अभिव्यक्ति की आजादी और राजद्रोह क़ानून
सन् 2016 में जेएनयू विवाद ने राजद्रोह से
सम्बंधित भारतीय दंड संहिता(IPC),1860 की धारा 124A को बहस के विषय में तब्दील कर
दिया। इसकी पृष्ठभूमि में यह प्रश्न सहज ही उठा कि आज़ाद भारत में ऐसे कानूनों की
क्या उपयोगिता रह गयी है, विशेषकर तब जब सत्तारूढ़ रहते हुए सभी राजनीतिक दलों ने
इस क़ानून का इस्तेमाल अक्सर अपने विरोध में उठाने वाली आवाज़ को दबाने के लिए किया
है? इतना ही नहीं, आज़ादी के सत्तर वर्षों बाद भी इस औपनिवेशिक विरासत को सहेज कर
रखे जाने की आवश्यकता क्यों महसूस की जा रही है? इस प्रश्न पर विचार से पहले
आवश्यकता राजद्रोह और देशद्रोह के फर्क को समझने की है?https://www.blogger.com/blogger.g?blogID=6733583930155689758#editor/target=post;postID=1172652132591789908;onPublishedMenu=allposts;onClosedMenu=allposts;postNum=4;src=postname
राजद्रोह और
देशद्रोह का फर्क:
भारतीय दंड संहिता में ‘सेडिशन’ शब्द का प्रयोग किया
गया है। ‘सेडिशन’
का अर्थ होता है राजद्रोह। इसे स्थापित
व्यवस्था के प्रति विद्रोह के रूप में देखा जा सकता है। वर्तमान
परिप्रेक्ष्य में इसका अर्थ है सरकार के प्रति
विद्रोह। इसे देशद्रोह के रूप में देखा
जाना उचित नहीं है। लेकिन, हाल में ‘सेडिशन’ शब्द का इस्तेमाल धड़ल्ले
से देशद्रोह के लिए किया जा रहा है जो इस बात का संकेत देता है कि सरकार और देश एक
दूसरे के पर्याय हैं। दरअसल यह उस भ्रामक सोच का
परिणाम है जो सरकार और देश के फर्क को समझ पाने की स्थिति में नहीं है और इसीलिए
दोनों को एक ही मान लेती है, जबकि वास्तविकता यह है कि दोनों एक नहीं हैं। सरकारें
देशहित में काम कर भी सकती हैं और नहीं भी। अगर सरकारें देशहित में काम कर रही
हैं, तो उसका विरोध देश के विरोध का रूप ले सकता है; लेकिन यदि किसी को लगता है कि
सरकारें देशहित में काम नहीं कर रही हैं, तो उसका विरोध देशद्रोह नहीं, देशहित में
होगा।
अक्सर ऐसा देखा गया है कि किसी भी देश की सरकार
और लोकतान्त्रिक व्यवस्था के अंतर्गत सत्तारूढ़ दल खुद को देश से भी ऊपर मान लेते
है और राष्ट्रहित की रहनुमाई का दावा करते
हुए अपने विरोध को राष्ट्र के विरोध से जोड़कर देखते हुए राष्ट्रहित के प्रतिकूल
मानते हैं। इस प्रवृत्ति को भारत में भी सहज ही देखा जा सकता है। भारत में भी जो दल सत्ता में रहा है, उसे यह लगता रहा है कि
उसका विरोध प्रकारांतर से विकास एवं
राष्ट्रहित का विरोध है, जबकि वास्तविकता ऐसी नहीं है। शायद यही कारण
है कि राष्ट्रपिता गाँधी ने इस धारा के
बारे में टिप्पणी करते हुए कहा था: “धारा 124A,
जिसके अंतर्गत मुझ पर राजद्रोह का आरोप लगा है, राजनीतिक वर्गों के बीच नागरिकों
की स्वतंत्रता को दबाने के लिए रचे गए आईपीसी के कानूनों का राजकुमार है।” यहाँ पर इस बात को भी ध्यान में रखने की ज़रुरत
है कि ब्रिटेन ने 2010 में ही इस कानून को समाप्त कर दिया है। यहाँ तक कि
ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, मेरिका और कनाडा जैसे ब्रिटिश उपनिवेशों से भी ये कानून
हटाये जा चुके हैं, पर औपनिवेशिक विरासत के रूप में इसे अबतक भारत में न केवल
सहेजकर रखा गया है, वरन् इसका निरंतर इस्तेमाल अब भी जारी है, जबकि ऐसे कानून किसी
भी सभ्य समाज के लिए कलंक हैं।
राजद्रोह
क़ानून की पृष्ठभूमि:
‘सेडिशन’ अर्थात् राजद्रोह का यह प्रावधान मूल
रूप से भारतीय दंड संहिता(IPC),1860 का हिस्सा नहीं था।
1870 में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध बढ़ते
असंतोष की पृष्ठभूमि में राष्ट्रवाद, राष्ट्रवादी आन्दोलन और राष्ट्रवादियों के
दमन के लिए इसे इसके अंतर्गत शामिल किया गया। भारतीय दंड संहिता(IPC) धारा
124A के प्रावधानों के तहत्:
1.
अगर कोई व्याक्ति मौखिक या लिखित रूप से शब्दों के जरिये या अन्य तरीके से
प्रत्यक्षतः या परोक्षतः विधि द्वारा स्थापित सरकार के विरुद्ध घृणा, अवमानना या
उत्तेजना पैदा करने की कोशिश करता है या असंतोष को भड़काने की कोशिश
करता है, तो इसे राजद्रोह(Sedition) माना जाएगा।
2.
इस धारा के अनुसार राजद्रोह को संज्ञेय(cognizable), गैर-जमानती(non-bailable) और असंयोजनीय (non-compoundable) अपराध है।
3.
इसके लिए अधिकतम जुर्माने के साथ या जुर्माने के बिना न्यूनतम तीन
साल से लेकर आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान किया गया है।
स्पष्ट है कि इस क़ानून को औपनिवेशिक शासन की
ज़रूरतों को पूरा करने के लिए लाया गया था।
संविधान सभा
की बहस और राजद्रोह कानून:
संविधान के मूल प्रारूप में अनु. 19(2) में जिन
आधारों पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर युक्तियुक्त निर्बन्धन आरोपित करने का
प्रावधान किया गया था, उनमें एक आधार ‘राजद्रोह भी था; लेकिन बाद में दिसम्बर,1948 में संविधान सभा की बहस के दौरान अनेक सदस्यों
द्वारा आपत्ति दर्ज करवाए जाने के बाद इस
शब्द को बाहर कर दिया गया। कारण यह कि संविधान सभा के सदस्यों ने
औपनिवेशिक शासन के दौरान इस कानून के दुरूपयोग को देखा और झेला था। वे जानते थे कि
इस कानून का दुरूपयोग सत्तारूढ़ दल के द्वारा अपने विरोध में उठने वाली आवाज़ को
दबाने के लिए एवं अपने राजनीतिक विरोधियों को फँसाने के लिए किया जा सकता है, इसीलिए
उनका निर्णय इसके विरुद्ध रहा।
आज़ाद भारत
में इसका औचित्य:
अब यह प्रश्न सहज ही उठता है कि स्वतंत्र भारत
की सरकारों ने भारतीय दंड संहिता के इस प्रावधान को क्यों बने रहने दिया? क्यों
नहीं इसे बदला गया? इसकी निरंतरता को निम्न
परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है:
1.
उस समय राष्ट्रीय एकीकरण की प्रक्रिया अपने आरंभिक दौर में
थी। आज़ादी के बाद देशी रियासतों को भारत में मिलाया तो जा चुका था, पर एकीकरण की
इस प्रक्रिया को ठोस आधार अभी नहीं दिया जा सका था और आशंका इस बात की थी कि कहीं विघटनकारी शक्तियों के सिर उठाने के कारण
राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता खतरे में न पड़ जाय। इसी आलोक में राज्य को विशेष शक्तियाँ
प्रदान करने की आवश्यकता महसूस की गयी ताकि ज़रुरत पड़ने पर ऐसी शक्तियों को कुचला
जा सके।
2.
तत्कालीन नेतृत्व राष्ट्रीय
आन्दोलन की जिस पृष्ठभूमि से आया था और जिन मूल्यों, नैतिकताओं, सिद्धांतों एवं
आदर्शों से वह परिचालित था, वह यह मानकर चल रहा था
कि यह कानून अप्रयुक्त बना रहेगा। उसमें उन्हें इस कानून के दुरूपयोग
की आशंका नहीं थी। यह बात अलग है कि आज़ाद भारत की सरकारों ने उनके इस अनुमान को
गलत साबित कर दिया।
सुप्रीम
कोर्ट में इसके विरुद्ध याचिका:
कॉमन कॉज नामक एक गैरसरकारी संगठन की ओर से राजद्रोह
कानून के दुरूपयोग के विरुद्ध दाखिल जनहित याचिका में कहा गया था कि:
a.
राजद्रोह एक गंभीर अपराध है
और आजकल सरकारें डर
पैदा करने और असहमति को दबाने के लिए मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, छात्रनेताओं, लेखकों,
अभिनेताओं, कवियों, कार्टूनिस्टों
वगैरह को अपना निशाना बना रही
हैं।
b.
याचिका ने राष्ट्रीय अपराध
रिकार्ड ब्यूरो(NCRB) के हवाले से बताया था कि 2014 में राजद्रोह के छियालीस मामले दाखिल हुए, जिनमें अट्ठावन व्यक्तियों
की गिरफ्तारी की गई, मगर सजा सिर्फ एक मामले में हुई।
दरअसल इस क़ानून का इसलिए भी विरोध किया जा रहा
कि:
1. भारतीय दंड संहिता,1860 में पहले से ही धारा 121, धारा 121A धारा 122 मौजूद है
जो सरकार के विरुद्ध युद्ध छेड़ने या सरकार के विरुद्ध युद्ध में सहायता करने को
दंडनीय अपराध घोषित करते हैं। इसीलिए अलग से इस क़ानून की ज़रुरत नहीं है।
2. यह क़ानून अनु. 19(1a) के द्वारा प्रदत्त मूलाधिकार
वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के विरोध में है।
3. सरकार के द्वारा जिस तरह धड़ल्ले से इस क़ानून
का इस्तेमाल लोकतान्त्रिक विरोध की आवाज़ दबाने के लिए किया जा रहा है,
वह लोकतंत्र को ही खतरे में डाल देगा क्योंकि यह कानून सरकार की आलोचना और सरकार का
विरोध अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अहम् पहलू है और यह
क़ानून सरकार के विरोध को देशद्रोह के रूप में देखता है। और, संभव है कि यह क़ानून न भी देखे, पर सरकार इसे
देशद्रोह के रूप में ही देखती है और यह क़ानून
सरकार को वह हथियार उपलब्ध करवाता है जिसकी बदौलत अपने विरोध में उठने वाली हर उस
आवाज़ को दबाने की कोशिश करती है जो सरकार को परेशानियों में डाल सकती
हैं।
सुप्रीम कोर्ट
का निर्णय:
सितम्बर,2016 में जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस
उदय यू. ललित की दो सदस्यीय खंडपीठ ने इस धारा को संवैधानिक घोषित करते हुए एक बार
फिर यह साफ कर दिया है कि अगर कोई व्यक्ति सरकार की कड़ी आलोचना भी करता है, तो वह न
मानहानि के दायरे में आता है और न ही राजद्रोह के। इस विषय में उसे राजद्रोह
कानून की दोबारा व्याख्या करने की कोई जरूरत नहीं है। सुप्रीम कोर्ट का मानना था कि इस मसले पर उसके
द्वारा केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य वाद,1962 में पहले ही निर्णय दिया जा चुका
है।
सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने यह भी स्पष्ट
किया कि:
1.
कोई भी व्यक्ति जब तक किसी विधिसम्मत
सरकार के खिलाफ लोगों को हिंसा के लिए नहीं भड़काता या इरादतन लोक-अव्यवस्था नहीं
फैलाता, तब तक वह राजद्रोह का दोषी
नहीं हो सकता।
2.
यह सिर्फ अवधारणा
(Perception) के आधार पर नहीं होना चाहिए, वरन इसके ठोस साक्ष्य होने चाहिए।
3.
अदालत ने कहा कि जज हों या
पुलिस महानिदेशक, संविधान पीठ के फैसले की अनदेखी
नहीं कर सकते। पुलिस अधिकारी हों या दंडाधिकारी, वे संविधान
पीठ के फैसले को मानने को बाध्य हैं।
फैसले का
विश्लेषण:
सुप्रीम कोर्ट ने भले ही स्थिति स्पष्ट कर दी
हो, पर व्यवहार में सरकार और प्रशासन से लेकर निचली अदालतों तक ने सुप्रीम कोर्ट
के इस निर्णय की उपेक्षा की है। इसीलिए इस निर्णय के बावजूद भी पिछले पाँच दशकों
के दौरान राजद्रोह कानून का धड़ल्ले से मनमाने तरीके से दुरूपयोग होता रहा है।
पिछले कुछ दिनों से जिस तरह का माहौल देश में
बना हुआ है, उसमें सर्वोच्च अदालत की ताजा
टिप्पणी की प्रासंगिकता समझी जा सकती है। यह
माना जाता है कि कोई राजनेता किसी के प्रति प्रतिशोध भाव रख भी सकता है और सत्ता
में आने के बाद अपने विरोधियों के विरुद्ध किसी कानून को हथियार की तरह इस्तेमाल
कर भी सकता है, लेकिन पुलिस और जज उससे निरपेक्ष रहेंगे। पीठ ने यह स्पष्ट
किया कि यह न्यायिक निर्णय मामला विशेष और उससे जुड़े हुए तथ्यों पर निर्भर करता
है, इसीलिए आपराधिक मामलों में विभिन्न तथ्यों के आलोक में कोई एक आदेश पारित नहीं
किया जा सका है। आपराधिक मामलों में सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता है।
इसीलिए मामलों का पंजीकरण प्रत्येक मामले के तथ्यों पर निर्भर करना चाहिए, लेकिन
इस सन्दर्भ में केदारनाथ सिंह वाद में दिए गए निर्देशों को ध्यान में रखा जाना
चाहिए।
केदारनाथ
सिंह बनाम बिहार राज्य वाद,1962:
बिहार के बेगुसराय जिले के केदार नाथ सिंह ने
राजद्रोह से सम्बंधित धारा 124A को अभिव्यक्ति की
आज़ादी के विरुद्ध मानते हुए इसकी संवैधानिक वैधता को चुनौती दी थी। इस मामले में पाँच
सदस्यीय संविधान पीठ ने राजद्रोह कानून भारतीय
दंड संहिता की धारा 124 (ए) (राजद्रोह कानून) की संवैधानिक वैधता को यह कहते हुए स्वीकार किया था कि:
1.
इसका उद्देश्य विधि द्वारा स्थापित सरकार को पंगु होने से रोकना
है क्योंकि राज्य की स्थिरता के लिए विधि द्वारा स्थापित सरकार की निरंतरता को
सुनिश्चित करना आवश्यक है।
2.
लेकिन, अपने निर्णय में
सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि केवल हिंसा या
लोक व्यवस्था को भंग करने के लिए उत्प्रेरित करना ही राजद्रोह का आधार
हो सकता है।
3.
इस निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे भाषणों या लेखन के बीच साफ़ अंतर किया जो
लोगों को हिंसा के लिए उकसाते हैं या सार्वजानिक रूप से अव्यवस्था उत्पन्न करते
हैं तथा जो सरकार और उसकी नीतियों के प्रति विरोध प्रदर्शित करते हैं। किसी भी नागरिक को यह अधिकार है कि वह सरकार के बारे में
मनचाहे तरीके से आलोचना या टिप्पणी कर सकता है।
आगे चलकर बलवंत सिंह एवं
अन्य बनाम् पंजाब राज्य वाद,1995 में सर्वोच्च अदालत ने खालिस्तान-समर्थक और
भारत-विरोधी नारे लगाने के कारण देशद्रोह के आरोप से बरी करते हुए कहा कि इसमें
देशद्रोह जैसा कुछ भी नहीं है। अपने निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि
महज़ देश-विरोधी
नारे मात्र लगाने से किसी पर राजद्रोह का मामला दर्ज नहीं किया जा सकता है। राजद्रोह का आरोप तब तक नहीं लगेगा, जबतक
यह प्रमाणित नहीं हो जाता है कि उसकी यह गतिविधि राज्य के विरूद्ध हिंसा की ओर न
ले जाय। और हिंसा की यह बात सिर्फ़ परसेप्शन न हो, वरन् उसका ठोस आधार हो। सुप्रीम कोर्ट ने यहाँ तक कहा है
कि हिंसा की वकालत करना भी देशद्रोह नहीं है, लेकिन हिंसा के लिए भड़काना देशद्रोह
है।