर्नगठित किया गया। इस तरह
भारत के संघीय ढाँचे का जो स्वरुप निर्मित हुआ, उसे निम्न सन्दर्भों में देखा जा
सकता है:
1. वर्ग
A: ब्रिटिश भारत के 9 प्रान्त,
2. वर्ग
B: 8 बड़ी देसी रियासतें,
3. वर्ग
C: 10 माध्यम एवं छोटे आकार की देसी रियासतें, और
4. वर्ग
D: कुर्ग
कश्मीर, जूनागढ़ और
हैदराबाद-समस्या
15 अगस्त, 1947 तक कश्मीर, हैदराबाद और जूनागढ़ को
छोड़कर लगभग सभी रियासतों ने भारत में सम्मिलित होने के लिए विलय-पत्र पर
हस्ताक्षर कर दिये थे। इन तीनों देशी रियासतों ने भारत का हिस्सा बनने से इन्कार
कर दिया और इसलिए इन्हें भारत का हिस्सा बनाने के लिए जिन मुश्किलातों का सामना
करना पड़ा, उन्हें निम्न परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है:
कश्मीर का विलय, अक्टूबर,1947:
कश्मीर में 75% मुस्लिम जनसंख्या थी, परन्तु वहाँ के शासक
हरि सिंह हिन्दू थे। यद्यपि कश्मीर घाटी में शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में चलाया
जा रहा प्रजातान्त्रिक आन्दोलन कश्मीर के भारत में विलय के पक्ष में था, तथापि
कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने भारत और पाकिस्तान में शामिल होने की बजाय अपना स्वतंत्र अस्तित्व
बनाये रखना चाहा। उन्होंने भारत और
पाकिस्तान, दोनों से यथास्थिति समझौता (Standstill Agreement) हेतु आग्रह किया था। पाकिस्तान ने तो इस आग्रह को स्वीकारते हुए कश्मीर के साथ
यथास्थिति समझौते पर हस्ताक्षर किया, लेकिन भारत ने इंतज़ार करने की रणनीति अपनाई।
इसी बीच 22 अक्टूबर,1947 को अकबर खाँ के अधीन
हजारों की संख्या में कबायली पठानों द्वारा पाकिस्तान की सीमा-पार करके कश्मीर में प्रवेश
ने एक जटिल चुनौती उत्पन्न की। यह परोक्षतः पाकिस्तान
द्वारा कश्मीर पर कबायली हमला था जिसने कश्मीर के महाराजा को भारत या पाकिस्तान
में किसी एक को चुनने के लिए विवश किया। पाकिस्तान तो हमलावर ही
था जिससे निपट पाना अकेले इनके वश में नहीं था। इस चुनौती का मुकाबला
करने के लिए इन्हें भारतीय मदद की ज़रुरत थी, अतः 24 अक्टूबर को महाराजा हरि सिंह
ने भारत सरकार से मदद की अपील की। लेकिन, भारत ने तबतक सैन्य-मदद से इन्कार
किया, जबतक महाराजा कश्मीर के भारत में विलय के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं लेते।
मजबूरन महाराजा को विलय पर राजी होना पड़ा। अन्ततः 27 अक्टूबर, 1947 को महाराजा हरि सिंह ने
भारत सरकार के साथ विलय-दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर किया। महाराजा ने प्रशासनिक
प्रमुख के रूप में शेख अब्दुल्ला की नियुक्ति की भारत सरकार की सलाह को स्वीकार
लिया। लेकिन, यह विलय बिना शर्त नहीं हुआ। भारत को महाराजा की कुछ शर्तें स्वीकारनी पड़ी, जिनका उल्लेख
विलय-दस्तावेज़ में मिलता है। सन् 1948 में हस्ताक्षरित विलय के
दस्तावेज़ के मुताबिक:
1. जम्मू-कश्मीर ने प्रतिरक्षा, संचार और विदेशी मामले में
अपनी सम्प्रभुता भारत संघ को समर्पित करते हुए भारत का हिस्सा बनना स्वीकार किया,
लेकिन अन्य मामलों में उसकी स्वायत्ता बनी रहनी थी।
2. साथ ही, यह विलय अस्थायी थी जिस पर अन्तिम निर्णय वहाँ की
जनता को लेना था।
स्पष्ट है कि कश्मीर पर पाकिस्तानी कबाइली हमले
ने ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न की जिन्होंने कश्मीर के भारत में विलय के मार्ग को
प्रशस्त किया।
यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए
कि भारत में कश्मीर के विलय के मार्ग को प्रशस्त करने में नेहरु-शेख अब्दुल्ला की दोस्ती
और शेख
अब्दुल्लाह के रूख की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही। शेख अब्दुल्ला कश्मीर के भारत में विलय के पक्ष में तो थे,
पर उनका जोर शासन के लोकतंत्रीकरण और कश्मीर में लोकप्रिय प्रशासन के गठन पर था,
ताकि निर्वाचित जन-प्रतिनिधि कश्मीर के भविष्य का निर्धारण करने में सक्षम हो सके।
नेहरु आरम्भ से ही कश्मीर के भारत में विलय के पक्ष में थे, लेकिन पटेल का रूख कुछ
अस्पष्ट था। दरअसल नेहरु कश्मीर की सामरिक और भू-राजनीतिक
महत्व से परिचित भी थे और कश्मीरी पण्डित होने के कारण उनका कश्मीर से विशेष लगाव
भी था, लेकिन पटेल मुस्लिम-बहुल कश्मीर के परिदृश्य की जटिलता और उसके
पाकिस्तान लिंकेज को समझ रहे थे, इसीलिए उस मामले में उलझने से बचना चाहते थे। उनकी प्राथमिकता अलग थी और वे राष्ट्र-निर्माण एवं
सुदृढ़ीकरण पर फोकस किया जा सके। लेकिन, सितम्बर,1947
में पाकिस्तान द्वारा हिन्दू-बहुल जूनागढ़ के जबरन विलय के बाद पटेल भी कश्मीर के
भारत में विलय के पक्ष में खुलकर सामने आ गए। इतना ही नहीं,
प्रधानमन्त्री नेहरु की अनुपस्थिति में उन्होंने भारतीय संघ में कश्मीर के विलय की
पूरी-की-पूरी प्रक्रिया को मॉनिटर करते हुए उसे अन्जाम तक पहुँचाया। साथ ही, नेहरु की दिली इच्छा भारत में कश्मीर के विलय की
प्रक्रिया को तार्किक परिणति तक पहुँचाने की थी, ताकि भारतीय संघ में कश्मीर की
स्थिति भी अन्य भारतीय राज्यों की तरह हो जाय, यद्यपि विलय की शर्तों के प्रति
अपनी प्रतिबद्धता वे लगातार प्रदर्शित करते रहे।
बाद में, 30 दिसम्बर, 1947 को लॉर्ड माउण्टबेटेन
के परामर्श पर भारत ने कश्मीर का मुद्दा संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रस्तुत किया।
सन् 1951 में सयुक्त राष्ट्र संघ ने एक प्रस्ताव पारित किया, जिसके अनुसार संयुक्त
राष्ट्र संघ के निरीक्षण में कश्मीर में एक जनमत-संग्रह कराये जाते की बात की गई।
लेकिन, इसके लिए पहले पाकिस्तान को पाक-अधिकृत कश्मीर के इअलाके का विसैन्यीकरण
करना था।
जूनागढ़ का विलय, फरवरी,1948:
बिपिन चन्द्र लिखते हैं,
“जूनागढ़ सौराष्ट्र के तट पर एक छोटी-सी रियासत थी जो चारों ओर
से भारतीय भूभाग से घिरी थी और इसलिए पाकिस्तान के साथ उसका कोई भौगोलिक सामीप्य
नहीं था।
फिर भी, इसके नवाब ने 15 अगस्त, 1947 को अपने राज्य का विलय पाकिस्तान के साथ
घोषित कर दिया; हालाँकि राज्य की जनता, जो अधिकांशतः हिन्दू
थी, भारत में शामिल होने की इच्छुक थी।”
दरअसल जूनागढ़ की आबादी लगभग सात लाख थी। इनमें करीब 80 प्रतिशत आबादी हिन्दू थी, जबकि वहाँ का नवाब
मुसलमान था। लेकिन, नवाब ने जनाकांक्षाओं की
अनदेखी करते हुए पाकिस्तान के साथ विलय के पक्ष में निर्णय लिया।
इस मसले पर नेहरू और पटेल एकमत थे। उनका यह मानना था कि जूनागढ़
के भविष्य का फैसला अन्तिम रूप से वहाँ की जनता को करना चाहिए। इसीलिए वे जनमत-संग्रह
के पक्ष में थे। लेकिन, जब इसकी उपेक्षा करते हुए पाकिस्तान ने नवाब के इस
निर्णय को स्वीकार कर लिया, तो वहाँ की जनता
ने विद्रोह कर दिया। स्थिति को बिगड़ते देख नवाब
वहाँ से भाग खड़ा हुआ। ऐसी स्थिति में वहाँ के दीवान शाहनवाज़ भुट्टो ने भारत सरकार
को आमन्त्रित किया और इसके बाद जूनागढ़ रियासत में प्रवेश करते हुए
भारतीय सेना ने स्थिति को काबू में किया। फिर, फरवरी,1948 में रियासत के अन्दर जनमत-संग्रह कराया गया। जनमत-संग्रह का निर्णय भारत के साथ विलय के पक्ष में गया
और अन्ततः फरवरी,1948 में जूनागढ़ का भारत में विलय सम्पन्न हुआ।
हैदराबाद
का विलय, सितम्बर,1948:
दरअसल 82,000 वर्ग मील भौगोलिक क्षेत्र में फैले
हैदराबाद का झुकाव पाकिस्तान की ओर था और वह वहीं से दिशानिर्देशित हो रहा था। चारों तरफ से जमीन
से घिरी यह रियासत आबादी और कुल राष्ट्रीय उत्पादन के लिहाज से भारत का सबसे बड़ा
राजघराना था। हैदराबाद में निजाम
और सेना में वरिष्ठ पदों पर मुस्लिम थे, लेकिन वहाँ की 85
प्रतिशत आबादी हिन्दू थी। हैदराबाद राज्य निजाम शासन के अधीन था। निजाम की मंशा
आजादी के बाद भी दक्षिण भारत में अपनी सल्तनत कायम रखने की थी।
लेकिन, आजाद भारत के लिए भौगोलिक,
राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से
हैदराबाद के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार करना सम्भव नहीं था, जबकि 26 अक्टूबर,
1947 को कश्मीर और 20 फरवरी,1948 को जूनागढ़ के विलय के बावजूद हैदराबाद रियासत के निजाम मीर उस्मान अली
खान, जिन्हें दुनिया का सबसे अमीर व्यक्ति माना जाता
था, ने भारत में विलय के प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया।
जून,1947 में वायसराय माउंटबेटन
द्वारा अंग्रेजों के भारत छोड़ने की घोषणा के बाद हैदराबाद के निजाम ने भी 12 जून को इस बात की
घोषणा कर दी कि:
1. अंग्रेजी हुकूमत खत्म होने के बाद हैदराबाद रियासत पूरी तरह
स्वाधीन हो जाएगी, और
2. वह पूरी तरह स्वाधीन शासक बन जाएँगे।
इसी आलोक में उन्होंने संविधान सभा तक में अपने प्रतिनिधि भेजने से इनकार कर दिया।
निजी
सेना के रूप में मौजूद रजाकारों, जिसने हैदराबाद में
तत्कालीन निजाम शासन का बचाव किया था और हिन्दुओं पर अत्याचार किया था,
ने भी भारत संघ में हैदराबाद के विलय का
विरोध किया था। ध्यातव्य है
कि 1940 में निजाम के शासन को बनाए रखने के मकसद से कासिम रिजवी ने
रजाकार नामक एक निजी सेना का गठन किया था, जिसका उद्देश्य हर कीमत पर हैदराबाद के
भारत में विलय का विरोध करना था।
27 जून, 1947 को नवगठित रियासत
विभाग का अतिरिक्त कार्यभार संभालने के बाद सरदार पटेल ने यह स्पष्ट कर दिया, “भारत
को यह बर्दाश्त नहीं होगा कि उसके क्षेत्र का कोई ऐसा इलाका रह जाए जो उस
संघ को नष्ट कर दे जिसे सब ने मिलकर अपने खून पसीने ने बनाया है।” हैदराबाद
द्वारा विलय के प्रस्ताव को खारिज करने और अपनी स्वतंत्रता बनाये रखने की जिद के
मद्देनज़र तत्कालीन गर्वनर
जनरल लॉर्ड माउंटबेटन ने सरदार पटेल को सलाह दी थी कि इस चुनौती का सामना भारत बल-प्रयोग
किये बिना करे और समाधान तक पहुँचने की कोशिश करे। उनकी इस सलाह से तत्कालीन
प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू भी सहमत थे। लेकिन, सरदार पटेल का यह मानना था कि हैदराबाद भारत के पेट में कैंसर के समान है और इसका समाधान
सर्जरी से ही होगा।
आजादी के बाद भी विलय के प्रश्न
पर सहमति नहीं बन पाने की स्थिति में नवंबर,1947 में तत्कालीन गवर्नर जनरल
लॉर्ड माउंटबेटन के कहने पर भारत सरकार और निजाम के बीच एक स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट
हुआ। इसमें तय किया गया कि:
1.
15 अगस्त,1947
के पहले तक हैदराबाद से जो
पारस्परिक संबंध की व्यवस्था थी, वह बनी रहेगी।
2.
निजाम को हैदराबाद में एक प्रतिनिधि सरकार का गठन करना था, और
3.
दोनों पक्षों को एक दूसरे के यहाँ अपने एजेंट भी नियुक्त करने थे।
लेकिन, पाकिस्तान के प्रभाव में
उसने भारत के साथ
विलय को टालते हुए सन्धि की शर्तों का उल्लंघन करना शुरू किया:
1.
निज़ाम द्वारा अपनी सैन्य-शक्ति के प्रसार के ज़रिये टकराव एवं संघर्ष की रणनीति
अपनायी गयी।
2.
निज़ाम द्वारा सन्धि की शर्तों का उल्लंघन करते हुए बिना भारत को बताए
पाकिस्तान को करोड़ों रुपये का ऋण दिया गया।
3.
निज़ाम ने पाकिस्तान में अपना एक जन सम्पर्क अधिकारी भी नियुक्त कर दिया।
4.
हद तो तब हो गयी जब निज़ाम ने विदेशों से हथियार खरीदने की कोशिश की।
हालाँकि, पाकिस्तान
द्वारा अहमदाबाद और बॉम्बे पर प्रतिक्रियात्मक हवाई हमले से आशंकित तत्कालीन
भारतीय सैन्य प्रमुख जनरल फ्रांसिस रॉबर्ट बूचर ऐसी किसी भी सैन्य कार्रवाई के
विरोध में थे, तथापि सरदार पटेल राज्य में शान्ति-व्यवस्था एवं सुरक्षा के
मद्देनज़र सैन्य कार्रवाई के अपने निर्णय पर अडिग रहे। हैदराबाद में भारत सरकार के एजेंट नियुक्त किये
गए के. एम. मुंशी
ने अपनी किताब 'ऐंड ऑफ एन एरा' में लिखा है कि निजाम ने मोहम्मद अली जिन्ना से संपर्क कर यह जानने की
कोशिश की थी कि क्या वह भारत के खिलाफ उनके राज्य का समर्थन करेंगे। अपनी
आत्मकथा 'बियॉन्ड द लाइंस' में कुलदीप नैयर
ने लिखा है कि जिन्ना ने निजाम कासिम के इस
प्रस्ताव को सिरे से खारिज करते हुए कहा कि वह मुट्ठीभर एलीट लोगों के लिए
पाकिस्तान के अस्तित्व को खतरे में नहीं डालना चाहेंगे।
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें 13
सितम्बर,1948 में तत्कालीन गृह-मंत्री सरदार वल्लभभाई
पटेल द्वारा हैदराबाद में ‘ऑपरेशन पोलो’ नाम से सैन्य अभियान चलाया
गया। इसके फलस्वरूप महज पाँच दिनों के भीतर 17 सितंबर, 1948 को हैदराबाद का भारत में विलय सम्भव हो सका। इन सब के बीच निजाम उस्मान
अली ने 10 सितंबर,1948 को संयुक्त राष्ट्र से इस
मामले में हस्तक्षेप करने की अपील की और इस सिलसिले में सुरक्षा परिषद में इस
मामले को उठाने के लिए अपना प्रतिनिधिमंडल
भी भेजा, लेकिन इससे पहले कि सुरक्षा परिषद कोई पहल करती, निजाम के शासन की समाप्ति
के साथ हैदराबाद का भारत में विलय हो चुका था। 23 सितंबर को निजाम ने सुरक्षा परिषद से अपनी शिकायत वापस लेते
हुए हैदराबाद रियासत की भारत संघ में विलय की घोषणा की। आगे चलकर, 24 नवंबर,1949 को निजाम ने यह घोषणा की कि भारत का संविधान
ही हैदराबाद का संविधान होगा और 26 जनवरी 1950 को हैदराबाद राज्य नियमित तौर पर भारत का
हिस्सा बन गया।
चंदन नगर का विलय, मई,1950:
राष्ट्रवादी आन्दोलन और उसके
कारण उत्पन्न होने वाली परेशानियों ने फ्रांस के ऊपर जो दबाव निर्मित किया, उसके
कारण जून,1949 में
फ्रांसीसियों को पश्चिम बंगाल के चंदन नगर में जनमत-संग्रह
करवाने के लिए तैयार होना पड़ा, जिसका नतीजा चन्दन नगर के भारत में विलय के पक्ष
में आया। मई,1950 को फ्रांसीसियों ने चंदन नगर को भारत सरकार के हवाले कर
दिया।
पांडिचेरी का विलय, नवंबर,1954:
फ़्रांस
ने चन्दन नगर भले ही भारत के हवाले कर दिया हो, पर पुर्तगाल के मसले पर वह कोई भी
बात करने के लिए तैयार नहीं था।
फ़्रांसीसी सरकार का साफ़ संदेश था कि पांडिचेरी पर कोई बात नहीं होगी। लेकिन, चन्दन
नगर के विलय से उत्साहित होकर वी. सुब्बैया के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चे ने
आज़ादी के लिए आंदोलनों को तेज किया और कम्युनिस्ट पार्टी से संपर्क साधते हुए उसके
समर्थन हासिल करने की कोशिश की। इसी आलोक में 7 अप्रैल, 1954 को कम्युनिस्ट पार्टी ने 'डायरेक्ट एक्शन' की घोषणा करते हुए इसी दिन फ्रांसीसी कब्ज़े से कई क्षेत्रों
को मुक्त करवाया। 9 अगस्त,1954
को
वी. सुब्बैया के नेतृत्व में सभी दलों ने पूरे पांडिचेरी में अनिश्चितकालीन हड़ताल
की घोषणा करते हुए फ्रांस को तत्काल
पांडिचेरी छोड़ने को कहा। अन्ततः राष्ट्रीय आन्दोलन और भारत सरकार
द्वारा निर्मित दबाव रंग लाई और 13
अक्टूबर,
1954 को फ्रांस के तत्कालीन
प्रधानमंत्री पियरे मेंडेस फ्रांसे शान्तिपूर्वक पांडिचेरी सौंपने को तैयार हो गए। 18 अक्टूबर,1954 को हुए मतदान में अधिकांश म्युनिसिपल काउंसिलर्स और
असेम्बली प्रतिनिधियों ने भारत
के साथ विलय के पक्ष में मतदान किया। फलतः 1 नवंबर 1954 को पांडिचेरी, यनम, माहे और कराईकल इलाकों का भारत में विलय हो गया। बाद में,
मई 1956 में
द्विपक्षीय संधि के तहत् फ्रांस भारत को अपने कब्जे वाले क्षेत्रों को सौंपने पर
राजी हुआ, और मई,1962 में फ्रांसीसी संसद ने इस पर अपनी मुहर लगाई।
गोवा
का विलय, दिसम्बर,1961:
गोवा का सवाल एक अंतर्राष्ट्रीय सवाल भी था और
अपेक्षाकृत जटिल सवाल भी, क्योंकि गोवा पुर्तगाली शासन के अधीन था और पुर्तगाल
नाटो का सदस्य था। काँग्रेस
की नज़र पहले से ही गोवा पर थी, और काँग्रेस-नेतृत्व वहाँ पर आज़ादी के पहले से ही
सक्रिय था। इनमें राम मनोहर लोहिया, सेनापति बापट और टी.
बी. कुन्हा, जिन्हें गोवा राष्ट्रवाद का जनक भी कहा जाता है, शामिल थे।
आजादी के बाद तत्कालीन प्रधानमन्त्री पंडित
नेहरू और रक्षा-मंत्री कृष्ण मेनन के कूटनीतिक स्तर पर बारम्बार अनुरोध के बावजूद
पुर्तगाली सरकार ने अमेरिका एवं ब्रिटेन के बहकावे में आकर गोवा और दमन-दीव के
अपने इलाकों को भारत को सौंपने से इनकार कर दिया। उधर पुर्तगाली
आधिपत्य से मुक्ति के लिए गोवा, दमन एवं दीव में जनान्दोलनों में तेजी के साथ
राष्ट्रवादी दबाव बढ़ता जा रहा था। ऐसी स्थिति में भारत ने गोवा की मुक्ति के लिए
दोतरफा रणनीति अपनायी:
1. एक ओर उसने परदे के पीछे से गोवा-मुक्ति आन्दोलन को
प्रोत्साहन देने की रणनीति अपनायी, और
2. दूसरी ओर उसने इस मसले के साथ-साथ भारत पर पुर्तगाली हमले
के मसले को संयुक्त राष्ट्र संघ में उठाया।
इस तरह भारत ने अंतर्राष्ट्रीय नियमों का पालन
करते हुए चतुराई से गोवा की मुक्ति के लिए अनुकूल माहौल निर्मित किया।
2 अगस्त,1954 में गोवा की राष्ट्रवादी ताकतों ने
दादर एवं नागर
हवेली की बस्तियों पर कब्जा करते हुए भारत-समर्थित स्थानीय सरकार
की स्थापना की। इससे उत्साहित होकर सन् 1955 में हजारों लोगों ने गोवा में
घुसने की कोशिश की, लेकिन पुर्तगाली पुलिस ने निहत्थी भीड़ पर गोली चला दी, जिससे
यह मामला गरमा गया। सन् (1954-61) के दौरान दादर और नागर हवेली का प्रशासन
नागरिकों की संस्था वरिष्ठ पंचायत के जिम्मे रहा, लेकिन सन् 1961 में दादर और नागर
हवेली को केन्द्र-शासित प्रदेश घोषित करते हुए उसे पूरी तरह से प्रत्यक्षतः भारतीय
शासन के अधीन लाया गया।
इसके बाद भारत ने पुर्तगाल-शासित शेष क्षेत्रों को हासिल करने
के लिए आर्थिक प्रतिबंधों को आरोपित करते हुए दबाव निर्मित करने की कोशिश
की, लेकिन इसका कोई परिणाम नहीं निकला। दादर और नागर हवेली के हाथ से निकलने के पश्चात्
पुर्तगाली सतर्क हो चुके थे। बौखलाहट में उन्होंने गोवा, दमन एवं दीव की
सुरक्षा हेतु लगभग 8 हज़ार अतिरिक्त सेना मँगवा ली थी। ऐसी स्थिति में भारत के सामने गोवा
को हासिल करने के लिए सैन्य कार्रवाई के अलावा कोई विकल्प शेष नहीं रह गया।
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें दिसम्बर, 1961 में पुर्तगाली आधिपत्य से गोवा की मुक्ति के
लिए भारत ने एयर
वाइस मार्शल एरलिक पिंटो के नेतृत्व में ऑपरेशन विजय लॉन्च किया। 2 दिसम्बर को भारतीय सेना के नेतृत्व में ‘गोवा-मुक्ति अभियान’
शुरू हुआ। 17 दिसम्बर को भारतीय सैनिक गोवा में प्रवेश कर गए। दमन में
पुर्तगालियों के खिलाफ मराठा लाइट इन्फैंट्री ने मोर्चा संभाला और दीव में राजपूत
और एवं मद्रास रेजिमेंट ने। नौसेना के युद्धपोत आईएनएस दिल्ली ने पुर्तगाल
के समुद्री किनारों पर हमला किया। 19 दिसम्बर को तत्कालीन पुर्तगाली गवर्नर
मैन्यू वासलो डे सिल्वा के आत्मसमर्पण के साथ गोवा का भारत में विलय सम्पन्न हुआ। इस प्रकार गोवा,
दमन और दीव को 451 साल पुराने औपनिवेशिक आधिपत्य से मुक्ति मिली।
इस प्रकार अगर हैदराबाद, जूनागढ़ और कश्मीर का
भारत में विलय सम्भव हो सका, तो इसका इसका श्रेय बहुत हद तक पटेल की राजनीतिक
सूझ-बूझ, कूटनीतिक कौशल और दृढ-इच्छाशक्ति को जाता है जिन्होंने जरूरत पड़ने
पर पुलिस-कार्यवाही से भी परहेज नहीं किया।
विश्लेषण:
स्पष्ट है कि सरदार
पटेल जितने बड़े नेता थे, उससे कहीं अधिक बड़े संगठनकर्ता और कुशल प्रशासक। इसीलिए एक नव-स्वतन्त्र भारतीय राष्ट्र के
निर्माण और सुदृढ़ीकरण में उनकी महत्वपूर्ण एवं निर्णायक भूमिका होनी थी।
इसलिए भी कि मैकियावेली
की रियल पॉलिटिक की समझ, उनका कूटनीतिक कौशल, उनके व्यक्तित्व की दृढ़ता, उनकी
साहसिकता और बनाये गए प्लान को क्रियान्वित करने की उनकी क्षमता
उन्हें इस काम के लिए सर्वाधिक योग्य, सक्षम एवं उपयुक्त व्यक्ति बनाती है। गाँधी
ने उनकी इस क्षमता को उनकी शक्ति और सीमा के साथ पहचाना, और इसीलिए भारत का
नेतृत्व उनके हाथों में सौंपने की बजाय उन्हें नेहरु के विश्वस्त सहयोगी की भूमिका
में चुनते हुए राष्ट्र-निर्माण और सुदृढ़ीकरण की जिम्मेवारी उनके सबल कन्धों पर
सौंपी। और, उन्होंने उस जिम्मेवारी का सफलतापूर्वक निर्वाह भी किया।
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