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बेगूसराय-नामा भाग 4
कन्हैया कुमार के लिए
बेगूसराय:
बहुत कठिन है डगर
पनघट की!
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अगर
बेगूसराय देश के 543 लोकसभा सीटों में दस सर्वाधिक
चर्चित सीटों में तब्दील हो चुका है, तो इसका श्रेय जेएनयू छात्र-संघ के भूतपूर्व
अध्यक्ष और बेगूसराय से वाम-मोर्चा के संयुक्त उम्मीदवार
कन्हैया कुमार को जाता है। महागठबंधन द्वारा काँग्रेस की तमाम कोशिशों के बावजूद
राजद के द्वारा महागठबंधन के अंतर्गत वामपंथी दल भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी(CPI)
को स्थान देने और उसके उम्मीदवार कन्हैया कुमार को समर्थन प्रदान करने से इन्कार
ने बेगूसराय संसदीय क्षेत्र के चुनाव को रोचक बना दिया है और इसे उस मोड़ पर
पहुँचा दिया है जहाँ पर राजनीतिक विश्लेषकों के लिए चुनाव-परिणाम का अनुमान लगा
पाना मुश्किल हो गया है।
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कन्हैया कुमार महागठबंधन से बाहर:
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पिछले तीन वर्षों के दौरान कन्हैया
कुमार कश्मीर से कन्याकुमारी तक मोदी-विरोध के प्रतीक में तब्दील हो गये, और इसीलिए
ऐसा लगने लगा कि कन्हैया कुमार के बिना मोदी-विरोध की परिकल्पना छलावा है। इस बात
को काँग्रेस भी अच्छी तरह से जानती है और राजद भी, पर दोनों की अपनी-अपनी
मजबूरियाँ हैं। सबसे पहले राजद को देखें, तो पिछले तीन दशकों के दौरान बिहार में
राजद और लालू विभाजनकारी साम्प्रदायिक शक्तियों को चुनौती देने वाली आवाज़ रहे
हैं, और उन्होंने बहुत हद तक उन पर अंकुश भी लगाया है। लेकिन, फ़रवरी,2016
में जेएनयू कैम्पस में घटी घटना और उस घटना के प्रति मोदी
सरकार की प्रतिक्रिया ने कन्हैया कुमार को राष्ट्रीय क्षितिज पर उभारा। जब कन्हैया
कुमार ने सक्रिय राजनीति में आने का निर्णय लिया और इसके लिए वामपंथ के गढ़
बेगूसराय को चुना, तो इससे विरोधी खेमे में भी खलबली मच गयी। क़ायदे से तमाम
विपक्षी दलों को मोदी-विरोध में सशक्त एवं विश्वसनीय आवाज़ बन चुके कन्हैया कुमार
के पक्ष में खड़ा होना चाहिए था, पर सिविल सोसाइटी और मीडिया के उदारवादी खेमे की
ओर से तमाम दबावों के बावजूद राजद ने कन्हैया कुमार को समर्थन देने से इन्कार कर
दिया। अब प्रश्न यह उठता है कि राजद ने बेगूसराय सीट पर वामपंथ और कन्हैया कुमार
को समर्थन देने से इन्कार क्यों किया? इस इन्कार को निम्न परिप्रेक्ष्य में देखा
जाना चाहिए:
1. तेजस्वी के लिए ख़तरा:
राजद और लालू यादव तेजस्वी को सेफ़ रखकर चलना चाहते हैं; लेकिन कन्हैया की छवि,
उसकी महत्वाकांक्षा, व्यावहारिक राजनीति से उसकी क़रीबी और काँग्रेस के शीर्ष
नेतृत्व से उसकी निकटता निकट भविष्य में तेजस्वी यादव के लिए ख़तरा बन सकती है।
इसलिए भी कि कन्हैया कुमार प्रखर वक्ता हैं, वे राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय है,
उनकी छवि बेदाग़ है, पढ़े-लिखे हैं और भारतीय समाज के उदारवादी बुद्धिजीवियों के
बीच लोकप्रियता के मामले में अपनी पीढ़ी में उनकी कोई सानी है। वे हर दृष्टि से
तेजस्वी यादव पर भारी पड़ते हैं और पड़ेंगे।
2. राजद के लिए ख़तरा: पिछले
तीन दशकों के लालू यादव ने सामाजिक न्याय की अपनी राजनीति के बहाने वामपंथ को
हाशिए पर पहुँचाया, और आज आलम यह है कि वामपंथ के गढ़ बेगूसराय में सन् 1996
के बाद कोई वामपंथी सांसद नहीं चुना गया और यहाँ तक कि बेगूसराय जिले के सात
विधानसभा क्षेत्रों में कही से भी वामपंथी विधायक नहीं हैं। अब कन्हैया कुमार के
ज़रिए वामपंथ बेगूसराय में ही नहीं, पूरे बिहार में अपने पुनर्जीवन की संभावनाओं
को तलाशने में लगा हुआ है और कन्हैया कुमार ऐसा करने में सक्षम भी हैं क्योंकि
उनके पास वामपंथी शब्द-जालों से मुक्त भाषा है जिसके ज़रिए आसान शब्दों में वे
अपनी बातों को जनता तक पहुँचाने में सक्षम हैं और जनता उनकी उन बातों को समझने मे
सक्षम भी है।
3. काँग्रेस की मंशा को
लेकर राजद की अतिरिक्त सतर्कता: काँग्रेस और मोदी के खिलाफ वैचारिक
लड़ाई लड़ रहे बुद्धिजीवी कन्हैया को लेकर इसलिए गम्भीर है कि कन्हैया मोदी के
खिलाफ राष्ट्रीय चेहरा है औऱ इसके चेहरे के सहारे मोदी को मजबूती से जबाव दिया जा
सकता है। इसीलिए काँग्रेस को पता है कि कन्हैया लम्बी रेस का घोड़ा है और इसीलिए
वह उसके सहारे बिहार की राजनीति में खुद को फिर से स्थापित करने की कोशिश में है।
राजद काँग्रेस की इस मंशा को भी समझती है और इस बात को भी कि काँग्रेस के मज़बूत
होने का मतलब उसके सवर्ण वोटबैंक के साथ-साथ दलित एवं अल्पसंख्यक मुस्लिम वोटबैंक
की वापसी है, जो राजद की क़ीमत पर ही संभव हो सकेगा। काँग्रेस इस बात को भी जानती
है कि कन्हैया की जीत राष्ट्रीय स्तर पर उसकी छवि के उभार की प्रक्रिया को तेज़
करेगी और इसके परिणामस्वरूप कन्हैया के रूप में तेजस्वी यादव के समानान्तर
प्रान्तीय स्तर पर नेतृत्व का उभार संभव हो सकेगा। इसीलिए काँग्रेस की पूरी कोशिश
रही कि महागठबंधन में वाम-मोर्चा भी शामिल हो और कन्हैया कुमार महागठबंधन की ओर से
बेगूसराय संसदीय सीट से उम्मीदवार हों। पर, राजद काँग्रेस की इस मंशा को समझती थी।
वह इस बात को भी समझती है कि कन्हैया कुमार मोदी-विरोध के विश्वसनीय चेहरे हैं और
उनके बिना नरेन्द्र मोदी के विरोध में लड़ी जानेवाली किसी भी लड़ाई की विश्वसनीयता
संदिग्ध होगी, लेकिन उसकी समस्या यह है कि लालू यादव जेल में हैं और तेजस्वी यादव
अभी पूरी तरह से स्थापित नहीं हुए हैं। ऐसी स्थिति में कोई भी जोखिम लेना ख़तरे से
ख़ाली नहीं है। शायद लालू यादव जेल से बाहर होते, तो शायद यह रिस्क लिया जाता; पर
उनकी अनुपस्थिति में तो इसकी उम्मीद ही नहीं की जा सकती थी। यही कारण है कि
काँग्रेस और मोदी-विरोधी उदार बुद्धिजीवियों के तमाम दबावों के बावजूद राजद ने यह
सुनिश्चित किया कि कन्हैया कुमार बेगूसराय से महागठबंधन के उम्मीदवार न हों। और,
काँग्रेस इस मसले पर एक सीमा से अधिक दबाव बना पाने की स्थिति में नहीं थी। इसका
कारण एक तो यह था कि काँग्रेस बिहार में इतनी मज़बूत स्थिति में नहीं है कि वह
राजद पर एक सीमा से अधिक दबाव बना सके, और दूसरे, राजद काँग्रेस का सर्वाधिक
विश्वसनीय गठबंधन-सहयोगी है जिसके कारण वह एक सीमा से आगे बढ़कर अपने गठबंधन को
ख़तरे में नहीं डालना चाहती थी क्योंकि इससे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के
विरूद्ध उसकी लड़ाई कमजोर होती जिसके लिए वह तैयार नहीं थी।
4. राजद की राजनीतिक मजबूरियाँ और
सीटों की मारा-मारी: दरअसल राजद ऐसे गठबंधन सहयोगियों की तलाश में
थी जो अपने वोट-बैंक को महागठबंधन के उम्मीदवारों के पक्ष में ट्रांसफ़र करवा सके,
लेकिन सीपीआई इस कसौटी पर खड़ा नहीं उतरता है, क्योंकि:
a.
इसका प्रभाव कुछ संसदीय सीटों तक सीमित है, और
b.
जिस तरह रालोसपा का पूरे राज्य के कुशवाहाओं
पर, मुकेश साहनी का पूरे राज्य के मल्लाहों पर और जीतन राम माँझी का पूरे राज्य के
महादलित, मुसहरों पर अच्छा ख़ासा प्रभाव है, वैसा सीपीआई का कोई वोट-बैंक नहीं
दिखता है।
इतना ही
नहीं, राजद पर महागठबंधन में पहले से ही शामिल काँग्रेस, हम, रालोसपा और वीआईपी को
एडजस्ट करने का दबाव था। ऐसी स्थिति में गठबंधन सहयोगियों के बीच सीटों की
मारा-मारी के बीच उसने वाम-मोर्चे को तरजीह देने की बजाय अपेक्षाकृत अधिक जनसाधारण
वाले सीपीआई(एमएल) को समायोजित करने की कोशिश की और सीपीआई को छोड़ दिया।
5. कन्हैया का भूमिहार
होना:राजद अपनी भूमिहार-विरोधी छवि को बनाये रखना चाहती है, और
इसे ध्यान में रखते हुए भी उसने कन्हैया को टिकट देने से परहेज किया।
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कन्हैया की मुश्किलें:
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यह सच है कि मोमेंटम कन्हैया कुमार के पक्ष
हमें है, वह स्थानीय है, भूमिहार है, उसके पक्ष में कम्युनिस्ट पार्टी एकजुट है,
पिछले एक साल से वह क्षेत्र में सक्रिय है, बेगूसराय के युवाओं को उसने ऊर्जस्वित
कर रखा है, उसकी राष्ट्रीय पहचान एवं अपार लोकप्रियता भी बेगूसराय में उसके प्रति
आकर्षण को जन्म दे रही है, वह मोदी-विरोधी शक्तियों का प्रतीक है, उसे
राष्ट्रव्यापी समर्थन मिल रहा है और मीडिया भी उसके पक्ष में है जिसके कारण उसके
पक्ष में माहौल बनता हुआ दिख रहा है। पर, इतना सब कुछ भी कन्हैया कुमार को जिताने
के लिए काफ़ी नहीं है।कन्हैया की जीत में एक बड़ी बाधा उसकी देशद्रोही वाली वह छवि है जिसे
प्रोपगंडा के सहारे उनके विरोधियों ने निर्मित किया है और जिससे निजात पाना उसके
लिए आसान नहीं होने जा रहा है। मैं स्वयं ऐसे कई लोगों से मिला हूँ जो या तो
अराजनीतिक हैं या भाजपा-विरोधी हैं, पर जिनका मानना है कि कन्हैया देश-विरोधी
गतिविधियों में लिप्त था।
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कम्युनिस्ट पार्टी की नकारात्मक छवि:
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लोगों के एक समूह को कन्हैया से उतनी दिक्क्त
नहीं है जितनी उस कम्युनिस्ट पार्टी से, जिससे वह चुनाव लड़ने जा रहा है।
कम्युनिस्ट पार्टी से स्थानीय लोगों परेशानी है और इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह है कियहाँ सीपीआई एवं काँग्रेस के
कार्यकर्ताओं के बीच लम्बे समय तक खूनी संघर्ष चला है। इसीलिए कन्हैया के सामने वामपंथ की इस
नकारात्मक छवि की चुनौती भी है जिसे बदल पाना और इसके कारण उन लोगों के वोटों को
अपने लिए सुनिश्चित कर पाना आसान नहीं होने जा रहा है जो वामपंथ से घृणा करते हैं
और आज भी उसे माफ़ करने के लिए तैयार नहीं हैं।
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अस्तित्व के लिए संघर्षरत वामपंथ:
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बिहार की राजनीति में वामपंथ का गढ़
बेगूसराय बिहार के मास्को एवं लेनिनग्राड के रूप में जाना जाता रहा है, या यूँ कह
लें कि जाना जाता था, जाना जाता है नहीं। पिछले तीन दशकों के दौरान यह गढ़ ढ़हता
चला गया और आज यह लगभग ढ़ह चुका है। इसके अवशेष मात्र शेष रह गये हैं। इसके सवर्ण
वोटबैंक को यदि भाजपा ने हाईजैक कर लिया है, तो निम्नजातीय वोटबैंक को राजद ने।
शेष काम ग़ैर-वामपंथी दलों ने मुस्लिम उम्मीदवारों, पहले जद(यू) द्वारा मोनाजिर
हसन और अब राजद के द्वारा तनवीर हसन के माध्यम से कर दिया जिसने मुसलमानों के बीच
वामपंथी दलों के जनाधार को लगभग हाईजैक कर लिया। अब जब कन्हैया कुमार चुनाव-मैदान
में सामने हैं, उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती है वामपंथ के खोए हुए इस जनाधार को
वापस लौटाने की, क्योंकि इसे वापस पाए बिना उनके लिए जीत हासिल करना मुश्किल है।
अब इस वापस पाने के रास्ते में व्यावहारिक समस्या यह है कि एक संगठन के रूप में
वामपंथ जर्जर हो चुका है।
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वामपंथ की नकारात्मक छवि को दुरुस्त करने की चुनौती:
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इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा
सकता है कि 1990 के दशक तक आते-आते वामपंथ दुःस्वप्न
में तब्दील हो चुका था। यहाँ तक कि बेगूसराय की जनता ने वामपंथ से आजिज़ आकर
सूरजभान जैसे अपराधी को अपना सांसद चुना, और आज भी स्थानीय समाज का एक हिस्सा
वामपंथी गुंडई को समाप्त करने के लिए सूरजभान के प्रति कृतज्ञताबोध से भर उठता है।
वामपंथ के इस रूप को लोग अबतक भूल नहीं पाए हैं, और आलम यह है कि इस चक्कर में
लोगों ने दक्षिणपंथी ख़तरे को भी नज़रंदाज़ करने का काम किया है जो आज कहीं बड़ी
चुनौती में तब्दील हो चुका है। कल तक थाना और ब्लॉक की दलाली वामपंथियों के
ज़िम्मे थी, आज वे हाशिए पर जा चुके हैं और उनका स्थान भाजपाई ले चुके हैं। कभी भी
और कहीं भी चले जाएँ, प्रखण्ड-कार्यालय से लेकर ज़िला-कार्यालय तक यही स्थिति
दिखाई पड़ेगी। इसी प्रकार आज वामपंथी गुंडई का स्थान दक्षिणपंथी गुंडई ने ले लिया
है जिसका अखिल भारतीय स्वरूप है, जिसे सत्ता, शासन एवं प्रशासन का संरक्षण प्राप्त
है और इसीलिए यह कहीं अधिक ख़तरनाक है।
इतना ही नहीं, कहा यह भी जाता है कि
वामपंथ के दबदबे के कारण बेगूसराय का विकास भी बाधित हुआ। एक दौर में तेघरा बाजार
की कारोबारी पहचान थी और इसे उत्तर बिहार की सबसे बड़ी ग़ल्ला-मंडी के रूप में
देखा जाता था जहाँ करीब-करीब 20-22 बड़े ग़ल्ला
व्यापारी हुआ करते थे जो थौक-कारोबार करते थे, लेकिन अब ऐसे कारोबारियों की संख्या
सिमट कर तीन-चार रह गयी है। इसी प्रकार सुल्तानिया ब्रदर्स की हिन्दुस्तान लीवर
लिमिटेड की एजेंसी लम्बे समय तक तेघरा की कारोबारी पहचान रही, पर आज यह भी समाप्त
हो चुकी है। इसी प्रकार बेगूसराय बिहार का एकमात्र औद्योगिक ज़िला है, लेकिन
वामपंथ के प्रभाव में चलने वाली श्रमिक-गतिविधियों ने भी इसके आर्थिक विकास को
अवरूद्ध किया और इन कारणों से वामपंथी विकास-विरोधी पहचान बनी और उसे बेगूसराय के
विकास को अवरूद्ध करने वाला माना जाने लगा।
इस पृष्ठभूमि में कन्हैया के सामने
सबसे महत्वपूर्ण चुनौती वामपंथ को इस नकारात्मक छवि और विकास-विरोधी छवि से निजात
दिलाने की है, जो असंभव भले न हो, पर मुश्किल ज़रूर है। आवश्यकता इस बात की भी है
कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान जिस तरह बेगूसराय के विभिन्न हिस्सों में शिक्षा एवं
स्वास्थ्य माफ़ियाओं ने अपने पैर पसारे हैं और उनके हितों को साधने एवं संरक्षित
करने के लिए जिस तरह सार्वजनिक शिक्षा एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था को
व्यवस्थित तरीक़े से ध्वस्त किया गया है, उसकी पृष्ठभूमि में वामपंथ अपनी भूमिका
को पुनर्परिभाषित करे और सार्वजनिक शिक्षा एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था को
दुरुस्त करने के लिए सड़क पर उतरे। इससे समाज के उस हिस्से से कनेक्ट कर पाना उसके
लिए संभव हो सकेगा जो कृषक एवं ग्रामीण पृष्ठभूमि से आता है और किसानी की त्रासदी
का शिकार है। इससे बेगूसराय में वामपंथ की जड़ें मज़बूत भी की जा सकेंगी और उसे
प्रासंगिक भी बनाया जा सकेगा।
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गिरिराज की चुनौती:
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कन्हैयाकुमार की समस्या यह है कि कई बार वह
अपने प्रतिद्वंद्वियों को हल्के में ले लेता है, और अगर ये चीज़ें हुईं, तो उस पर
भारी पड़ेंगी। गिरिराज कट्टर हिन्दुत्व के ब्रांड एम्बेसडर हैं, और पिछले पाँच
वर्षों के दौरान बेगूसराय का भी ख़ूब रेडिकलाइजेशन हुआ है, इस तथ्य की अनदेखी नहीं
की जानी चाहिए। इसका प्रमाण है सन् 2017 में बेगूसराय
में साम्प्रदायिक तनाव का उभरकर सामने आना और अक्टूबर,2017 में बारो की घटनाएँ, जिसे हल्के में
नहीं लिया जाना चाहिए। इसीलिए सन् 2019 की चुनावी संभावनाओं का आकलन पिछले
लोकसभा-चुनाव के आधार पर नहीं किया जाना चाहिए। साथ ही, इस बात को ध्यान में रखा
जाना चाहिए कि गिरिराज की पूरी कोशिश हिन्दू वोट-बैंक के ध्रुवीकरण की होगी, और वे
ऐसा करने में सक्षम भी हैं। उनकी यह रणनीति राजद-प्रत्याशी तनवीर हसन के पक्ष में
भी होगी, क्योंकि वे भी चाहेंगे कि मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण हो और वह उन्हें
एकमुश्त मिले। पिछले लोकसभा-चुनाव के दौरान भी जब यह लगा कि तनवीर हसन भोला सिंह
को कड़ी टक्कर दे रहे हैं और संभव है कि वे जीत भी जाएँ, तो भूमिहारों ने उनकी हार
को सुनिश्चित करने के लिए भोला सिंह के पक्ष में जमकर वोटिंग की और अंतत: भोला
सिंह की जीत हुई। ऐसा इस बार भी हो सकता है, और ऐसी स्थिति में भूमिहार वोटों का
ध्रुवीकरण कन्हैया कुमार या गिरिराज में से उस प्रत्याशी के पक्ष में होगा जिसका
पूरा भारी होता दिखेगा और जिसके जीतने की संभावना ज्यादा होगी। और, यही कन्हैया
कुमार के लिए रिस्क फ़ैक्टर भी साबित हो सकता है। यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में
रखा जाना चाहिए कि पिछले चुनाव में उपेन्द्र कुशवाहा भाजपा के साथ थे और इसका
फ़ायदा भोला सिंह को मिला था क्योंकि इस क्षेत्र में करीब 1.25 लाख कुशवाहा
मतदाता थे, लेकिन इस बार कुशवाहा राजद के साथ हैं। लेकिन, इसकी भरपाई बहुत हद तक
जद(यू) के द्वारा होगी जो इस बार भाजपा के साथ है। इस क्षेत्र में करीब 1.4 लाख कुर्सी
मतदाता हैं और इसके अलावा जद(यू) का अपना भी वोट-बैंक है।
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तनवीर की चुनौती:
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कन्हैया कुमार के सामने राजद के तनवीर हसन की
भी चुनौती है जो माय-समीकरण के भरोसे ही नहीं हैं। इस बार राजद ने जीतन राम माँझी,
उपेन्द्र कुशवाहा और मुकेश साहनी को अपने साथ जोड़ते हुए अपने जातिगत समीकरण को
दुरुस्त एवं मज़बूत करने की कोशिश की है। तनवीर हसन को इसका भी लाभ मिलेगा।
सामान्यतः मुस्लिम वोट तनवीर के पक्ष में जाता, पर इस बार स्थिति थोड़ी अलग है। इस
बार कन्हैया कुमार भी अपनी मोदी-विरोधी छवि के कारण मुस्लिम वोट के मज़बूत दावेदार
के रूप में मौजूद हैं और अगर मुसलमानों को यह लगा कि तनवीर हसन चुनावी रेस में
पिछड़ रहे हैं, तो संभव है कि गिरिराज की हार को सुनिश्चित करने के लिए मुसलमानों
का रूझान कन्हैया की तरफ़ शिफ़्ट करे; यद्यपि इसकी संभावना अपेक्षाकृत कम है। इन
सबके बावजूद यह निश्चित है कि इस बार मुस्लिम और यादव वोट एकमुश्त राजद उम्मीदवार
को उस तरह नहीं मिलने जा रहे हैं जिस तरह पिछले चुनाव में मिले थे। इसका एक हिस्सा
कन्हैया कुमार के पक्ष में जायेगा।
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चुनौतियों से वाक़िफ़कन्हैया:
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स्पष्ट है कि कन्हैया की जीत तबतक सुनिश्चित
नहीं होगी जबतक वह गिरिराज सिंह और तनवीर हसन की चुनौती से निपटने के लिए अकाट्य
रणनीति नहीं तैयार करता है और उसे अमल में नहीं लाता है। इतना ही नहीं, उन्हें इस
बात को भी ध्यान रखना होगा कि पिछले बार वामपंथी उम्मीदवार राजेन्द्र प्रसाद सिंह
को जो 1.92 लाख वोट मिले,
उनमें जद(यू) के समर्थन की भी भूमिका रही, जो इस बार उनके लिए उपलब्ध नहीं होगी।
हाँ, यह ज़रूर है कि वामपंथ पिछली बार की तरह बँटा हुआ नहीं है। वह कन्हैया के
पक्ष में एकजुट है और वह जानता है कि अगर उसे अपने अस्तित्व को बचाये रखना है, तो
कन्हैया की जीत को सुनिश्चित करना होगा।
ऐसा नहीं है कि कन्हैया कुमार को इन चुनौतियों
और इन ख़तरों का आभास नहीं है। उसकी ख़ासियत इस बात में है कि वह व्यावहारिक
राजनीतिज्ञ है। अगर ऐसा नहीं होता, तो वह मधेपुरा संसदीय क्षेत्र से पप्पू यादव को
समर्थन देने की घोषणा नहीं करता। दरअसल उसकी नज़र बेगूसराय संसदीय क्षेत्र में
मौजूद यादव मतदाताओं पर है जिनकी संख्याकरीब-करीब सवा दो लाख है। वह जानता है कि
लालू यादव के माय-समीकरण के भेद पाना उसके लिए आसान नहीं है, लेकिन वह युवाओं के
बीच अपनी लोकप्रियता को भुनाकर युवा यादव मतदाताओं के एक हिस्से को अपने पक्ष में
कर सकता है और पप्पू यादव के माध्यम से उसके प्रभाव का इस्तेमाल कर भी कुछ यादव
वोटों को हासिल कर सकता है। इन्हीं चीज़ों को ध्यान में रखते हुए कम्युनिस्ट
पार्टी और स्वयं कन्हैया ने महागठबंधन और लालू यादव या तेजस्वी यादव की सीधी
आलोचना से अबतक परहेज किया है। वह यह संदेश देना चाहता है कि भले ही बेगूसराय में
उसे महागठबंधन का साथ न मिला हो, पर बिहार में वह महागठबंधन के साथ है और बेगूसराय
में वह वही काम कर रहा है जो काम बिहार में महागठबंधन कर रहा है। दरअसल इस काम में
साम्प्रदायिक-फासीवादी ताक़तों के के साथ-साथ मोदी के विरोध में उसकी मुखरता भी
सहायक है, जबकि इस मसले पर उसके प्रतिद्वंद्वी तनवीर हसन हल्के पड़ते हैं। वे बहुत
मुखर नहीं रहे हैं। यह भी संभव है कि कन्हैया कुमार कुछ लोकप्रिय मुस्लिम चेहरों
को चुनाव-प्रचार में उतार कर मुस्लिम मतदाताओं को प्रभावित करने की कोशिश कर सकते
हैं, उसी तरह जिस तरह दलित मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए उन्होंने गुजरात से
जिग्नेश मवानी को उतारा है।