निकटस्थ पड़ोस प्रथम और चीन सीमा-विवाद
प्रमुख आयाम
1. उभरती
चीनी चुनौती का जवाब
2.
निकटस्थ पड़ोस
प्रथम की असली
परीक्षा
3.
पड़ोसी देशों का
रुख
4.
चुनौती बनता उद्दंड हिन्दू राष्ट्रवाद
5. वैकल्पिक रणनीति की दिशा में पहल
उभरती चीनी चुनौती का
जवाब:
वर्तमान सरकार की विदेश-नीति के
निर्धारण में अन्य सारी बातों के अलावा उस राजनीतिक ताकत की अहम् भूमिका है जो
प्रधानमंत्री मोदी घरेलू राजनीतिक परिदृश्य में अपने करिश्माई व्यक्तित्व की बदौलत
हासिल कर रहे हैं।
साथ ही, चीनी अर्थव्यवस्था के तेजी से उभार और एशिया में उसकी बढ़ती सैन्य-क्षमता
को लेकर भारत की चिंताएँ भी इसके स्वरुप-निर्धारण में अहम् भूमिका निभा रही है। तेजी
से उभरता चीन और उसकी बढ़ती हुई आक्रामकता भारत के निकटस्थ पड़ोसी देशों में चीनी
प्रभुत्व का आधार तैयार करती हुई भारत के लिए मुश्किलें खड़ी कर रही हैं।
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें निकटस्थ पड़ोस प्रथम के जरिये भारतीय
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी यह सन्देश देने की कोशिश में लगे हैं कि भारत में
क्षेत्रीय शांति और आर्थिक समेकन की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करने की क्षमता है। दक्षिण
एशिया में बाह्य हस्तक्षेप का राग अलापने की बजाय भारत स्वाभाविक भौगोलिक बढ़त,
आर्थिक पूरकता, साझी सांस्कृतिक-विरासत और महत्वपूर्ण सामरिक अवस्थिति को ध्यान में
रखते हुए क्षेत्रीय रणनीति विकसित करने की कोशिश में लगा है। उसे इस बात का
अन्दाज़ है कि अगर निकटस्थ पड़ोसी देशों के साथ अपने विवादों का निपटारा उसने समय
रहते नहीं किया, तो यह इन देशों में और उनके माध्यम से इस क्षेत्र में चीन को अपने
प्रभाव में वृद्धि का अवसर उपलब्ध करवाएगा। साथ ही, यदि भारत दक्षिण एशियाई
भू-राजनीति में बृहत्तर सामरिक विश्वास हासिल करता है, तो अमेरिका और चीन से डील
कर पाने की भारत की क्षमता में महत्वपूर्ण इजाफा होगा।
इसी आलोक में मई,2014 में
प्रधानमंत्री बने नरेन्द्र मोदी ने निकटस्थ पड़ोस प्रथम की नीति की दिशाम्में पहल
की और इसके माध्यम से दक्षिण एशियाई पड़ोसी देशों को भरोसे में लेने का प्रयास किया। इस क्रम में उनके
नेतृत्व में भारत ने भूटान एवं नेपाल जैसे छोटे पड़ोसी देशों को प्राथमिकता देते
हुए अपनी विदेश-यात्रा की शुरुआत की, और अपने प्रधानमंत्रित्व के दो साल पूरा
होते-होते उन्होंने भारत के लगभग सारे पड़ोसी देशों की यात्रा की।
सम्मिट स्टाइल डिप्लोमेसी को अपनाते हुए उन्होंने वहाँ के राष्ट्राध्यक्षों के साथ
अपने संबंधों को पर्सनल टच देने की कोशिश की और एक ऐसा आभामंडल सृजित करने का
प्रयास किया जिसमें भारत को प्रभुत्वशाली क्षेत्रीय शक्ति के रूप में स्थापित किया
जा सके। दूसरे
शब्दों में कहें, तो निकटस्थ पड़ोस प्रथम की भारतीय नीति चीनी चुनौती के साथ-साथ
वैश्विक चुनौती के मद्देनज़र उसकी रणनीतिक ज़रुरत है जिसके जरिये वह अपने सामरिक
हितों को भी साधना चाहता है और अपने आर्थिक विकास की प्रक्रिया को उत्प्रेरित करना
भी, अब यह बात अलग है कि वर्तमान नेतृत्व ने उसे भी अपने छवि-निर्माण के राजनीतिक
उपकरण में तब्दील कर दिया।
निकटस्थ पड़ोस
प्रथम की असली परीक्षा:
स्पष्ट है कि मई,2014 में भारत ने अपने
पड़ोस में चीन की बढती सक्रियता और उसमें अन्तर्निहित खतरों के आलोक में ही ‘निकटस्थ
पड़ोस प्रथम’ नीति को इंट्रोड्यूस किया था। इससे यह अपेक्षा
की गयी थी कि यह भारत के पड़ोसी देशों में चीन के बढ़ते हुए प्रभाव पर अंकुश लगाने
में सहायक साबित होगा और इससे दक्षिण एशियाई क्षेत्र में क्षेत्रीय नेतृत्व के रूप
में भारत के उभार की प्रक्रिया भी तेज होगी। साथ ही, इसको
लेकर पड़ोसी देशों में भारत की स्वीकार्यता भी बढ़ेगी जिससे भारत अपनी वैश्विक
महत्वाकांक्षाओं को पूरा करता हुआ अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण एवं
प्रभावशाली भूमिका निभाएगा। इसीलिए इस नीति
की सफलता या असफलता का मूल्यांकन चीन के बढ़ाते हुए प्रभाव पर अंकुश लगा पाने और इस
काम में दक्षिण एशियाई पड़ोसियों के सहयोग को सुनिश्चित कर पाने में इसकी भूमिका के परिप्रेक्ष्य में होना चाहिए।
पड़ोसी देशों का
रुख:
अगर इस परिप्रेक्ष्य में देखें, तो
हालिया भारत-चीन सीमा-विवाद और इसके कारण उत्पन्न तनाव को कम करने के मसले पर भारत
के दक्षिण एशियाई पड़ोसी देशों की चुप्पी हतप्रभ नहीं करती
है। इसके उलट, नेपाल नए नक़्शे के जरिये भारतीय सीमा पर
अपनी ओर से मोर्चा खोलकर चीन की मदद करता दिखाई पड़ रहा है और गलवान घाटी की हिंसक
झड़प के ठीक अगले दिन पाकिस्तान में एक लम्बे अंतराल के बाद
आईएसआई के मुख्यालय में उच्चस्तरीय बैठक हुई जो इस बात की ओर इशारा कर रहा है कि
वह इसे एक अवसर के रूप में भुनाने की ताक में है। वैसे
भी, पाकिस्तान-चीन की बढ़ती नजदीकियों और बलूचिस्तान पर भारत के ऑफिसियल स्टैंड में
परिवर्तन के बाद उसके द्वारा ऐसा न करने का कोई कारण नहीं दिखता है। अफगानिस्तान
अभी खुद में ही उलझा हुआ है और एनआरसी एवं सीएए के मसले ने
बांग्लादेश के साथ-साथ अफगानिस्तान के सरकार को भी भारत से दूर किया है। भारत
में हिन्दुत्ववादी एजेंडे के बढ़ते जोर की पृष्ठभूमि में बांग्लादेशी घुसपैठियों के
गरमाते हुए मसले और सीएए-एनआरसी विवाद के कारण बांग्लादेश-भारत सम्बन्ध भी प्रतिकूलतः
प्रभावित हुआ है। उस पर भी हाल ही में चीन ने बांग्लादेश सहित
अल्प-विकसित देशों के 97 प्रतिशत उत्पादों की शुल्क-मुक्त पहुँच की घोषणा की है। श्रीलंकाई सरकार के चीन-समर्थक
रुख के कारण महिन्दा
राजपक्षे के भाई गोटाबायो राजपक्षे की सरकार से तो इसकी उम्मीद भी नहीं की जा सकती है।
यद्यपि इस नीति को इस बात का श्रेय दिया जाता है कि इसके कारण बांग्लादेश के साथ सीमा-विवाद के समाधान में सफलता मिली और पहले कार्यकाल के दौरान श्रीलंका और भूटान के साथ सम्बन्ध भी बेहतर हुए, लेकिन यह अधूरा सच है। पूरा सच यह है कि बांग्लादेश के साथ सीमा-विवाद पर मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में ही समझौता हो चुका था, बस उस पर हस्ताक्षर की औपचारिकता पूरी की जानी थी। रही बात श्रीलंका एवं भूटान की बात, तो वहाँ चुनावों के बाद राजनीतिक नेतृत्व में परिवर्तन और नए राजनीतिक नेतृत्व के विज़न के साथ-साथ उसके राजनीतिक हितों ने इस बेहतरी में अहम् भूमिका निभाई। वर्तमान में भूटान में जिस समाजवादियों की सरकार है, चीन को लेकर उनका रुख भी नरम है क्योंकि भूटान नेशनल असेंबली के चुनाव के दौरान चीन ने नेपाल के जरिये इनकी मदद की और इनकी जीत को सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इधर, भारत-चीन सीमा-विवाद अपने चरम पर है, उधर जून,2020 के अंत में इस तरह की ख़बरें आईं कि भूटान ने असम(भारत) के बक्सा जिले से लगे सीमावर्ती इलाकों में अवस्थित सिंचाई-चैनल के लिए पानी छोड़ना बंद कर दिया है। लेकिन, भूटान ने इस रिपोर्ट की वैधता का स्पष्ट रूप से खंडन किया है। उसका कहना यह है कि दरअसल वह असम में पानी के सुचारू प्रवाह को सुनिश्चित करने के लिए चैनलों की मरम्मत कर रहे हैं। ध्यातव्य है कि बक्सा जिले के 26 से ज्यादा गाँवों के करीब 6000 किसान सिंचाई के लिए डोंग परियोजना पर निर्भर हैं और सन् 1953 के बाद से इस क्षेत्र के किसानों के द्वारा धान की सिंचाई के लिए भूटान से आनेवाले पानी का इस्तेमाल किया जा करते रहे हैं।
कुल-मिलाकर भारत के दक्षिण एशियाई
पड़ोसियों ने इस मसले पर या तो चुप्पी साध ली है, या ‘फिर दोनों पक्ष इसका
शांतिपूर्ण समाधान निकल लेंगे’ कहकर प्रतिक्रिया देने की औपचारिकता पूरी की है।
अगर दूसरे शब्दों में इसी बात को कहूँ, तो निकटस्थ पड़ोस प्रथम की नीति के बावजूद
भारत के पड़ोसी देशों में चीन की स्थिति भारत की तुलना में कहीं अधिक मज़बूत प्रतीत
हो रही है।
चुनौती बनता उद्दंड हिन्दू
राष्ट्रवाद:
दरअसल उग्र हिन्दू राष्ट्रवाद के
प्रति वर्तमान सरकार की आग्रहशीलता और उसके उद्दंड एवम आक्रामक राष्ट्रवाद ने दक्षिण एशिया में भारत के परम्परागत मित्रों
एवं सहयोगियों को असहज किया है। अब वे भारत के साथ पहले की तरह सहज नहीं महसूस
करते हैं और कहीं-न-कहीं भारत को लेकर आशंकित भी हैं जिसे उनकी इस चुप्पी के जरिये
समझा जा सकता है।
कश्मीर और लद्दाख की संवैधानिक स्थिति
को परिवर्तित करने के कुछ ही महीने बाद, जब नवम्बर,2019 में भारत ने नया राजनीतिक
नक्शा जारी किया जिसमें भौगोलिक रूप से पश्चिमी तिब्बत और पाक-अधिकृत कश्मीर के
बीच अवस्थित एवं सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हिमालयी लद्दाख क्षेत्र को
केंद्र-शासित प्रदेश के रूप में दर्शाया, तो इससे चीन नाराज़ हुआ और नेपाल एवं
पाकिस्तान ने इसका खुलकर विरोध किया। यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में
रखा जाना चाहिए कि सीमा-विवाद के सन्दर्भ में भारत जो आरोप चीन पर लगता है, कुछ
वैसा ही आरोप नेपाल भी भारत पर लगता है। हालिया घटनाक्रम यह बतलाते हैं कि विवादित
सीमाओं पर बातचीत से परहेज़ समस्याओं को कम करने की बजाय उसे बढ़ा रहा है, अब
सन्दर्भ चाहे भारत-चीन का हो, या फिर भारत नेपाल का। इस सन्दर्भ में भारत का नेपाल
के प्रति रवैया कुछ वैसा ही है जैसा चीन का भारत के प्रति। ऐसी स्थिति में पड़ोसी
देशों से भारत के साथ खड़े होने की अपेक्षा उचित नहीं है, और इस स्थिति के लिए
भारत, उसकी नीतियाँ और उसका रवैया स्वयं ही जिम्मेवार है। और, हम निकटवर्ती पड़ोसी
देशों की ही बात क्यों करें, अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोपीय संघ को छोड़कर शेष दुनिया
भारत की चिंताओं से बेखबर है; और यहाँ तक कि इन तीनों की प्रतिक्रियाओं को सामान्य
चिंता-प्रदर्शन की औपचारिकता के रूप में लिया जाना चाहिए। अधिक-से-अधिक अमेरिका
अपने सामरिक हितों के कारण एक-दो कदम आगे बढ़ सकता है, लेकिन इस बात को समझा जाना
चाहिए कि वह विश्वसनीय नहीं है और वह भारत की लडाई नहीं लड़ने जा रहा है।
वैकल्पिक रणनीति की दिशा में पहल:
निकटस्थ पड़ोस प्रथम की नीति को पुनर्परिभाषित करने
का प्रयास ही इस ओर इशारा करता है कि धीरे-धीरे भारत अपने निकटस्थ पड़ोस से बाहर
निकलकर बहुपक्षीय आर्थिक एवं राजनीतिक गठबंधन की संभावनाओं की तलाश कर रहा है। विस्तृत पड़ोस तक पहुँचने की कोशिश
इसी ओर इशारा करता है। हाल में चीन के साथ सीमा-विवाद ने रणनीतिक प्राथमिकताओं के निर्धारण
की इस प्रक्रिया को तेज कर दिया है। इसी आलोक में मार्च,2020 से भारत अमेरिका के
नेतृत्व वाले इंडो-पैसिफ़िक राष्ट्रों के समूह (IPGN), जिसमें जापान, ऑस्ट्रेलिया,
न्यूजीलैंड, कोरिया एवं वियतनाम शामिल हैं, का हिस्सा बना। यह अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के
साथ लोकतान्त्रिक देशों के समूह (QUAD) का हिस्सा है। यह समूह क्षेत्रीय सुरक्षा के मसले
पर सामूहिक पहल के लिए संयुक्त मोर्चे के निर्माण और सामुद्रिक सहयोग को बढ़ाये
जाने के प्रश्न पर विचार कर रहा है। अगर ऐसा होता है, तो हिन्द महासागर और साउथ
चाइना सी में प्रभुत्व स्थापित करने की कोशिश में लगे चीन के लिए मुश्किलें खड़ी
होंगी।
इसी बीच भारत के लिए राहत भरी खबर
ऑस्ट्रेलिया से आयी है। जून,2020 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी
और ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन के बीच वर्चुअल शिखर बैठक के दौरान हुए
समझौते में भारत और ऑस्ट्रेलिया, दोनों ने हिंद महासगर में चीन के बढ़ते प्रभाव को
रोकने के लिए एक दूसरे के जंगी जहाजों और फाइटर जेटों को अपने-अपने सैनिक अड्डों के
इस्तेमाल की अनुमति दी। इस तरह भारत ऑस्ट्रेलिया के साथ द्विपक्षीय वर्चुअल बैठक करने
वाला पहला देश बना है। भारत अमेरिका के साथ इस तरह का समझौता पहले ही कर चुका है।
इस समझौते को रणनीतिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है क्योंकि यह समझौता
भारत को इंडोनेशिया (कोकोज द्वीप समूह) के पास बने ऑस्ट्रेलियाई नौ सैनिक अड्डों
के इस्तेमाल का अधिकार प्रदान करता है और ऑस्ट्रेलिया को अंडमान निकोबार द्वीप
समूह स्थित नौ सैनिक-अड्डों के उपयोग का अधिकार, जिससे हिंद महासागर में स्थित
मलक्का स्ट्रेट और आसपास के इलाके पर कड़ी नजर रखी जा सकेगी।
इन सबके बावजूद चीन वास्तविक नियंत्रण-रेखा(LAC) पर अपने रुख को नरम
करने के लिए तैयार नहीं है और ऐसा लगता है कि यह मसला लम्बा खिंचने वाला है।