नागरिकता-संशोधन अधिनियम,2019:
पूर्वी, पूर्वोत्तर और दक्षिण भारत का विशेष सन्दर्भ
प्रमुख आयाम
11.
संशोधन की पृष्ठभूमि:
a. अधिनियम का कम्युनल एंगल
b. भारतीय राज्यों की प्रतिक्रिया
c. राज्यों के द्वारा विरोध का औचित्य
2. इनर-लाइन परमिट व्यवस्था:
a. इनर-लाइन परमिट व्यवस्था से आशय
b.
इनर-लाइन
परमिट को लेकर विवाद:
c.
इनर-लाइन
परमिट व्यवस्था का विस्तार
d.
नागरिकता
संशोधन अधिनियम और इनर लाइन परमिट
3. असम के अनुभव:
a. असम में विरोध
b. गहराता भौगोलिक विभाजन
c. बराक घाटी की चिंताएँ
d. ब्रह्मपुत्र घाटी की चिन्ताएँ
e. असम: विभिन्न राजनीतिक दलों का रुख
4.
पूर्वोत्तर
भारत का सन्दर्भ
5. सरकार द्वारा आशंकाओं को खारिज करना
6. पश्चिम बंगाल: बांग्लाभाषी मुसलमानों का
सन्दर्भ
7. भारतीय
मूल के तमिलों की अनदेखी
संशोधन
की पृष्ठभूमि:
नागरिकता अधिनियम में इस
संशोधन की पृष्ठभूमि चकमा शरणार्थियों के सन्दर्भ में सुप्रीम कोर्ट के द्वारा दिए
गए निर्देश ने तैयार की। सितम्बर,2015 में सुप्रीम कोर्ट ने अरुणाचल प्रदेश के चकमा शरणार्थियों के लिए नागरिक अधिकारों
से सम्बंधित समिति बनाम् अरुणाचल राज्य वाद में केंद्र सरकार एवं अरुणाचल
सरकार को यह निर्देश दिया कि इस समुदाय के अर्हत लोगों को नागरिकता प्रदान करने की
दिशा में पहल करे, ताकि उनके जीवन के अधिकार
और उनकी स्वतंत्रता को संरक्षित करते हुए उनके विरुद्ध होने वाले भेदभाव पर अंकुश
लगाया जा सके। इसीलिए अगर
प्रस्तावित बिल को पारित किया जाता है, तो कपतै डैम (Kaptai Dam) के निर्माण के
कारण विस्थापित चकमा और हजोंग्स विस्थापितों को इसका लाभ मिलेगा जो पिछले 65 साल
से रिफ्यूजी की स्थिति में जीने को अभिशप्त हैं।
इसके अतिरिक्त लम्बे समय से देशीयकरण के द्वारा
नागरिकता प्राप्त करने से सम्बंधित लंबित आवेदनों ने भी इस अधिनियम में
संशोधन की आवश्यकता को जन्म दिया। ध्यातव्य है कि अवैध आव्रजन की
पृष्ठभूमि में पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के कई भारतीय मूल
के लोगों ने नागरिकता के लिए आवेदन किया है, लेकिन उनके पास भारतीय मूल
के होने के सबूत उपलब्ध नहीं है। वे नागरिकता अधिनियम,1955 की धारा 5 के
तहत् नागरिकता-प्राप्ति हेतु आवेदन करने में सक्षम नहीं हैं। इसलिए उनके द्वारा
अधिनियम की धारा 6 के तहत् देशीयकरण द्वारा नागरिकता-प्राप्ति हेतु आवेदन किया जा
रहा है जिसके तहत् 11 वर्ष की निवास-शर्त है।
अधिनियम का कम्युनल एंगल:
उपरोक्त
परिस्थितियों ने सत्तारूढ़ दल को नागरिकता अधिनियम में संशोधन का अवसर उपलब्ध
करवाया, और इसका फायदा उठाते हुए उसने इस अधिनियम के जरिये अपने कम्युनल एजेंडे को
व्यावहारिक रूप देने की कोशिश की। दरअसल, यह
अधिनियम लाया ही इसलिए गया है कि असम में जिन गैर-मुस्लिमों के नाम नागरिकों के
लिए राष्ट्रीय रजिस्टर में शामिल नहीं हो पाए हैं, उन्हें इस अधिनियम के
प्रावधानों के ज़रिये भारत की नागरिकता दी जा सके, और बांग्लादेशी मुस्लिम
घुसपैठियों को इससे वंचित रखा जा सके। ध्यातव्य है कि अगस्त,2019 में सुप्रीम
कोर्ट के निर्देशों के अनुरूप उसकी निगरानी में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर(NRC) को
अपडेट करते हुए इसकी आख़िरी लिस्ट जारी की गई। इस लिस्ट में करीब 19,06,657 लोग जगह
बना पाने में असफल रहे। इनमें करीब 13 लाख लोग हिन्दू हैं और एक लाख लोग गोरखा
समुदाय से आते हैं, जबकि करीब 5 लाख मुसलमान। ऐसा नहीं है कि केवल बांग्लादेशी
घुसपैठिये ही इस सूची से बाहर रह गए हैं। दरअसल, जिस तरह इस सूची से बाहर रहने
वाले लोगों में हिन्दू एवं मुसलमान, दोनों शामिल हैं, ठीक उसी प्रकार इस सूची से
बाहर रहने वाले लोगों में भारतीय एवं बांग्लादेशी घुसपैठियों के साथ-साथ वे भारतीय
भी शामिल हैं जो भारत के विभिन्न हिस्सों से आकर असम में बस गए, पर जो अपने भारतीय
नागरिक होने के पक्ष में समुचित एवं पर्याप्त दस्तावेज़ प्रस्तुत कर पाने में
असमर्थ रहे।
भारतीय राज्यों की प्रतिक्रिया:
दिसम्बर,2019
में केंद्र सरकार ने जिस नागरिकता-संशोधन अधिनियम,2019 को अंतिम रूप दिया है, उसका
विरोध केवल अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय और भारत की उदार एवं धर्मनिरपेक्ष छवि के
साथ-साथ भारतीय संविधान को लेकर चिन्तित उदारवादियों के द्वारा ही नहीं किया जा
रहा है, वरन् असम सहित पूर्वोत्तर के राज्य और दक्षिण भारत में तमिल-बहुल क्षेत्र
भी इसके खिलाफ सडकों पर हैं। अबतक पाँच राज्यों: वामपन्थ-शासित केरल, काँग्रेस-शासित
पंजाब एवं राजस्थान, तृणमूल काँग्रेस के द्वारा शासित पश्चिम बंगाल, और काँग्रेस-शासित
मध्यप्रदेश की विधानसभाओं ने इस अधिनियम के विरुद्ध प्रस्ताव पारित किया है और
केंद्र सरकार से इसे वापस लेने का अनुरोध किया है। साथ ही, यह भी अपील की है कि नेशनल
पापुलेशन रजिस्टर(NPR) और नेशनल रजिस्टर फॉर सिटीजन्स(NRC) को ठन्डे बस्ते में
डाला जाए। इसके अलावा महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश, ओडीशा, छत्तीसगढ़ और दिल्ली ने भी या
तो इस अधिनियम को लागू करने के प्रति अपनी अनिच्छा प्रदर्शित की है, या
प्रत्यक्षतः एनआरसी के विरोध में स्टैंड लिया है। इनमें बिहार, ओडीशा एवं
आन्ध्रप्रदेश ऐसे राज्य हैं जिन्होंने संसद के भीतर सीएए का तो समर्थन किया था, पर
ये राज्य एनआरसी के विरोध में खुलकर सामने आ चुके हैं। इनमें बिहार की स्थिति तो
और भी विचित्र है जिसने काफी ऊहापोह के बाद इसे समर्थन तो दिया है, पर वह भी एनआरसी
के पक्ष में नहीं है और उसने एनपीआर के प्रश्नावली-प्रारूप में संशोधन की माँग की
है। इस मसले पर बिहार में सत्तारूढ़ जनता दल (यूनाइटेड) में आतंरिक स्तर पर मतभेद भी
उभरकर समाने आये। ये राज्य अगर राजनीतिक कारणों से इस अधिनियम का विरोध कर रहे हैं
और संविधान की मूल भावनाओं के उल्लंघन के आधार पर अपने विरोध को जस्टिफाई कर रहे
हैं, वहीं असम सहित पूर्वोत्तर भारत के राज्य इससे सीधे-सीधे प्रभावित होने के
कारण इसके विरोध में खड़े हैं। तमिलनाडु के लोग श्रीलंकाई तमिलों के प्रश्न की
अनदेखी के कारण नाराज़ हैं।
राज्यों के द्वारा विरोध का औचित्य:
यहाँ पर
यह स्पष्ट करना आवश्यक प्रतीत होता है कि नागरिकता संघ-सूची का विषय है और इसीलिए
राज्य इस अधिनियम के क्रियान्वयन के लिए संवैधानिक रूप से बाध्य हैं, अन्यथा यह मन
जायेगा कि राज्य में संवैधानिक मशीनरी विफल है और इस आधार पर राज्य सरकार को
बर्खास्त कर राष्ट्रपति-शासन लागू किया जा सकता है। लेकिन, यह भी सच है कि अगर कई
राज्य इसके विरोध में खड़े हों और अपने रूख पर कायम रहें, तो यह संवैधानिक संकट की
स्थिति को जन्म देगा और विरोध करने वाले सभी राज्य सरकारों को बर्खास्त कर
राष्ट्रपति-शासन लागू करना और इस अधिनियम के क्रियान्वयन को सुनिश्चित करना व्यावहारिक
दृष्टि से सम्भव नहीं रहेगा। साथ ही, राज्यों के सहयोग के बिना न तो इस अधिनियम को
ज़मीनी धरातल पर क्रियान्वित किया जा सकता है और न ही एनपीआर को, क्योंकि सम्भव है
कि अपनी संवैधानिक बाध्यता को समझते हुए राज्य सरकारें इसे लागू करने से सीधे मना
करने से परहेज़ करें, और परोक्षतः इसे लागू करने में कोताही बरतते हुए इसके क्रियान्वयन
के रास्ते में मुश्किलें खड़ी करें।
इनर-लाइन परमिट व्यवस्था
इनर-लाइन परमिट व्यवस्था से आशय:
पूर्वोत्तर
भारत के पहाड़ी आदिवासी ब्रिटिश संरक्षित क्षेत्रों (Protected Area For British Subjects) में प्रायः घुसपैठ किया करते थे। इसने पहाड़ी
आदिवासियों से ब्रिटिश हितों के संरक्षण के लिए बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेगुलेशन
एक्ट,1873 का आधार तैयार किया। इसके तहत् दो समुदायों के
बीच क्षेत्रों के विभाजन के लिये इनर लाइन (Inner Line) नामक एक
काल्पनिक रेखा का निर्माण किया गया, ताकि दोनों पक्षों के लोग बिना परमिट के
एक-दूसरे के क्षेत्रों में प्रवेश न कर सकें। स्पष्ट है कि यह एक आधिकारिक यात्रा-दस्तावेज़
है जिसे संबंधित राज्य सरकार द्वारा जारी किया जाता है। यह भारतीय नागरिकों को देश
के अंदर किसी संरक्षित क्षेत्र में निश्चित अवधि के लिए यात्रा की अनुमति देता है।
स्पष्ट है कि इस एक्ट
के जरिये इन क्षेत्रों में बाहरी लोगों की आवाजाही को रेगुलेट करने के लिए
इनर-लाइन परमिट व्यवस्था की शुरुआत की गयी थी। इस व्यवस्था को कुछ बदलावों के साथ
आज़ादी के बाद भी बनाये रखा गया। फिलहाल यह व्यवस्था उत्तर-पूर्व के तीन राज्यों: मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश एवं नागालैंड और अब मणिपुर में भी लागू है। इसके अलावा यह
लेह-लद्दाख जैसे सीमावर्ती राज्यों के उन स्थानों पर भी लागू होता है जहाँ की सीमा
अंतर्राष्ट्रीय बॉर्डर से लगती है। जैसे कि लेह-लद्दाख आदि में।
इनर-लाइन परमिट को लेकर विवाद:
वर्ष 1971 के
बांग्लादेश मुक्ति-संग्राम के कारण बांग्लादेशी शरणार्थियों की समस्या गंभीर होती
चली गयी और पृथक बांग्लादेश के गठन के बाद भी पूर्वोत्तर भारत में बांग्लादेशी
नागरिकों के अवैध घुसपैठ की समस्या जारी रही। इसी पृष्ठभूमि में पूर्वोत्तर भारत
के सभी राज्यों में इनर-लाइन परमिट व्यवस्था के विस्तार की बात की जाने लगी। इसी
आलोक में एक लम्बे समय से नॉर्थ ईस्ट स्टूडेंट्स ऑर्गेनाइजेशन (NESO) के द्वारा यह
माँग की जा रही है कि पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में इनर-लाइन परमिट व्यवस्था लागू
की जाए।
इनर-लाइन परमिट व्यवस्था का विस्तार:
लोकसभा में नागरिकता
संशोधन विधेयक पेश करते हुए केंद्रीय गृहमंत्री ने कहा कि पूर्वोत्तर के लोगों की
सामाजिक, भाषाई और सांस्कृतिक पहचान के मद्देनजर लंबे समय से की जा रही माँग को
पूरा करने के लिए पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर को इनर
लाइन परमिट (आईएलपी) में शामिल किया जाएगा।
पिछले ही साल मणिपुर में इस आशय का एक विधेयक पारित किया गया था जिसमें
'गैर-मणिपुरी' और 'बाहरी' लोगों पर राज्य में प्रवेश के लिए कड़े नियमों की बात
कही गई थी।
अबतक
मिश्रित जनांकिकी के कारण और महत्वपूर्ण वाणिज्यिक शहर होने के नाते नागालैंड के दीमापुर ज़िले को इनर लाइन परमिट(ILP) की व्यवस्था
से बाहर रखा गया था, लेकिन दिसम्बर,2019 में नागालैंड के राज्यपाल ने दीमापुर ज़िले को इनर लाइन
परमिट व्यवस्था के अंतर्गत लाने के लिए अधिसूचना जारी की, ताकि दीमापुर को इस
अधिनियम के दायरे से बाहर रखा जा सके। इस व्यवस्था के विस्तारित होने के बाद
दीमापुर में रहने वाले प्रत्येक गैर-मूल निवासी, जिन्होंने 21 नवंबर, 1979 से पहले ज़िले में
प्रवेश किया है, के लिये
अनिवार्य होगा कि वह आदेश जारी होने के 90 दिनों के अंदर इनर-लाइन परमिट प्राप्त करे। इस
व्यवस्था के अंतर्गत निम्न श्रेणी के लोग अपवाद होंगे और उनके लिए परमिट की
आवश्यकता नहीं होगी:
a. 21 नवंबर,
1979 के बाद दीमापुर में प्रवेश करने वाले गैर-मूल निवासी, जिन्होंने इस
संबंध में उप अधीक्षक (Deputy Commissioner) से
प्रमाण-पत्र हासिल किया हो।
b. वे
गैर-मूल निवासी, जो अपनी यात्रा के दौरान दीमापुर से होकर गुज़र रहे हों तथा उनके
पास कोई वैध दस्तावेज़ हो।
नागरिकता संशोधन अधिनियम और इनर लाइन परमिट:
संविधान की छठीं
अनुसूची के अंतर्गत शामिल पूर्वोत्तर भारत के उन इलाकों को नागरिकता संशोधन विधेयक
में छूट दी गई है जो स्वायत्त ज़िला परिषद और स्वायत्त क्षेत्रीय परिषदों के दायरे
में आते हैं। छठीं अनूसूची में पूर्वोत्तर भारत के असम, मेघालय, त्रिपुरा और
मिज़ोरम राज्य हैं जहाँ स्वायत्त ज़िला परिषदें हैं। अनु. 244 के ज़रिए स्वायत्त
ज़िला परिषदों का गठन करके राज्य विधानसभाओं को संबंधित अधिकार प्रदान किए थे। छठीं
अनूसूची में इसके अलावा क्षेत्रीय परिषदों का भी उल्लेख किया गया है। इन सभी का
उद्देश्य स्थानीय आदिवासियों की सामाजिक, भाषाई और सांस्कृतिक पहचान बनाए रखना है।
इसका मतलब यह हुआ कि भारतीय नागरिकता हासिल करने के बावजूद भी अवैध आप्रवासी असम,
मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम में किसी तरह की ज़मीन या क़ारोबारी अधिकार हासिल
नहीं कर पायेंगे।
असम के अनुभव
असम में विरोध:
असम पर बांग्लादेशी
घुसपैठियों का दबाव पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों की तुलना में कहीं अधिक है, इसलिए इस
अधिनियम ने पूरे असम को झकझोर कर रख दिया है। असम का एक बड़ा हिस्सा इसका व्यापक
स्तर पर विरोध कर रहा है। इसका
कारण यह है कि:
1. असम-समझौते का उल्लंघन: यह अधिनियम असम-समझौते का उल्लंघन
है। इस अधिनियम के अंतर्गत बांग्लादेशी घुसपैठियों
के सन्दर्भ में कट-ऑफ तिथि को 25 मार्च,1971 से बढ़ाकर 31 दिसम्बर,2014 किया जा रहा
है। कट-ऑफ तिथि में यह परिवर्तन असम में बांग्लादेशी
घुसपैठियों के दबाव को बढ़ानेवाला साबित होगा।
2. बांग्लादेशी
घुसपैठियों के प्रश्न को डायल्यूट करना: यह अधिनियम बांग्लादेशी
घुसपैठियों के प्रश्न का संप्रदायीकरण करता है और इसके जरिये बांग्लादेशी गैर-मुस्लिम
घुसपैठियों के लिए भारतीय नागरिकता के मार्ग को प्रशस्त करते हुए बांग्लादेशी
घुसपैठियों के प्रश्न को बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठियों के प्रश्न तक सीमित किया
जा रहा है।
3. असमी लोग अपनी विशिष्ट
भाषायी-सांस्कृतिक पहचान को लेकर आशंकित: इस अधिनियम के कारण स्थानीय मूल निवासियों की
सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता पर उत्पन्न संकट के गहराने की सम्भावना है। इस रूप में यह अधिनियम नागरिकों के लिए राष्ट्रीय रजिस्टर(NRC) को भी कुछ हद तक अप्रासंगिक बना रहा है
क्योंकि यह अधिनियम बांग्लादेश से भारत आए उन गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों, जिनमें
गैर-हिन्दुओं की संख्या नहीं के बराबर है, के लिए भी भारतीय नागरिकता का प्रावधान
करता है जो एनआरसी के दायरे से बाहर रह गए।
गहराता भौगोलिक विभाजन:
ऐसा नहीं
कि इस अधिनियम पर पूरे असम की प्रतिक्रिया एक समान है। इस अधिनियम ने असम में बराक घाटी एवं ब्रह्मपुत्र घाटी के भौगोलिक विभाजन को
गहराते हुए उनके बीच के अंतराल को बढ़ाने का काम किया। जहाँ बराक घाटी
के लोग इस अधिनियम के समर्थन में खड़े हैं, तो ब्रह्मपुत्र घाटी के लोग इसके विरोध
में।
बराक घाटी की चिंताएँ:
इस
अधिनियम को ब्रह्मपुत्र घाटी एवं बराक घाटी में विभाजन
के अलग-अलग अनुभवों के आलोक में देखा जाना चाहिए। दरअसल बराक घाटी और
ब्रह्मपुत्र घाटी की आबादी के बीच भाषायी विभाजन की प्रक्रिया देश के विभाजन एवं आज़ादी
के बाद ही हो गयी थी, जब एक अंचल को छोड़कर सिलहट के अधिकांश बाँग्लाभाषी
अंचल पूर्वी पाकिस्तान के हिस्से बने और शेष रह गया अंचल भारत में बराक घाटी का
हिस्सा बना। इसके कारण बराक घाटी में बांग्लाभाषी
हिन्दू भाषाई अल्पसंख्यक में तब्दील होकर रह गए। इसीलिए बराक घाटी के बंगाली
हिन्दुओं को लगता है कि प्रस्तावित संशोधन संख्या-बल की दृष्टि से उनकी स्थिति को
मज़बूत करता हुआ उनके अलगाव को कम करने में सहायक साबित होगा और इससे उनके साथ
न्याय संभव हो पाएगा। समर्थकों का तर्क है कि विभाजन एवं विस्थापन की त्रासदी के
शिकार लोगों को मर्यादा के साथ जीने का हक मिलना चाहिए।
लेकिन, बाद में यहाँ की जनांकिकीय संरचना में बदलाव आया। वर्तमान में बराक
घाटी और धुबुरी जिले में हिंदू बांग्लादेशियों की तादाद सबसे ज्यादा
है। बराक घाटी के तीन जिले कछार, हैलाकांदी
और करीमगंज के पंद्रह विधानसभा क्षेत्रों में से बारह विधानसभा क्षेत्रों में
हिंदू बंगाली बहुसंख्यक हैं। इसके अलावा ऐसे कई विधानसभा क्षेत्र हैं जहाँ पहले से
ही हिंदू बंगाली मौजूद हैं। इन क्षेत्रों में हिंदू बांग्लादेशियों को बसाये जाने
की स्थिति में उनकी चुनावी भूमिका निर्णायक हो जायेगी और फिर उसे चुनौती दे पाना
किसी भी राजनीतिक दल के लिए संभव नहीं रह जाएगा। इसीलिए सत्तारूढ़ दल इन
बांग्लादेशी हिन्दुओं को बराक घाटी और निचले असम के कुछ खास विधानसभा क्षेत्रों
में बसाने की योजना बना चुकी है। ऐसा करते हुए यह सुनिश्चित किया जाएगा कि
प्रत्येक जिले में मतदाता के रूप में हिंदू बांग्लादेशी निर्णायक भूमिका निभा
सकें।
ब्रह्मपुत्र घाटी की चिन्ताएँ:
जहाँ बराक
घाटी अपनी बांग्ला पहचान को लेकर कहीं अधिक सजग और आग्रहशील है, वहीं ब्रह्मपुत्र घाटी अपनी असमी पहचान को लेकर कहीं अधिक सजग और
आग्रहशील। इसलिए ब्रह्मपुत्र घाटी के लोगों को यह लगता है कि यह
अधिनियम बांग्लादेशी गैर-मुस्लिमों के घुसपैठ की प्रक्रिया को तीव्र करेगा, जिससे
बांग्लादेश से घुसपैठ की समस्या और गम्भीर होगी। इनका कहना है कि:
1. अवैध आव्रजन में तेजी को
लेकर आशंकित: पहले से ही
1971 से असम में लगभग 20 लाख हिन्दू बांग्लादेशी गैर-कानूनी तरीके से रह रहे हैं। अब
इस अधिनियम के कारण बांग्लादेशी गैर-मुस्लिमों और विशेष रूप से बांग्लादेशी हिन्दुओं
को नागरिकता मिलने की प्रक्रिया तेज़ हो जायेगी। इसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव अवैध आव्रजन
में तेजी के रूप में सामने आयेगा, और फिर समय के साथ दिसम्बर,2014 की समय-सीमा अप्रासंगिक होती चली जायेगी। अबतक
के उनके अनुभव भी उनकी इस आशंका को बल प्रदान करते हैं। पहले काँग्रेस ने मुस्लिम
वोट-बैंक की राजनीति के कारण बांग्लादेश से अवैध घुसपैठ को प्रोत्साहन दिया और अब
यही काम भाजपा हिन्दू वोट-बैंक की राजनीति के जरिये कर रही है। इसीलिए उन्हें ऐसा
लगता है कि असमी के रूप में उनकी विशिष्ट भाषाई-सांस्कृतिक पहचान खतरे में है और
यह अधिनियम इस खतरे को बढ़ाने वाला साबित होगा, क्योंकि सन् 2015 की जनगणना के
अनुसार बांग्लादेश में हिन्दुओं की आबादी करीब-करीब 1.70 करोड़ है।
2. भाजपा के चुनावी घोषणा-पत्र के प्रतिकूल: असम
के लोगों की नाराज़गी इस बात से भी है कि असम-समझौते के प्रावधान से परिचित होने और
अपने चुनावी घोषणा-पत्र में इसके सम्मान के वादे के बावजूद वर्तमान सरकार ने नागरिकता-संशोधन
अधिनियम,2019 को अंतिम रूप दिया। ध्यातव्य है कि भाजपा ने असम विधानसभा चुनाव
के दौरान वहाँ के लोगों को यह आश्वस्त किया था
कि सत्ता में आने पर वह असम-समझौते,1985 की धारा 6 के
प्रावधानों को लागू करते हुए उनके संवैधानिक, सामाजिक, आर्थिक
और सांस्कृतिक अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करेगी, लेकिन
अब वह अपने वादे से मुकर रही है। इसीलिए असमी मूल के लोग अपने को ठगा एवं छला हुआ
महसूस कर रहे हैं, यद्यपि यह भी सच है कि भाजपा ने बांग्लादेशी हिन्दू घुसपैठियों से
यह वादा किया था कि सत्ता में आने के बाद वह उन्हें नागरिकता प्रदान करेगी; जबकि वास्तविकता
यह है कि इन दोनों माँगों को एक साथ पूरा करना संभव नहीं था।
3. बांग्लादेश में धार्मिक
उत्पीड़न अब उतना बड़ा मसला नहीं: सन् 2008 के बाद शेख हसीना के नेतृत्व के अंतर्गत बांग्लादेश में
धार्मिक असहिष्णुता और धार्मिक आधार पर शोषण एवं उत्पीड़न उतना बड़ा मसला नहीं रहा
है जितना बड़ा मसला पहले था।
यही कारण
है कि आव्रजन एवं नागरिकता को लेकर दोनों जगहों के लोगों ने भिन्न-भिन्न रुख
अपनाया है और असम आन्दोलन से जुड़े लोग इस बिल के प्रखर आलोचक रहे हैं।
असम: विभिन्न राजनीतिक
दलों का रुख:
जहाँ तक
इस अधिनियम के सन्दर्भ में राजनीतिक दलों के रुख का प्रश्न है, तो अधिनियम के पक्ष
में सत्तारूढ़ दल भाजपा का यह कहना है कि बराक घाटी में ऐसे बांग्लादेशी हिन्दुओं
की तादाद बमुश्किल 10-15 लाख होगी, जिन्हें इसके प्रावधानों के तहत् भारत की
नागरिकता मिल सकेगी। दरअसल, सत्तारूढ़ दल भाजपा हिंदू वोटबैंक
की पारम्परिक राजनीति के तहत् अवैध आप्रवासी हिंदुओं को भारत की नागरिकता देकर पूर्वोत्तर
भारत में अपनी राजनीतिक स्थिति को मज़बूत भी करना चाहती है, और देश भर के मुसलमानों
को नकारात्मक सन्देश देते हुए अपने हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण करना चाहती है।
लेकिन,
असम में उसकी गठबंधन सरकार की सहयोगी असम गण परिषद् इसके विरोध में है। उधर
ब्रह्मपुत्र घाटी में काँग्रेस और बदरुद्दीन अजमल की ऑल इंडिया यूनाइटेड
डेमोक्रेटिक फ्रंट(AIUDF) प्रस्तावित संशोधनों को देश के धर्मनिरपेक्ष
ताने-बाने के प्रतिकूल और अल्पसंख्यक मुसलमानों के लिए भेदभावकारी मान रहकर इसका
विरोध किया है। काँग्रेस इन्हें रिफ्यूजी का दर्ज़ा देने
पर तो सहमत है, पर इन्हें नागरिकता दिए जाने के प्रावधानों
के विरुद्ध है। आलम यह है कि इस अधिनियम को लेकर राजनीतिक दलों के भीतर भी बराक
घाटी और ब्रह्मपुत्र घाटी के भौगोलिक विभाजन को स्पष्टतः देखा जा सकता है। यह
विभाजन भाजपा में भी दिख रहा है और काँग्रेस में भी। इनका यह कहना है कि इसके
जरिये एनआरसी को निष्प्रभावी बनाने की कोशिश की जा रही है।
पूर्वोत्तर भारत का संदर्भ
चूँकि बांग्लादेश के
सीमावर्ती पूर्वोत्तर भारतीय राज्यों: असम, मेघालय, मणिपुर, मिज़ोरम, त्रिपुरा,
नगालैंड और अरुणाचल प्रदेश में बांग्लादेशी घुसपैठियों का दबाव सबसे ज्यादा है,
इसीलिए वहाँ पर भी इस विधेयक का ज़ोर-शोर से व्यापक स्तर पर विरोध हो रहा है
क्योंकि वहाँ के मूल निवासियों को अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक
पहचान खतरे में पड़ती दिखाई दे रही है। यह विरोध इस तथ्य के बावजूद हो रहा है कि
पूर्वोत्तर के उन जिलों को इस अधिनियम के दायरे से बाहर रखा गया है जिन्हें
स्वायत्त जिला घोषित किया गया है, या फिर जो छठी अनुसूची के दायरे में आते हैं और
जहाँ इनर लाइन परमिट व्यवस्था लागू है। इस क्षेत्र में आठ
प्रभावशाली छात्रों के समूह नॉर्थ-ईस्ट स्टूडेंट ऑर्गेनाइजेशन (NESO) ने पूर्वोत्तर
के सभी राज्यों में बड़े पैमाने पर विरोध-प्रदर्शन का नेतृत्व करते हुए सरकार पर
यह आरोप लगाया कि:
1.
एनआरसी को बाईपास करना: सरकार
इस विधेयक के बहाने एनआरसी लिस्ट से बाहर हुए अवैध हिंदुओं को वापस भारतीय
नागरिकता पाने में मदद करना चाहती है।
2.
स्थानीय लोगों की सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान को खतरा: पूर्वोत्तर भारत के इन राज्यों में बांग्लादेश
से मुसलमान और हिंदू, दोनों ही बड़ी संख्या में आकर बसे हैं, जिसके कारण इनकी
सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान को खतरा भी है। इनका कहना है कि इन लोगों को नागरिकता
मिलने से न केवल बांग्लाभाषियों की संख्या बढ़ेगी, वरन् बांग्लादेश से उनकी घुसपैठ
में भी तेजी आयेगी। फलतः इसके कारण पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों की विशिष्ट भाषिक
एवं सांस्कृतिक पहचान खतरे में पड़ जायेगी।
3.
बुनियादी सुविधाओं से लेकर मजदूरी एवं रोजगार तक बढ़ती हुई मुश्किलें: बांग्लादेशी घुसपैठियों का अवैध आव्रजन स्थानीय
लोगों की मुश्किलें बढ़ा रहा है। इसके कारण इन्हें बुनियादी सुविधाओं से लेकर
नौकरी तक पहुँच बनाने के लिए अवैध घुसपैठियों की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
आनेवाले समय में उनकी मुश्किलें और भी बढेंगी, और उनके लिए सरकार द्वारा प्रदत्त बुनियादी
सुविधाओं एवं रोजगारों की उपलब्धता भी प्रभावित होगी। समस्या सिर्फ इतनी नहीं है। समस्या
यह है कि अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों की मौजूदगी श्रम-बाज़ार में श्रमिकों की माँग
एवं आपूर्ति के संतुलन को बिगाड़ती हुए मजदूरी दर को प्रतिकूलतः प्रभावित कर रही है।
अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों का अपेक्षाकृत कम मजदूरी पर काम करने के लिए तैयार
होना मजदूरी को अपेक्षाकृत निम्न स्तर पर बनाये रखने में सहायक है जिसके कारण
स्थानीय लोगों की मुश्किलें बढ़ रही हैं और यह उनमें इन घुसपैठियों के प्रति गहरे
असंतोष को जन्म दे रहा है।
इस रूप में
पूर्वोत्तर राज्यों में इस अधिनियम का विरोध असल में मुसलमानों का विरोध नहीं,
वरन् अवैध विदेशी घुसपैठियों का विरोध है जिसके मूल में अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक
पहचान को सुरक्षित रखने के लिए जनांकिकीय संरचना में बदलावों को रोकने की चिंता के
साथ-साथ अपने आर्थिक हितों को संरक्षित करने की चिंता भी अन्तर्निहित है। इस विरोध
का इस या उस धर्म से कोई लेना-देना नहीं हैl
सरकार
द्वारा इन आशंकाओं को खारिज करना:
लेकिन, सरकार असम सहित पूर्वोत्तर भारत के राज्यों के लोगों के मन में
विद्यमान इन आशंकाओं को खारिज कर रही हैl उसका कहना है कि भारतीय नागरिकता मिलने की स्थिति
में अवैध आप्रवासी असम एवं अरुणाचल प्रदेश तक सीमित रहने की बजाय रोजगार और अन्य
अवसरों की तलाश में पूरे भारत में निकलेंगे। इससे पिछले (30-40) वर्षों से
पूर्वोत्तर राज्यों में इन शरणार्थियों के कारण बुनियादी सुविधाओं, सस्ती
मजदूरी-दर एवं रोजगार को लेकर स्थानीय लोगों को जिन परेशानियों का सामना करना पड़
रहा था, उनसे इन्हें छुटकारा मिल जाएगा। साथ ही, इससे आप्रवासियों का शोषण भी
रुकेगा और इनका जीवन अपेक्षाकृत आसान होगा।
पश्चिम बंगाल: बांग्लाभाषी
मुसलमानों का सन्दर्भ
असमी लोगों के लिए धार्मिक विभेद से परे सभी बांग्लाभाषी बांग्लादेशी
घुसपैठिये हैं और उनकी इस सोच के कारण वे बांग्लाभाषी, जो बांग्लादेशी नहीं हैं, उनके लिए भी जीने की
परिस्थितियाँ मुश्किल होती चली गयी। पश्चिम बंगाल में और इससे बाहर
रहने वाले बांग्लाभाषी समुदाय के द्वारा इस अधिनियम का विरोध निम्न कारणों से किया
जा रहा है:
1. बंगाली समुदाय में
सांप्रदायिक आधार पर विभाजन को प्रोत्साहन: इस अधिनियम में न केवल बरार घाटी और
ब्रह्मपुत्र घाटी के विभाजन को गहराने का काम किया है, वरन् बंगाली समुदाय को भी
सांप्रदायिक आधार पर बांगलाभाषी हिन्दुओं और बांगलाभाषी मुसलमानों में विभाजित करने
का काम किया है। इस विभाजन को पश्चिम बंगाल में भी प्रोत्साहित करने की कोशिश की
जा रही है, और उसके बाहर पूर्वोत्तर भारत के विभिन्न राज्यों के साथ-साथ शेष भारत
में भी। इसलिए बांग्लाभाषी समुदाय इस बात को लेकर आशंकित है कि इससे उनकी पृथक भाषिक
एवं सांस्कृतिक पहचान कमजोर पड़ेगी।
2.
असम समझौते को एक बार फिर से चर्चा
के केंद्र में लाना: इस अधिनियम ने लगभग पृष्ठभूमि में पहुँचा दिए गए असम समझौते को
एक बार फिर से चर्चा के केंद्र में ला दिया, और इसके कारण बांग्लाभाषी भारतीय
नागरिकों और विशेष रूप से बांग्लाभाषी मुसलमानों के हितों के प्रतिकूलतः प्रभावित
होने की संभावना है।
3.
बांग्लाभाषी भारतीय मुसलमानों की
परेशानियों को बढ़ानेवाला: यह अधिनियम कहीं-न-कहीं बांग्लाभाषी भारतीय
मुसलमानों की परेशानियों को बढ़ानेवाला साबित होगा क्योंकि बड़ी आसानी से उन पर भी
बांग्लादेशी घुसपैठिया होने का आरोप चस्पा किया जा सकता है। इसलिए आनेवाले दिनों में सभी बांग्लाभाषियों और
विशेष रूप से बांग्लाभाषी भारतीय मुसलमानों को बांग्लादेशी घुसपैठिया बताकर परेशान
किया जाएगा। उसके
बाद अपनी नागरिकता साबित करने की जिम्मेवारी उन पर होगी, जो संस्थागत पूर्वाग्रहों
के कारण वर्तमान परिदृश्य में आसान नहीं होगा। यही कारण है कि पश्चिम
बंगाल में भी इस अधिनियम का व्यापक स्तर पर विरोध हो रहा है।
4.
पश्चिम बंगाल में एनआरसी को लाए जाने
की आशंका:
पश्चिम बंगाल में इस अधिनियम के विरोध का एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि केंद्र
में सत्तारूढ़ दल भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व के साथ-साथ प्रांतीय नेतृत्व लगातार
इस बात का संकेत दे रहा है कि असम की तर्ज़ पर पश्चिम बंगाल में भी नागरिकों के लिए
राष्ट्रीय रजिस्टर(NRC) लाया जाएगा।
भारतीय मूल के तमिलों की अनदेखी
श्रीलंका
से आये भारतीय मूल के तमिलों (मलैहा तमिल या पहाड़ी
तमिल) के सन्दर्भ में यह जानना महत्वपूर्ण है कि उन्हें चाय-बागानों में श्रमिकों
की ज़रूरतों के मद्देनज़र इस वादे के साथ अंग्रेजों के द्वारा श्रीलंका ले जाया गया
कि वहाँ पर उनके साथ उसी प्रकार का व्यवहार किया जाएगा और वे सारे अधिकार उपलब्ध
होंगे जो श्रीलंकाई तमिलों को उपलब्ध हैं। लेकिन,
श्रीलंका के आजाद होते ही विधायी पहलों
के जरिये उन्हें उनके अधिकारों से वंचित किया गया और राज्य-विहीन बना दिया गया।
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें श्रीलंकाई तमिलों की समस्या उभरकर सामने आयी। इस प्रश्न पर जवाहर लाल नेहरु का यह
मानना था कि ‘जिन्होंने स्वैच्छिक रूप से भारतीय नागरिकता ग्रहण की है,
उनको छोड़कर शेष तमिल श्रीलंका की जिम्मेवारी हैं’, जबकि श्रीलंका का मानना था कि
श्रीलंकाई नागरिकता की कठोर शर्तों को पूरा करने वाले लोगों को छोड़कर शेष लोग भारत
की जिम्मेवारी हैं। लेकिन, लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गाँधी के
प्रधानमंत्रित्व-काल में भारत की नीति में परिवर्तन आया और तमिलनाडु के
स्थानीय नेतृत्व को विश्वास में लिए बिना भारत सरकार ने इस सैद्धांतिक रुख में बदलाव लाते हुए सन् 1964 और सन् 1974 में श्रीलंका के साथ दो समझौते किये। इन समझौतों के अंतर्गत:
1. नई दिल्ली
6 लाख भारतीय मूल के तमिलों को वापस लेने के प्रश्न पर रजामंदी जतायी, और
2. श्रीलंका
3.75 लाख लोगों को श्रीलंकाई नागरिकता प्रदान करने पर सहमत हुआ।
लेकिन, तमिलनाडु का स्थानीय नेतृत्व इस मसले पर कभी राजी नहीं हुआ। बाद में,
तमिलों के विरुद्ध जातीय हिंसा के विभिन्न चरणों में तमिल
शरणार्थियों की संख्या बढाती चली गयी, इस आशा के साथ कि उन्हें
भारत की नागरिकता मिल सकेगी और वे सामान्य जिन्दगी जी सकेंगे। वर्तमान में तमिलनाडु के विभिन्न कैम्पों में रह रहे ऐसे लोगों की संख्या
करीब 30 हज़ार है। इनमें से अधिकांश दलित हैं। ये सभी रिफ्यूजी नागरिकता अधिनियम,1955 की धारा 5 के
अंतर्गत भारतीय नागरिकता के लिए अर्हत हैं, लेकिन उनके
आवेदन को केंद्र सरकार के उस सर्कुलर के आलोक में ठुकरा दिया गया कि जिसमें
श्रीलंकाई रिफ्यूजियों को भारतीय नागरिकता के निर्रह (अयोग्य) ठहराया गया। इसीलिए दक्षिण भारतीय तमिलों का यह मानना है कि उनकी मूल भावनाओं के आलोक
में उपरोक्त निर्देश को वापस लिया जाए और भारतीय मूल के तमिलों को भी इस अधिनियम के
दायरे में लाया जाए। इसकी पुष्टि चकमा शरणार्थियों से सम्बंधित राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग(NHRC) बनाम् अरुणाचल राज्य मामले से भी होती है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह
स्पष्ट किया कि “जिन्हें अवैध अप्रवासी के रूप में रेखांकित किया जाता है,
उन्हें भी विधि के समान संरक्षण और अनु. 21 के तहत् प्रदत्त अधिकार
का लाभ मिलना चाहिए।”