Saturday, 18 April 2020

मेडिकल टीम पर होने वाले हमले के लिए ज़िम्मेवार कौन: समाज और उसकी सोच


मेडिकल टीम पर होने वाले हमले के लिए ज़िम्मेवार कौन?
समाज और उसकी सोच
इस प्रश्न पर विचार करने के पहले मैं इस पोस्ट के पाठकों के समक्ष इस बात की स्पष्ट शब्दों में घोषणा करना चाहता हूँ कि इस आलेख से तटस्थता एवं निष्पक्षता की उम्मीद न पालें क्योंकि मैं किसी भ्रम में नहीं हूँ। मैं जानता हूँ कि मेरा एक पक्ष है।इसलिए न तो मैंतटस्थ एवं निष्पक्षहो सकता हूँ औरन हीहोना चाहता हूँ।
अब लौटता हूँ मूल प्रश्न पर। क्या आपको भी लगता है कि कोरोना के सन्दर्भ में देश के विभिन्न हिस्सों में मेडिकल टीम और पुलिस वालों पर होने वाले हमलों के लिए मुसलमान ज़िम्मेवार हैं? अगर हाँ, तो इस स्थिति के लिए आप भी ज़िम्मेवार हैं, आपकी सोच भी ज़िम्मेवार है; और जबतक आप जैसे लोग और आपकी जैसी सोच मौजूद रहेगी, तबतक ऐसे हमले होते रहेंगे।
दरअसल इस स्थिति के लिए जहालत ज़िम्मेवार है, और जहालत मुस्लिम समुदाय तक सीमित नहीं है। कमोबेश हर समुदाय में यह जहालत मौजूद है, अन्तर है, तो सिर्फ़ डिग्री का। कहीं पर यह जहालत अधिक मात्रा में विद्यमान है, तो कहीं पर कम मात्रा में; पर है यह हर जगह पर। हाँ, मुझे यह स्वीकार करने में हिचक नहीं है कि चूँकि मुस्लिम समाज अभाव, ग़रीबी और अशिक्षा से कहीं अधिक ग्रस्त है, इसीलिए उसमें जहालत कहीं अधिक विद्यमान है और जाहिलों की संख्या कहीं अधिक है। शायद यही कारण है कि यह अब भी फ़िरक़ापरस्तों, रूढ़िवादियों और कट्टरपंथियों की गिरफ़्त में है। इसीलिए वहाँ इस तरह की घटनाएँ अपेक्षाकृत ज्यादा हैं और स तरह की घटनाओं के ख़िलाफ़ मुस्लिम समाज का प्रगतिशील तबक़ा उतना मुखर नहीं है जितना अन्य धार्मिक समुदायों का प्रगतिशील तबक़ा। लेकिन, जितना बड़ा सच यह है, उतना ही बड़ा सच यह भी है कि पिछले एक दशक के दौरान हिन्दू समाज के जाहिलीकरण की प्रक्रिया तेज़ हुई हैऔर अब तो पढ़े-लिखे जाहिलों की फ़ौज भी तैयार होती जा रही है जो ऐसी घटनाओं को भी साम्प्रदायिक नज़रिए से देख रही है, बिना उसकी क़ीमत जाने, और जिसका ऐसी घटनाओं के प्रति नज़रिया सेलेक्टिव है।
इसके अतिरिक्त, भारतीय समाज एवं राजनीति के साथ-साथ प्रशासन एवं भारतीय मीडिया का सम्प्रदायीकरण, एजेंडा पत्रकारिता एवं ऐसी घटनाओं के प्रति सेलेक्टिव एप्रोच और उग्र एवं आक्रामक हिन्दुत्व का उभार भी इस स्थिति के लिए कहीं कम ज़िम्मेवार नहीं, जिसने तबलीग का मतलब मुसलमान, कोरोना-संकट के लिए मुस्लिमों की एकमात्र जिम्मेवारी और कोरोना-जिहाद जैसी भ्रामक वधारणाओं को प्रचारित-प्रसारित करते हुए इसे हिन्दू जन-मानस से जड़-मूलबद्ध कर दिया।
लेकिन, जिस एक बिन्दू पर चर्चा होनी चाहिए थी और जिस पर अबतक चर्चा नहीं हुई, वह है ऐसी घटनाओं के प्रति समाज की सोच और इसके लिए उसकी ज़िम्मेवारी की। हमने कोरोना को अस्पृश्यता को बढ़ावा देने के साथ-साथ घृणा एवं नफ़रत पैदा करने के नए उपकरण के रूप में तब्दील कर दिया है। वैसे लोगों को, जो कोरोना संदिग्ध हैं या जिनका कोरोना टेस्ट रिपोर्ट पॉज़िटिव है, हमारी सहानुभूति एवं समर्थन की ज़रूरत है, न कि उपेक्षा एवं तिरस्कार की। इसके विपरीत, उनके प्रति समाज के साथ-साथ पुलिस एवं प्रशासन का रवैया कुछ वैसा ही होता है जैसा एक अपराधी के प्रति। शायद यही कारण है कि मेडिकल टीम और पुलिस-प्रशासन उन्हें अपने दुश्मन की तरह लगते हैं, ऐसा लगता है कि वे उन्हें सज़ा देने के लिए आ रहे हैं और इसीलिए उनके प्रति उनका रवैया न केवल असहयोगात्मक होता है, वरन् वे कई बार उग्र, अराजक, आक्रामक एवं हिंसक भी हो जाते हैं। इतना ही नहीं, इस स्थिति के लिए कोरेंटाइन सेन्टर एवं आइसोलेशन सेन्टर की अव्यवस्था भी कहीं कम ज़िम्मेवार नहीं है। यही कारण है कि ऐसी भीड़ और ऐसे हमले मुस्लिम समुदाय तक सीमित नहीं हैं, वरन् इनका दायरा बहुसंख्यक समुदायों के साथ-साथ ग़ैर-मुस्लिम समुदायों तक फैला हुआ है। इस पूरी प्रक्रिया में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक समुदायों के बीच सक्रिय संकीर्ण हित-समूह फेक न्यूज एवं हेट न्यूज के जरिए उत्प्रेरक की भूमिका निभा रहा है।


Thursday, 9 April 2020

तबलीग जमात और कोरोना संकट


तबलीग जमात और कोरोना संकट 
आसान नहीं है कोरोना से लड़ना:
आसान नहीं है कोरोना से लड़ना, क्योंकि इसके लिए कोरोना से कहीं अधिक एट्टीट्यूड से लडना होगा, अब वह एट्टीट्यूड व्यक्ति का हो या समूह का, या फिर प्रशासन का।अपनी इस बात को मैं तसल्ली से आपके समक्ष रखना चाहूँगा।‘अल्लाह मियाँ की गाय’ के रूप में लोकप्रिय तबलीगी जमात ने इस्लाम को शर्मसार किया, या फिर इस्लाम के प्रति नफ़रत एवं घृणा फैलाने के लिए इसका इस्तेमाल एक राजनीतिक मोहरे के रूप में किया जा रहा है; इस पर निश्चयात्मक रूप से टिप्पणी करना आसान नहीं है। पर, इतना तो कहा ही जा सकता है कि इसने कोरोना के विरूद्ध लड़ाई में जो राष्ट्रीय सहमति बनी थी, उसे भी खंडित किया है।
मरकज़ के बहाने:
मरकज़ से मेरी शिकायत यह है कि इसने मानव एवं मानवता को संकट में डाला। इसने जान-बूझकर खुद के साथ-साथ पूरे समाज को जोखिम में डाला और मुस्लिम समाज को एक बार फिर से कलंकित किया। इसने यह साबित कर दिया कि धर्म जनता के लिए अफ़ीम है और किसी भी धार्मिक समुदाय के रहनुमा अपने संकीर्ण स्वार्थों की सिद्धि के लिए अपने ही समुदाय के लोगों को अफीमची में तब्दील करते हुए अपने ही समुदाय के दुश्मन बन जाते हैं। इसका इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि दिल्ली स्थित निजामुद्दीन मरकज़ (Nizamuddin Markaz) में जो लोग मौजूद थे,अबतक उनमें से करीब 1,000से अधिकलोग कोरोनावायरस (COVID-19) से संक्रमित पाए गए हैं, और केन्द्र सरकार को आशंका है कि इसने करीब तीस हज़ार लोगों को कोरोना से संक्रमित किया। यहाँ पर यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि तकनीकी रूप से तबलीगी मरकज़ का पक्ष भले ही गलत न हो, पर मानवीय एवं नैतिक दृष्टि से उन्होंने ग़ैर-ज़िम्मेदाराना रवैये का परिचय दिया है, इसमें सन्देह की गुँजाइश नहीं है और इसके लिए तबलीगी मरकज़ की जितनी भी भर्त्सना की जाए, वह कम है। इसलिए मेरा मानना है कि इस प्रकरण में न तो मरकज़ को डिफ़ेंड किया जा सकता है और न ही डिफ़ेंड किया जाना चाहिए।

लेकिन, सरकार और प्रशासन को भी मरकज़ के बहाने बच निकलने और पल्ला झाड़ने की अनुमति नहीं दी जा सकती है।अमित सर ने ठीक ही कहा, “निजामुद्दीन मामले में मीडिया और प्रशासन का जिस तरह का रवैया है, वह बेहद शर्मनाक है। पहला अपराध उन आयोजकों का है जिन्होंने तमाम एडवायजरी के बावजूद जमात का कार्यक्रम आयोजित किया, लेकिन प्राथमिक जिम्मेदारी सरकार की है कि उन्हें यह करने क्यों दिया गया?
मजनू के टीले वाली घटना से तुलना:
जिस समय तबलीगी मरकज़ के बहाने मुस्लिम समुदाय पर तीखा हमला बोला जा रहा था और उनके विरूद्ध घृणा एवं नफ़रत का अभियान चलाया जा रहा था, उसी समय दिल्ली स्थित मजनूँ का टीला गुरुद्वारा में भी 200 सिख श्रद्धालुओंके छिपे/फँसे (अगर आपको लगता है कि मरकज़ में ढ़ाई हज़ार के आसपास लोग छिपे हुए थे, तो छिपे; और अगर आपको लगता है कि मरकज़ में ढ़ाई हज़ार के आसपास लोग फँसे हुए थे, तो फँसे) हुए थे और उनको निकालने की प्रक्रिया चल रही थी, पर इसके लिए सिख क़ौम को ज़िम्मेवार नहीं ठहराया गया जो हमारे दोहरापन की ओर इशारा करता है।
हाँ, विदेशी लोगों की उपस्थिति के कारण मरकज का मामलाथोड़ा अलग है, पर इसके लिए जितनी ज़िम्मेवारी मरकज़ के लोगों की बनती है, उतनी ही केन्द्र सरकार  और उसकी एजेंसियों की, जिस पर उनकी निगरानी का दायित्व था और जिन्होंने अपने इस दायित्व का निर्वाह नहीं किया।दूसरी बात, जाहिलपना भी मरकज़ की समस्या को गम्भीर बनाता है और इसके ग़ैर-ज़िम्मेदाराना रवैये की ओर इशारा करता है। तबलीगी जमात के मौलाना का मस्जिद में रहने पर कोरोना ना होने जैसा बेहूदा बयान देकर लोगों को गुमराह करना इसी ओर इशारा करता है।

धर्म के कारण गम्भीर होता कोरोना संकट:
समस्या सिर्फ़ मरकज़ नहीं है, मूल समस्या है मुस्लिम समाज के एक हिस्से का जाहिलपन और धर्मांन्धता की गिरफ़्त में होना। इसके लिए जितना ज़िम्मेवार मुस्लिम समाज और उसका नेतृत्व है, उसमें व्याप्त अभाव, ग़रीबी और अशिक्षा है जिसने उसे दक़ियानूसी मध्ययुगीन सोच वाले उलेमाओं की गिरफ़्त में बनाए रखा; उतना ही ज़िम्मेवार इतिहास एवं ऐतिहासिक परिस्थितियाँ भी हैं। और, इन सबके बीच वर्तमान भारतीय परिदृश्य, प्रबल होता बहुसंख्यकवादी आग्रह और मुस्लिमों में गहराती आशंकाएँ इस गिरफ़्त/शिकंजे को कमजोर करने की बजाय और अधिक कसने का काम कर रही हैं। जाहिल एवं धर्मांध मौलानाओं, आलिमों और उलेमाओं केद्वारा रूढ़िवादी मान्यताओं एवं अन्धविश्वासों का प्रचार-प्रसार भारत में कोरोना के ख़िलाफ़ चल रही लड़ाई को मुश्किल बना रहा है। बचा-खुचा काम व्हाट्स एप्प,फ़ेसबुक और ट्विटर में चल रहे फेक न्यूज एवं हेट न्यूज कर रहा है। इसी का परिणाम है कि देश के विभिन्न हिस्सों में जगह-जगह पर अल्पसंख्यक समुदाय के द्वारा जाँच के लिए पहुँची मेडिकल टीम के साथ बदतमीजी की जा रही है,उन पर हमले किए जा रहे हैं, क्वेरेंटीन सेंटर में डॉक्टर्ड सहित मेडिकल स्टाफों के साथ सहयोग नहीं किया जा रहा है और मस्जिद में नमाज़ पढ़ने की ज़िद पुलिस-प्रशासन के साथ टकराव को जन्म दे रही है।ऐसा नहीं है कि इस तरह की समस्याएँ केवल मुसलमानों के साथ हैं। ऐसी समस्याएँ अन्य समुदायों के साथ भी आ रही हैं, अंतर है तो इनकी प्रकृति और तीव्रता में।
घृणा एवं नफ़रत फैलाने का साधन बनतीमरकज़ वाली घटना:
एक लम्बे समय से रणनीति के तहत् मुसलमानों के खिलाफ घृणा एवं नफ़रत फैलाने की कोशिश संस्थागत स्तर पर की जा रही है, और दुर्भाग्य यह है कि मुस्लिम समाज के कुछ नुमाइंदे चाहे-अनचाहे लगातार उन्हें ऐसा अवसर उपलब्ध करवा रहे हैं। दक्षिणपंथी हिन्दुत्व के प्रबल पक्षधरों ने तबलीग जमात का इस्तेमाल ऐसे ही अवसर के रूप में किया है। मेनस्ट्रीम मीडिया और सोशल मीडिया का इन घटनाओं के प्रति दोहरा रवैया, इनके प्रति उनका सेलेक्टिव एप्रोच और इन घटनाओं के बहाने पूरे मुस्लिम समुदाय को टार्गेट करते हुए साम्प्रदायिक घृणा एवं विद्वेष फैलाने के लिए इसका इस्तेमाल भी मुश्किलों को बढ़ाने वाला है। और यह सब हो रहा है सत्तारूढ़ दल के नेताओं, उसके समर्थकों और उनके द्वारा समर्थित मीडिया समूहों एवं आईटी सेल के द्वारा। इस लिंक (https://www.facebook.com/100002192970185/posts/2855574634525608/)
पर जाकर संस्थागत तरीक़े से चलाए जा रहे अभियान का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
हाल में ज़मीनी स्तर पर जो अनुभव मिला, उसको मैं आपलोगों के साथ शेयर करना चाहूँगा।
मरकज़ वाली घटनाके ठीक पहली वाली रात में अपने गाँव में मैं टहल रहा था। मेरी नज़र सड़क पर खड़े चार-पाँच लोगों पर पड़ी जिनमें बीजेपी एवं बजरंग दल के एक नेता भी शामिल थे। वे अन्य लोगों को यह समझाने की कोशिश कर रहे थे कि वे मुस्लिम दुकानदारों से सामानकी ख़रीददारी न करें। यह सुनकर मुझसे नहीं रहा गया। मैंने हस्तक्षेप किया, पर व्यर्थ। दो दिन बाद, मुस्लिम सब्ज़ी बेचनेवाले को मेरे मुहल्ले से लौटा दिया गया। इतना ही नहीं, मरकज़ वाली घटना के ठीक बाद वाली सुबह, मैं सेनिटाइजेशन के सिलसिले में बढ़ईटोला गया हुआ था जहाँ कम-से-कम पाँच-छह लोगों को मैंनेकोरोना पर चर्चा करते और इसके लिए तबलीग को ज़िम्मेदार ठहराते हुए सुना। स्पष्ट है किदक्षिणपंथी और उसकी समर्थक मीडिया तबलीग के ब्लंडर को राजनीतिक रूप सेभुनाने की हरसंभव कोशिश में लगी है। इसके बहाने ‘कोरोना जिहाद’ के काल्पनिक ख़तरे का भ्रम सृजित करते हुएमुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत एवं घृणा फैलाने का हरसंभव प्रयास किया जा रहा है।, और इसका दुखद पहलू यह है कि मुस्लिम समाज का एक हिस्सा स्वयं उसे इस प्रकार का अवसर उपलब्ध करवा रहा है; जबकि वास्तविकता यह है कि तबलीग की भूलों की क़ीमत सबसे अधिक मुस्लिम समाज ही चुका रहा है। इस अभियान का हिस्सा बनने वाले इस बात को भूल चुके हैं कि तबलीग जमात मुस्लिम समाज के उस पक्ष का प्रतिनिधित्व करता है, जो इससे जुड़े हुए हैं, न कि सम्पूर्ण मुस्लिम समाज का। इसलिए इनका बहाने पूरे मुस्लिम समाज को बदनाम करना और उसके ख़िलाफ़ नफ़रत एवं घृणा का अभियान चलाना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। यह किसी जहालत से कम नहीं है।
इसी आलोक में समरेन्द्र सिंह ने बहुसंख्यकवादी कट्टरता और राज्य केसाम्प्रदायिक चरित्र पर हमला बोलते हुए लिखा है, “जब किसी देश के बहुसंख्यक समाज का नजरिया कट्टर और उन्मादी हो जाए और राज्य का चरित्र सांप्रदायिक हो जाए, तो फिर सांप्रदायिकता के लिए किसी अल्पसंख्यक समुदाय को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है।” समरेन्द्र का यह आलेख (https://www.facebook.com/100024024375542/posts/687233155420824/) उम्दा है जिसे हर किसी को पढ़ना चाहिए।अमित सर ने भी बहुसंख्यकों को नसीहत देते हुए लिखा है, “बहुसंख्यक समुदाय को यह समझना होगा कि अल्पसंख्यक, चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान, किसी भी राज्य में प्राय: असुरक्षित महसूस करते हैं,इसलिए उनकी भावनाओं का ध्यान रखना ज्यादा जरूरी होता है। लेकिन, जब आप दिन रात उनकी राष्ट्रभक्ति का टेस्ट लेते रहेंगे और उनके समुदाय की किसी भी बात को पूरे मुस्लिम समुदाय की बात बनाकर पेश करेंगे, तो आप मूलता सांप्रदायिकता को बढ़ा रहे हैं। आपको संवाद का तरीका सीखना होगा क्योंकि कोई दो-चार बेहूदे मौलवी अपनी बहुत बड़ी फैन फॉलोइंग के बावजूद पूरे मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं।”उनका यह आलेख भी पठनीय है:
https://www.facebook.com/729085235/posts/10157811782480236/
तथाकथित सेक्यूलरों और मुस्लिम बुद्धिजीवियों की चुप्पी:
लेकिन, इसका मतलब यह नहीं है कि ऐसा करने वाले लोग, उनसे सम्बद्ध संगठन और उनके प्रति सहानुभूति रखने वाले एवं उन्हें डिफ़ेंड करने वाले तथाकथित सेक्यूलर या संगठन दूध के धुले हैं या निर्दोष हैं। वे भी उसी सेलेक्टिविज्म के शिकार हैं जिसका आरोप उनके द्वारा अपने विरोधियों पर लगाया जाता है। सबसे चिंताजनक रवैया मुस्लिम समुदाय के बुद्धिजीवियों का है जिन्होंने इस मसले पर चुप्पी साध ली है। कुछेक अपवादों को छोड़ दें, तो ये न तो तबलीग जमात एवं मरकज के करतब की निन्दा ही कर रहे हैं और न ही इसे पूरे इस्लामिक समुदाय से अलगाने का कोई प्रयास ही कर रहे हैं। यहाँ इस बात को भी ध्यान में रखने की ज़रूरत है कि एन्टी-सीएए प्रोटेस्ट के दौरान भी यह समूह चुप था।
अब प्रश्न यह उठता है कि इस मसले पर अधिकांश मुस्लिम बुद्धिजीवी चुप क्यों हैं?
इस प्रश्न के आलोक में देखें, तो मुस्लिम बुद्धिजीवियों की चुप्पी का प्रश्न वास्तविकता भी है और धारणा भी। सैय्यद शाहनवाज़ हुसैन, मुख्तार अब्बास नकवी और आरिफ़ मुहम्मद खान से लेकर नजीब जंग और जावेद अन्सारी तक ने मरकज़ के मसले पर तबलीग का खुलकर विरोध किया है और उसके रवैये को लेकर क्षोभ प्रदर्शित किया है।यहाँ तक कि आम मुसलमानों का एक हिस्सा भी मरकज़ के रवैये को लेकर आहत भी है और क्षुब्ध भी। उसे इस बात का दुःख है कि मरकज़ ने ऐसा अवसर उत्पन्न किया जिसका इस्तेमाल मुस्लिम समुदाय को  टार्गेट करने के लिए किया जा रहा है।इसलिए यह कहनाकि मरकज़ के मसले पर एक समुदाय के रूप में मुस्लिम बुद्धिजीवी और मुसलमानचुप है, उचित नहीं है।
दरअसलइस मसले परमुस्लिम समाजकी राय विभाजित है। जिस तरीके से मरकज़ के बहाने मुस्लिम समुदाय को टार्गेट करने की रणनीति अपनायी गयी,उसने मरकज़ के मसले पर मुस्लिम बुद्धिजीवियों के साथ-साथ मुस्लिम समुदायके एक हिस्से को सशंकित किया। उन्हें लगा कि दक्षिणपंथी हिन्दुत्व के पैरोकारों के द्वाराइसका इस्तेमाल समुदाय विशेष के विरूद्ध विष-वमन के लिए किया जा सकता है, इसलिए भी इसके एक हिस्से ने या तो इस मसले पर चुप्पी साध ली, या फिर तकनीकी पहलुओं का लाभ उठाकर मरकज़ को डिफ़ेंड करने का प्रयास किया, यह जानते हुए भी कि हिन्दू कट्टरपंथियों के द्वारा इसका लाभ उठाया जाएगा। उन्होंने ऐसा किया भी और इसका पूरे समाज को गलत संदेश गया।
अब समस्या यह है कि मुस्लिम समाज में अभाव, ग़रीबी और अशिक्षा का बोलबाला है और यही कारण है कि इसका अधिकांश हिस्सा जहालत से ग्रस्त है। साथ ही, आज भी अधिकांश मुसलमानोंकी सोच मध्ययुगीन है। इसका आधुनिकीकरण संभव नहीं हो पाया है। इसमें बहुत हद तक मदरसों की भी अहम् भूमिका है क्योंकि अबतक मदरसा शिक्षा-व्यवस्था का आधुनिकीकरण संभव नहीं हो पाया है। यही कारण है कि मुस्लिम समाज अबतक उलेमाओं, मुफ्तियों और मौलानाओं की गिरफ़्त से बाहर नहीं निकल पाया है। येमौलाना, मुफ्ती और उलेमा मुस्लिम जनमानस के कहीं अधिक क़रीब हैं और उन्हें कहीं गहरे स्तर पर प्रभावित करने की स्थिति में हैं। इनका हित इस बात में है कि मुस्लिम समाज दक़ियानूसबना रहे क्योंकि जबतक ऐसा रहेगा, तबतक इनाकी सत्ता अक्षुण्ण रहेगी और इनका प्रभाव बना रहेगा।
इस पृष्ठभूमि में अगर मुस्लिम बुद्धिजीवी वर्ग की भूमिका को देखें, तो यह न केवल संख्या-बल की दृष्टि से कमजोर है, वरन् एक संगठित समूह के रूप में यह अपनी मज़बूत एवं प्रभावी उपस्थिति दर्ज करवा पाने में भी असमर्थ है।कारण यह है कि न केवल इनकी तार्किक प्रगतिशीलसोच के लिए उर्वर ज़मीन का अभाव है, वरन् इसे अभिव्यक्त करने की स्थिति में उन्हें हतोत्साहित भी किया जाता है और उन पर पारिवारिक एवं सामाजिक दबाव सृजित करने की कोशिश की जाती है। इतना ही नहीं, उनके विरूद्ध फ़तवे जारी किए जाते हैं, उन्हें धमकियाँ दी जाती हैं और ज़रूरत पड़ने पर उनके विरूद्ध हिंसा का सहारा लिया जाता है। इस तरह उलेमाओं, मौलानाओं एवं मुसलमानों की दक़ियानूसी सोच के कारणमुस्लिम समाज के भीतर से सृजित होते दबाव, सगे-सम्बंधियों के दबाव और जान-माल के नुक़सान की आशंकाओं के कारणमुस्लिम बुद्धिजीवी डरे-सहमे रहते हैं। ऐसी स्थिति में वे या तो चुप्पी साध लेते हैं, या फिर दबी ज़ुबान से विरोध करते हैं। चूँकि उनके विरोध का स्वर मद्धिम होता है, बहुत मुखर नहीं होता है, इसीलिए उसे बहुत तवज्जो नहीं दी जाती है।
यहाँ समस्या यह भी है कि मुस्लिम बुद्धिजीवी अपने समाज में ‘अल्पसंख्यक में भी अल्पसंख्यक’ हैं। उनके पास वह प्लेटफ़ॉर्म नहीं है जिसके जरिए वे अपनी बातें रख सकें और उनकी बातें सुनी जा सके।साथ ही, उनकेइस विरोध को लेकर मीडिया का रवैया भी सेलेक्टिव है।एक तो वैसे भी मुस्लिम समाज में डायवर्सिफाइड एप्रोच के लिए स्पेस का कुछ हद तक अभाव है, और दूसरेडायवर्सिफाइड आवाज है भी, उसे टीआरपी के चक्कर में लगी गोदी मीडिया स्पेस देने के लिए तैयार नहीं है। उसे लम्बी दाढ़ी और नमाज़ी टोपी से लैस मुसलमानजितनासूट करता है, उतना पश्चिमी परिधान और पश्चिमी सोच से लैस मुसलमान नहीं। वह मुस्लिम समाज की नकारात्मक छवि निर्मित करने की कोशिश में जी-जान से लगा हुआ है, और इसके लिए वह मुस्लिम समाज से जुड़े हर नकारात्मक समाचार को बहुप्रचारित-बहुप्रचारित कर रहा है।
वक़्त का तक़ाज़ा:
इस बात को ध्यान में रखे जाने की ज़रूरत है कि संघ एवं भाजपा के दक्षिणपंथी हिन्दू साम्प्रदायिकता से तबतक मुक़ाबला नहीं किया जा सकता है जबतक कि सभी प्रकार की कट्टरता के विरूद्ध खड़ा न हुआ जाए और उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते हुए उसका विरोध न किया जाए। मुस्लिम सांप्रदायिकता और इस्लामिक कट्टरपंथ को नज़रंदाज़ करना इस लड़ाई को कमजोर ही करेगा। लेकिन, न तो अधिकांश मुसलमान इस बात को समझने के लिए तैयार हैं और न ही उसके प्रति सहानुभूति रखने वाले उनके तथाकथित शुभचिंतक। शायद यही कारण है कि संकट की इस घड़ी में भी मुस्लिम समाज का एक हिस्सा नमाज़ पढ़ने के लिए मस्जिद जाने पर आमदा है। वह जुम्मा की नमाज़ मस्जिद में जाकर अदा करना चाहता है और अगर उसे ऐसा करने से रोकने की कोशिश की जाती है, तो वह ऐसा करने वालों के ख़िलाफ़ आक्रामक एवं हिंसक रूप अख़्तियार करता है।
लेकिन, इस बात को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि ऐसे लोग केवल मुस्लिम समुदाय तक सीमित नहीं हैं। महाराष्ट्र के शोभापुर में रामनवमी के दौरान जुलूस निकालने की कोशिश और रोके जाने पर पुलिस पर पथराव इसका प्रमाण है। इतना ही नहीं, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा लॉकडाउन घोषणा के ठीक अगले दिन अयोध्या में जाकर रामलला की मूर्ति की पुनर्स्थापना, तेलंगाना में रामनवमी के अवसर पर भव्य समारोह का आयोजन इसी प्रक्रिया की अगली कड़ी है। यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखे जाने की ज़रूरत है कि दक्षिण कोरिया और फ़्रांस में क्रिश्चियनों के धार्मिक स्थल ने कोरोना को फैलाने में वही भूमिका निभाई जो भूमिका भारत में तबलीग जमात निभाती दिख रही है। इसी तरह के प्रश्नलन्दन में इस्कॉन की भूमिका को लेकर उठ रहे हैं।
निष्कर्ष:
संक्षेप में कहें, तो सवाल मरकज़ के पक्ष में खड़े होने का नहीं है, सवाल मरकज के मसले के राजनीतिकरण के विरोध में खड़े होने का है; और यह काम आसान नहीं है। मेरी नज़रों में मरकज़ तकनीकी रूप से ग़लत नहीं प्रतीत होता है (इस पर काफी लोग चर्चा कर चुके हैं और ज़रूरत पड़ी,तो आगे चर्चा की जाएगी)वह ग़लत है मानवीय एवं नैतिक नज़रिए से। इस पूरे प्रकरण में उसका रवैया ग़ैर-जिम्मेदाराना है। इस स्थिति के लिए जितना मरकज़ ज़िम्मेवार है, उससे तनिक भी कम ज़िम्मेवार केन्द्र सरकार और राज्य सरकार नहीं, दिल्ली पुलिस और दिल्ली प्रशासन नहीं। पर, बड़ी चालाकी से पूरे मसले को मुसलमान की ओर मोड़ दिया गया और इसके बहाने ज़मीनी स्तर पर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है। संघ और भाजपा के कैंडर ज़मीनी स्तर पर सक्रिय हैं। मुस्लिम दूकानदारों के यहाँ से सामान न ख़रीदने की नसीहत दी जा रही है। कोरोना जिहाद की बात की जा रही है और बतलाया जा रहा है कि इस संकट के लिए एक क़ौम के रूप में मुसलमान ज़िम्मेवार हैं। दुर्भाग्य यह है कि मुस्लिम बुद्धिजीवी वर्ग ने इस पूरे मसले पर चुप्पी साध रखी है, और ग़ैर-मुस्लिम बुद्धिजीवियों का एक समूह मरकज़ को क्लीन चिट देने की कोशिश में लगा है।
समरेन्द्र सिंह ने इस स्थिति के लिए धर्मनिरपेक्ष उदारवादी राजनीति में लगे उन बुद्धिजीवियों को ज़िम्मेवार ठहराया है जो ज़मीन से कट चुके हैं और इस कारण अपनी प्रभावशीलता खो चुके हैं। इसीलिए उनका यह सुझाव है,“बौद्धिक और सामाजिक गतिविधियों का विकेंद्रीकरण हो। देश और प्रदेश की राजधानियों से हट कर बौद्धिक बहस को ग्रामीण इलाकों में ले जाना होगा। छोटे कस्बों और ब्लॉक स्तर पर इन गतिविधियों को बढ़ाना होगा। युनिवर्सिटीज में, कॉलेजों में, स्कूलों में छोटे और बड़े आयोजनों का एक सिलसिला शुरू करना होगा। उस कंटेंट को सभी मीडिया प्लेफॉर्म्स और फॉरमेट में सामने रखना होगा।” उनका यह सुझावबेहतरीन है और मुक्तिबोध के उद्घोष के करीब भी:
अब अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे
उठाने ही होंगे।
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।
पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार
तब कहीं देखने मिलेंगी बाँहें
जिसमें कि प्रतिपल काँपता रहता
अरुण कमल एक।