रोहिंग्या-समस्या
रोहिंग्या-समस्या: प्रमुख बिंदु
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1.
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रोहिंग्या-समस्या
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सामान्य परिचय
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2.
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पार्ट वन
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ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
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3.
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पार्ट थ्री
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म्यांमार
सरकार का रूख
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4.
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पार्ट फोर:
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व्यापक
सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक एवं कूटनीतिक परिप्रेक्ष्य
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5.
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पार्ट फाइव
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भारत,
बांग्लादेश एवं चीन का विशेष सन्दर्भ
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6.
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पार्ट सिक्स
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अंतर्राष्ट्रीय
समुदाय का रूख
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रोहिंग्या-समस्या क्या है?
रोहिंग्या वे मुसलमान हैं जो अंग्रेज़ी
शासन के दौरान बंगाल के चटगाँव क्षेत्र से म्यांमार के अराकान क्षेत्र में जाकर बस
गए। म्यांमार में इनकी आबादी करीब 8-10 लाख है, लेकिन इन्हें बांग्लादेश से आए
अवैध प्रवासी माना जाता है। कई पीढ़ियों से वहाँ रहने के बावजूद उन्हें अब भी इस
बौद्ध-प्रधान देश में भेदभाव और अत्याचार झेलने पड़ते हैं। यही कारण है कि
समय-समय पर जब इनके साथ दमन-उत्पीड़न की प्रक्रिया तेज़ होती है, तो ये इससे बचने के
लिए किसी भी तरह बांग्लादेश, मलेशिया या इंडोनेशिया जैसे मुस्लिम-बहुल देश पहुँचना
चाहते हैं। विशेष रूप से वर्ष
2012
से यह प्रक्रिया तेज होती चली गयी जिसके परिणामस्वरूप अबतक अपनी जान
बचने के लिए लगभग आठ लाख रोहिंग्या मुसलमान भारत सहित दक्षिण और दक्षिण-पूर्व
एशियाई देशों में पहुँच चुके हैं, जहाँ इन्हें दर-ब-दर भटकना पड़ रहा है और
बुनियादी न्यूनतम सुविधाओं के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। इनमें भी इनका रूझान
मुख्य रूप से बांग्लादेश की ओर है।
हाल के घटनाक्रम:
25 अगस्त को अराकान रोहिंग्या सैल्वेशन आर्मी (ARSA) ने
म्यांमार के रखाइन प्रांत में 30 पुलिस चौकियों को निशाना
बनाया था जिसमें लगभग दर्ज़न भर पुलिस एवं सैन्य-अधिकारियों सहित सौ से अधिक
सुरक्षाकर्मियों, विद्रोहियों एवं नागरिकों की मौत हुई थी। इस हमले की जिम्मेवारी
अराकान रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी(ARSA) ने ली। सरकार ने भी उसे ही
जिम्मेवार माना है, लेकिन ह्यूमन राइट्स वाच के अनुसार सरकार इस सन्दर्भ में अबतक
पुख्ता प्रमाण दे पाने में असमर्थ रही है। इस हमले के बाद म्यांमार
सरकार ने आतंक-निरोधी क़ानून के सब-सेक्शन 5-6 के तहत
अराकान रोहिंग्या सैल्वेशन आर्मी (ARSA) को आतंकवादी संगठन घोषित करते हुए 'क्लियरेंस ऑपरेशन' चलाया, जिसके परिणामस्वरूप
रोहिंग्या मुसलमानों के विस्थापन की प्रक्रिया तेज़ होती चली गयी। इस बार संसद की अनुमति से
सुरक्षा बलों को आक्रामक कार्रवाई के लिए असीमित शक्तियाँ प्रदान की गयीं और सेना
के आग्रह पर समूचे मॉंगडाव जिले को ऑपरेशन एरिया घोषित किया गया, ताकि इस क्षेत्र
में निर्णायक कार्रवाई के लिए सेना को पर्याप्त शक्तियाँ प्रदान की जा सकें। इससे पूर्व,
अक्टूबर,2016 से ही राज्य के द्वारा रोहिंग्या उग्रवादियों पर प्रभावी अंकुश के
बहाने चरणबद्ध तरीके से रखाइन प्रदेश के सैन्यीकरण की प्रक्रिया तेज की जा रही है। तब से अबतक इस
क्षेत्र में 30 नयी सुरक्षा चौकियाँ स्थापित करने के अलावा क्लीयरेंस ऑपरेशन के
प्रभावी संचालन के नाम पर सेना की तैनाती लगातार बढाई जा रही है।
समस्या यह है कि स्थानीय मूल निवासी बौद्धों के
साथ मिलकर सुरक्षा-बलों के द्वारा सभी रोहिंग्याओं को सामूहिक रूप से उग्रवादी
समूह के रूप में देखा जा रहा है और उनके विरुद्ध स्कॉर्च्ड अर्थ पालिसी (Scotched
Earth Policy) अपनायी जा रही है। इसके तहत् सेना जिस भी क्षेत्र से गुजरती है,
अपने विरोधियों के लिए परेशानियाँ खड़ी करने के लिए उस क्षेत्र के संसाधनों को नष्ट
करती चलती है। यही कारण है कि सेना के इस रवैये के कारण रोहिंग्याओं के
जान-माल का भारी नुकसान हो रहा है और उन्हें अपनी जान बचाने के लिए विस्थापन का
शिकार होकर या तो अस्थाई रूप से बने कैम्पों में शरण लेनी पड़ रही है, या फिर पड़ोसी
देशों में, जहाँ उन्हें प्रतिकूल एवं अमानवीय परिस्थितियों में जीते हुए बुनियादी
न्यूनतम सुविधाओं के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। समस्या यह है कि
सरकार ने इस क्षेत्र में कोर संघर्ष जोन (Core Conflict Zone) से केवल फँसे हुए
गैर-मुसलमानों को निकाला है और उग्रवादी गतिविधियों में संलिप्त रोहिंग्याओं एवं
उग्रवादी गतिविधियों से दूर-दूर तक सम्बन्ध नहीं रखने वाले रोहिंग्याओं के बीच
फर्क करने की कोशिश करने की बजाय उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया। यह संकट में फँसे रोहिंग्याओं के साथ राज्य के विभेदकारी व्यवहार को दर्शाता
है। ‘ह्यूमन राइट्स वाच’ की ताजा रिपोर्ट
बताती है कि पिछले दिनों रखाइन प्रांत के मॉन्गडॉ और रथेडांग शहर में वर्दीधारी
सुरक्षा बलों ने ऐसा तांडव मचाया कि करीब चार लाख और रोहिंग्या को बांग्लादेश में
शरण लेने पर बाध्य होना पड़ा। सैटेलाइट तस्वीरें इस बात का संकेत देती हैं कि हाल
के दिनों में 214 गाँवों के 90 प्रतिशत
से अधिक घर जलाकर खाक कर दिए गए। इस आगजनी और हिंसा में सुरक्षा बलों की भूमिका
स्पष्ट है। सरकारी आँकड़े भी तब से लेकर अबतक 2,600 रोहिंग्या-घरों
को जलाये जाने और एक हज़ार से अधिक रोहिंग्याओं की मौत की बात स्वीकारते हैं।
अन्तर्राष्ट्रीय शरणार्थी संगठन(IOM) के अनुसार सितम्बर,2017 के अंततक संगठन के
अंततक म्यांमार के रखाइन प्रांत में 25 अगस्त को भड़की हिसा के बाद
पलायन कर बांग्लादेश पहुँचे रोहिंग्या शरणार्थियों की संख्या 4.8 लाख तक पहुँच गई है और इस तरह बांग्लादेश में मौजूद
रोहिंग्या शरणार्थियों की कुल संख्या सात लाख के ऊपर हो गई है। इस क्षेत्र के
उपद्रव-ग्रस्त होने के कारण रोहिंग्याओं के साथ-साथ हिन्दुओं और करीब 30,000 मूल निवासी रखाइन बौद्ध भी हिंसा के कारण विस्थापित हुए
हैं। अगर विध्वंस और मौत के इस आँकड़े को देखें,
तो हाल के सन्दर्भ में म्यांमार के इतिहास में यह हिंसा की सबसे भयावह तस्वीर है।
पार्ट वन: रोहिंग्या-समस्या से
अलगाववाद की ओर
(ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य)
रोहिंग्याओं के उद्भव को लेकर विवाद:
कुछ लोगों का मानना है कि ईसा की
आठवीं सदी में जो अरब मुसलमान इस क्षेत्र में आकर बसने वाले मुसलमानों को रहमा
(अरबी शब्द, अर्थ दया) नाम दिया गया और यही रहमा लोग बाद में स्थानीय प्रभाव के
कारण रोहिंग्या कहलाये। किन्तु, अन्य का मानना है कि अरब मुसलमान अराकान के
मध्यवर्ती क्षेत्रों में बसे हुए हैं, जबकि अफ़ग़ानिस्तान के रूहा क्षेत्र से आने
वाली रोहिंग्या मुसलमानों की अधिकांश आबादी बांग्लादेश के चटगांव डिविजन से मिली
अराकान के सीमावर्ती क्षेत्र मायो में बसी हुई है। लेकिन, बर्मी इतिहासकार 1950 के दशक से पहले ‘रोहिंग्या’ शब्द के प्रयोग की सम्भावना से इन्कार करते
हैं। उनकी दृष्टि में यह शब्द उन बंगाली मुसलमानों के लिए प्रयोग में लाया जाता है
जो अपना घर बार छोड़कर अराकान क्षेत्र में आकर बस गये। इसी आधार पर म्यांमार की
सरकार रोहिंग्याओं को म्यांमार का नागरिक मानने और उन्हें एक नागरिक के रूप में
मूलभूत सुविधायें एवं अधिकार उपलब्ध करने से इन्कार करती है। किन्तु, यह दावा सही
नहीं है। 18वीं शताब्दी में रोहिंग्या शब्द के प्रयोग के ठोस प्रमाण मौजूद है।
अराकान में बंगाली मुसलमानों के बसने के पहले प्रमाण पंद्रहवीं शताब्दी के चौथे
दशक से मिलते हैं। स्पष्ट है कि रोहिंग्या मूल रूप से दक्षिण एशियाई मूल के लोग
हैं जो अराकान साम्राज्य में जाकर बस गये, जिसे आज रखाइन प्रान्त के रूप में जाना
जाता है।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रोंहिग्या-समस्या:
अठारहवीं सदी के अंत में बर्मी शासक
के द्वारा अराकान पर कब्ज़े ने इन्हें बंगाल में शरण लेने के लिए के लिए विवश किया।
1790 में अंग्रेजों ने अराकान रिफ्यूजी एवं स्थानीय रखाईन निवासियों के बीच लगभग
सौ वर्षों से चले आ रहे संघर्ष के समाधान हेतु बर्मी शासक पर दबाव बनाया। 1824-26
के दौरान पहले आंग्ल-बर्मा युद्ध के पश्चात् बर्मा के तटीय क्षेत्र, जो आज रखाइन
प्रान्त के रूप में जाना जाता है, को ब्रिटिश भारत में मिला लिया गया और 1885-86
के तीसरे आंग्ल-बर्मा युद्ध के बाद पूरे बर्मा को। 1911 की जनगणना में भारतीय मूल
के नृजातीय समुदाय के रूप में रोहिंग्या को भारतीय आबादी के रूप में शामिल कर लिया
गया और 1921 की जनगणना में इन्हें अराकानियों के रूप में चिन्हित किया गया।
औपनिवेशिक विरासत:
म्यांमार में मुस्लिम-विरोधी भावना की ज़ड़ें उपनिवेशवादी नीतियों
में मौजूद हैं। ऐसा माना जाता है कि अंग्रेजों के समय में औपनिवेशिक जड़ें ज़माने और
औपनिवेशिक हितों को साधने के लिए पूर्वी बंगाल (भारत) से बड़ी संख्या में मुस्लिम
मज़दूरों को लाकर मुख्य रूप से इसकी सीमा से सटे म्यांमार के अराकान क्षेत्र, जिसे
अब रखाइन प्रान्त के नाम से जाना जाता है, में बसाया गया और यहाँ के रबड़ और चाय बागानों में श्रमिकों के
रूप में काम पर लगाया गया। इसीलिए इन लोगों को म्यांमार के मूल निवासियों ने
उपनिवेशवाद के प्रतीक के रूप में देखा और इसकी पृष्ठभूमि में इनका विरोध
उपनिवेशवाद के विरोध में तब्दील हो गया। अंग्रेजों के द्वारा बसाये गए इन लोगों के
प्रति स्थानीय विरोध का लम्बा इतिहास रहा है। 1930 में जहाजों में
भारतीयों की बहाली के ख़िलाफ़
यहाँ दंगे भी हुए थे जिसमें यह माँग की गयी थी कि भारतीयों को वापस भेजा
जाए। इन भारतीयों के ख़िलाफ़ 1938 में भी दंगे हुए थे जिसका
संबंध एक भारतीय मुस्लिम के द्वारा लिखी गयी किताब से था। कहा जाता है कि इस किताब में बौद्ध धर्म को
अपमानित किया गया था।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान रोहिंग्या-बौद्ध प्रतिद्वंद्विता:
1937 में बर्मा भारत से अलग हुआ और
1942 में बर्मा इंडिपेंडेंस आर्मी के सहयोग से जापान ने बर्मा पर अधिकार कायम किया।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश-जापानी टकराव की पृष्ठभूमि में अराकान
क्षेत्र में मुसलमानों और बौद्धों के बीच के सांप्रदायिक तनाव ने हिंसक रूप लेते
हुए बर्मा को गृहयुद्ध की ओर ले जाने का काम किया। 1942 में जापानी सेना
के अराकान में प्रवेश के साथ अंग्रेजों ने जवाबी हमला बोला, जिसमें बौद्ध मुख्य
रूप से जापानियों के साथ और रोहिंग्या अंग्रेजों के पीछे लामबंद हो गए। अंग्रेजों
ने जापानियों को मात देने के लिए छापामार युद्ध की रणनीति को अपनाया और ‘वी’ फोर्स के नाम से मशहूर अपनी गोरिल्ला फौज में
रोहिंग्या मुसलमानों की भर्ती की। अंततः 1945 में अंग्रेजों ने आंग सान के नेतृत्व
वाले बर्मी राष्ट्रवादियों और रोहिंग्या लड़ाकों की सहायता से जापानी अधिपत्य से
बर्मा को मुक्ति दिलाई। अराकान क्षेत्र के अंग्रेज़ी नियंत्रण में आने के साथ
अंग्रेजों के द्वारा रोहिंग्याओं को पुरस्कृत करते हुए स्थानीय सरकार के प्रमुख
पदों पर उनकी तैनाती की गई, लेकिन अंग्रेजों के द्वारा अराकान क्षेत्र को
स्वायत्तता दिए जाने से सम्बंधित वादे को पूरा नहीं किये जाने के कारण रोहिंग्या
लड़ाके खुद को छला हुआ महसूस कर रहे थे।
रोहिंग्या अलगावाद के बीज:
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें
रोहिंग्याओं ने मुस्लिम-बहुल उत्तरी अराकान को म्यांमार से अलग करने के लिए जुलाई,1946 में नॉर्थ
अराकान मुस्लिम लीग की स्थापना की
और इसके जरिये इन्होंने अपने लिए पृथक इस्लामी देश के लक्ष्य को हासिल करना चाहा।
भारत-विभाजन को लेकर जारी रक्तपात के दौर में रोहिंग्याओं ने भी इस क्षेत्र से
बौद्धों को खदेड़ने की असफल कोशिश की और इनमें से कुछ ने खुद को पाकिस्तान का
हिस्सा बनाने के लिए भी अभियान चलाया। 1948 में बर्मा की आजादी की पृष्ठभूमि में
रोहिंग्याओं और बर्मी राष्ट्रवादियों का मतभेद चरम पर पहुँच गया। जब रोहिंग्याओं
के लिए अंग्रेजों का समर्थन संभव नहीं रह गया, तो बर्मी राष्ट्रवादियों, जिनमें से
अधिकांश बौद्ध धर्म को मानने वाले थे, ने यह कहते हुए यह कहते हुए अल्पसंख्यक
रोहिंग्या मुसलमानों पर हमला करना शुरू किया कि ये ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से
सर्वाधिक लाभान्वित हुए हैं और इन्होंने अंग्रेजों की मदद की है।
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें वर्ष 1948 में स्वतंत्रता के बाद पूर्वी बर्मा में करेन नृजाति के लोगों ने
सैन्य-विद्रोह का झंडा बुलंद किया, तो पहाड़ी सीमावर्ती क्षेत्रों में हथियारबंद ‘मुजाहिदीन’
के रूप में खुद को संगठित करते हुए कुछ
रोहिंग्या मुसलमानों ने अराकान को एक मुस्लिम देश बनाने के लिए सशस्त्र संघर्ष
आरंभ किया। बाद में इन हथियारबंद मुजाहिदीनों ने 1948 में
उत्तरी अराकान पर प्रभावी नियंत्रण भी हासिल कर लिया, लेकिन तत्कालीन बर्मा सरकार
ने 1950 के दशक की शुरुआत में हुए इस विद्रोह को कुचल दिया। फिर
भी, 1960 के दशक की शुरुआत तक छिटपुट मुजाहिदीन हमले होते
रहे।
1960’s में रोहिंग्या-समस्या और म्यांमार का सैन्य-तंत्र:
1960 के चुनाव में यू नू के दल की
निर्णायक जीत हुई, लेकिन राज्य-धर्म के रूप में बौद्ध धर्म को प्रोत्साहन और
अलगाववाद के प्रति उनके सहिष्णु रवैये ने सेना को नाराज़ किया। अंततः मार्च,1962
में जनरल ने विन ने तख्ता-पलट के बाद संघीय व्यवस्था का अंत करते हुए राष्ट्रीयकरण
की दिशा में पहल की और बर्मा में एकदलीय व्यवस्था की नींव डाली। इस सैन्य-जुंटा ने
रोहिंग्या मुसलमानों के विरुद्ध कड़ा रूख अपनाया। अंततः जनरल नी विंग की सरकार ने
रोहिंग्या मुसलमानों के विरुद्ध व्यापक स्तर पर सैन्य कार्यवाही की जिसके कारण कई
लाख मुसलमानों ने तत्कालीन भारत (वर्तमान बांग्लादेश), पकिस्तान और मलेशिया में
शरण ली। सैन्य जुंटा ने ब्रिटिश औपनिवेशिक शक्तियों के द्वारा बर्मी मूल के लोगों
की कीमत पर प्रवासियों और अल्पसंख्यक मुसलमानों के सशक्तीकरण को प्राथमिकता दिए
जाने की प्रतिक्रिया में बर्मी मूल के लोगो की नृजातीय श्रेष्ठता(Ethnic Chauvinism) और आर्थिक स्वतंत्रता (Economic Autarky) को तरजीह दी।
1970’s में जोर पकड़ता रोहिंग्या-अलगाववाद:
1970 के बाद
रोहिंग्याओं के बीच एक बार फिर से अलगाववादी समूह उभरने लगे और उन्होंने म्यांमार
के भीतर इस्लामिक देश के लक्ष्य को हवा देना शुरू किया, लेकिन 1977 में सैन्य
जुंटा ने ऑपरेशन नागामिन या ऑपरेशन ड्रैगन किंग के ज़रिये अल्पसंख्यक रोहिंग्याओं
के नृजातीय सफाए का अभियान चलाया, जिसके परिणामस्वरूप सैन्य-उत्पीड़न के शिकार 2
लाख से अधिक रोहिंग्याओं को पड़ोसी देशों में शरण लेनी पड़ी। 1978 में संयुक्त
राष्ट्र के तत्वावधान में बंगलादेश के बर्मा के साथ हुए समझौते के तहत् अधिकांश
रोहिंग्या शरणार्थी बर्मा वापस लौटे। 1988 में अवमूल्यन के बाद होनेवाले दंगे को नियंत्रित करने
के लिए मार्शल लॉ लगाया गया और 1990 में आंग सान सू की के नेतृत्व में नेशनल लीग
फॉर डेमोक्रेसी की शानदार जीत की सैन्य-तंत्र के द्वारा अनदेखी की गयी। इस
दौरान होनेवाली हिंसा में सेना के हाथों दमन-उत्पीड़न, बलात्कार एवं हत्या ने ढ़ाई लाख से अधिक रोहिंग्याओं को देश
छोड़ने के लिए विवश किया। लेकिन, 1992-97
के दौरान बढ़ते हुए अंतर्राष्ट्रीय दबाव की पृष्ठभूमि में म्यांमार की बिगड़ती
अंतर्राष्ट्रीय छवि को दुरुस्त करने के लिए की जानेवाली पहलों के तहत् 2.3 लाख
रोहिंग्याओं की म्यांमार-वापसी हुई।
रोहिंग्या अलगाववाद के संस्थागत ढाँचे का निर्माण:
बर्मा की स्वतंत्रता के ठीक बाद अराकान क्षेत्र
में मुस्लिम मुजाहिदीन का एक समूह उभरा जिसने स्वायत्त इस्लामिक क्षेत्र और समान
अधिकार की माँग की। भले ही इन असंतुष्ट समूहों को दबा दिया गया, लेकिन आनेवाले दशकों
में इसने कई सशस्त्र विद्रोही समूहों के उभार को संभव बनाया। 1980 के दशक में रोहिंग्या सॉलिडरिटी
आर्गेनाईजेशन(RSO) और 2015 में सऊदी अरब में प्रशिक्षित पाकिस्तानी नागरिक अतुल्लाह अबू
अम्मार जुनूनी के द्वारा गठित हरकत-अल यकीन(HaY),
जिसका पुनर्नामकरण अराकानी
रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी(ARSA) के रूप में किया गया, प्रमुख है।
इस संगठन को प्रवासी रोहिंग्याओं का समर्थन है और इसके द्वारा स्थानीय स्तर पर
प्रशिक्षण के जरिये रोहिंग्या लड़ाकों को तैयार किया जाता है और उनके जरिये यह लड़ाई
आगे बढाई जा रही है। यह संगठन अक्टूबर,2016 में सरकारी प्रतिष्ठानों पर हमले से
चर्चा में आया। यह एक छोटा संगठन है जो मादक पदार्थों की तस्करी एवं प्रशिक्षण के
जरिये संसाधन जुटता है और जिसे कुछ रोहिंग्या प्रवासियों के द्वारा भी संसाधन
उपलब्ध करवाये जाते हैं।
रोहिंग्या-अलगाववाद और बाह्य कारक:
ऐसा माना जा रहा है कि
रोहिंग्या अलगाववादियों को पाकिस्तान और सऊदी अरब से हर तरीके की मदद मिल रही है।
यहाँ तक कि इन सब घटनाक्रमों के पीछे बांग्लादेश का भी हाथ बतलाया जा रहा है। ऐसी
आशंका व्यक्त की जा रही है कि रोहिंग्या अलगाववादियों के तार इस्लामिक स्टेट्स,
लश्कर-ए-तैयबा, अल-कायदा और यहाँ तक कि
पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस(ISI) तक से जुड़े हुए हैं।
पार्ट थ्री : रोहिंग्या समस्या:
म्यांमार सरकार का रूख
रोहिंग्या मसले पर सू की का रूख:
1982 के बाद से अबतक म्यामार की सभी
सरकारों ने रोहिंग्या मुसलमानों के लिए म्यांमारी नागरिकता की संभावनाओं को लगातार
नकारा है। म्यांमार जब लोकतंत्रीकरण के रास्ते पर आगे बढ़ा और आंग सान सू की के
नेतृत्व में नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी(NLD) के म्यांमार की लोकतान्त्रिक प्रक्रिया
में शामिल होने की सम्भावना सृजित हुई, तो ऐसा लगा कि शायद आंग सान सू की के
नेतृत्व में NLD की सरकार के गठन के बाद रोहिंग्याओं का दमन-उत्पीड़न रुके और उनके
लिए नागरिकता सहित उनके नागरिक अधिकारों को सुनिश्चित किया जा सके। लम्बे समय तक
हिरासत में रहने वाली सू की ने दशकों तक बर्मा में लोकतंत्र बहाली के लिए सैनिक
शासन के विरुद्ध लंबा संघर्ष किया और उन्हें दुनिया में मानवाधिकार की रक्षा के
लिए होने वाले संघर्ष के अगुआ के रूप में याद किया जाता है। लेकिन,
चुनाव-प्रक्रिया के दौरान ही इस सम्भावना को झटका लगा, जब वोट-बैंक की राजनीति के कारण
आंग सान सू की ने बहुसंख्यक
बौद्धों की नाराजगी के डर से रोहिंग्या मुसलमानों एवं उनसे जुड़े
हुए मसलों से दूरी बनाते हुए इस मसले पर चुप्पी साधना बेहतर समझा। यह
स्थिति आज भी देखी जा सकती है। बढ़ते
अंतर्राष्ट्रीय दबाव के बावजूद रोहिंग्या मसले पर स्टेट काउंसलर आंग सान सू की
अपने रूख पर पुनर्विचार के लिए तैयार होती नहीं दिख रही हैं। स्पष्ट है कि रोहिंग्या
मसले पर सू की के नेतृत्व वाली लोकतांत्रिक सरकार के रूख ने अंतर्राष्ट्रीय जगत को
निराश ही किया है।
जब बढ़ते हुए अंतर्राष्ट्रीय दबाव ने चौतरफा आलोचनाओं से घिरी सू की को
अपनी चुप्पी तोड़ने के लिए विवश किया, तो उन्होंने 70 साल से जारी
अस्थिरता एवं आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई को समाप्त करने की आवश्यकता पर बल देते हुए
कहा कि उन्हें रोहिंग्याओं के साथ होने वाली हिंसा एवं उनके दमन-उत्पीड़न का दुःख
है। अपने संबोधन में दमन एवं उत्पीड़न के कारण रोहिंग्याओं के देश से विस्थापन और
रोहिंग्या बस्तियों में आगजनी और नरसंहार के कारण लगभग सवा चार लाख रोहिंग्याओं के
पलायन की बात को स्वीकार करते हुए भी सू की ने सेना की भूमिका और मानवाधिकारों के
उल्लंघन की स्पष्ट शब्दों में निंदा से परहेज किया। इस घटनाक्रम पर दुख जताते हुए उन्होंने
रोहिंग्याओं से बातचीत के संकेत दिए और कहा कि उनका देश जाँच एवं सत्यापन-प्रक्रिया के ज़रिये
किसी भी समय शरणार्थियों को वापस बुलाने के लिए तैयार है।
उन्होंने यह भी कहा कि रोहिंग्या समुदाय के लोगों ने पुलिस वालों और
बेगुनाहों पर हमले किए हैं, इसके बावजूद म्यांमार सुरक्षा बलों के अत्याचार की
शिकायतों की जाँच के लिए तैयार है। लेकिन, म्यांमार सरकार ने रखाइन प्रदेश पर कोफ़ी
अन्नान की अध्यक्षता वाली सलाहकारी समिति और म्यांमार के उपराष्ट्रपति यू मिंट
श्वे की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय जाँच आयोग का हवाला देते हुए रोहिंग्याओं के
हालिया दमन-उत्पीड़न की स्वतंत्र, निष्पक्ष एवं विश्वसनीय जाँच हेतु एक स्वतंत्र
आयोग के गठन की अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की माँग ठुकरा दी। उन्होंने वैश्विक समुदाय
से समर्थन की अपील करते हुए कहा कि आतंकवादियों के हितों को बढ़ावा देने वाली
फर्जी खबरों से तनाव को बल मिल रहा है।
ऐसा लग रहा है कि या तो सू की वोट बैंक की राजनीति और
बहुसंख्यकवाद के जाल में उलझ चुकी हैं, या फिर उन्हें ऐसा लग रहा
है कि रोहिंग्या मसले पर चुप्पी तोड़ना म्यांमार में सेना की स्थिति को मज़बूत करने
में सहायक हो सकता है और इससे म्यांमार के लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया बाधित हो
सकती है। अब प्रश्न यह उठता है कि सू की की इस आशंका के क्या कारण हैं? बर्मा में सेना ने लोकतंत्र की पुनर्बहाली की दिशा
में पहल करते हुए सैन्य-प्रभुत्व को सुनिश्चित करने की हर संभव कोशिश की। इसके
मद्देनज़र 2008 में लागू नए संविधान के तहत् गृह, रक्षा और सीमा मामलों से जुड़े अहम
मंत्रालयों पर सैन्य-नियंत्रण को सुनिश्चित
किया गया। वर्तमान में बर्मा की सेना के कमांडर-इन-चीफ़ सीनियर जनरल मिन ऑन्ग ह्लांग
इन जिम्मेदारियों को सँभालते हैं। साथ ही, सुरक्षा बलों पर सैन्य-नियंत्रण को
सुनिश्चित करते हुए यह प्रावधान किया है कि आंतरिक
संकट की स्थिति में निर्णायक अधिकार पुलिस की बजाय सेना के जिम्मे होंगे।
इसके अतिरिक्त, संसद
में 25% सीटें सेना के लिए आरक्षित करते हुए भी यह सुनिश्चित करने
का प्रयास किया गया कि संसद के भीतर भी सेना की प्रभावी उपस्थिति बनी रहे। यही वे
शर्तें हैं जिसके साथ सू की और NLD को म्यांमार की सत्ता में भागीदारी मिली।
इसीलिए जब 4 सितंबर को सेना ने रखाइन को मिलिट्री का ऑपरेशन एरिया
घोषित किया, तो आंग सान सू की के पास दो विकल्प थे: या तो वे इस मसले पर चुप्पी
साधें, या फिर सेना के साथ टकराव मोल लें। उन्होंने न केवल पहला विकल्प चुना, वरन्
एक कदम आगे बढ़ाते हुए रखाइन में किसी तरह की नस्ली हिंसा की सम्भावनाओं को ख़ारिज
किया। स्पष्ट है कि रोहिंग्या संकट के मसले पर सू की की सरकार सेना एवं नेशनल
डिफेंस एंड सिक्योरिटी काउंसिल के निर्णयों से बँधी हुई है, लेकिन, इतना जरूर है
कि उनके इस रूख के कारण उनकी अंतर्राष्ट्रीय छवि को ज़बर्दस्त झटका लगा है।
एमनेस्टी इंटरनेशनल ने सेना के कथित अत्याचारों की निंदा न
करने के लिए सू की की आलोचना करते हुए कहा कि सू की और उनकी सरकार ने रखाइन प्रांत
में रोहिंग्या समुदाय के ख़िलाफ़ जारी हिंसा पर आँखें मूँद रखी है। ‘अंतरराष्ट्रीय
समुदाय की जाँच से नहीं डरने’ से सम्बंधित सू की के दावे पर प्रतिक्रिया व्यक्त
करते हुए एमनेस्टी ने कहा कि अगर म्यांमार के पास छिपाने के लिए कुछ नहीं है, तो उसे संयुक्त राष्ट्र के
जाँच-कर्ताओं को रखाइन प्रांत समेत देश में आने की अनुमति तत्काल देनी चाहिए।
सेना का कठोर रूख:
इस संकट के प्रति म्यांमारी सेना के
रूख पर विचार करें, तो सेना-प्रमुख की नज़रों में वर्तमान संकट द्वितीय विश्वयुद्ध
के समय से प्रारंभ उस कार्य की तार्किक परिणति है जो अबतक अधूरा था उस समय बंगाली
मुसलमानों ने रखाइन प्रदेश के मूल लोगों पर हमला किया था, उनकी हत्या की थी और
उन्हें अपने ही घर से बाहर जाने के लिए बाध्य किया था। सेना रोहिंग्या विद्रोहियों को चरमपंथी बंगाली
आतंकवादी बतलाती हुई राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा मानती है और उसका मानना है कि
उन्हें किसी तीसरे देश में बसाया जाना चाहिए। उसने यह स्पष्ट किया है कि वह
आतंकवादियों से जुड़े लोगों को वापस नहीं आने देगी। जुलाई,2012 में भी राष्ट्रपति
थीन शीन ने UNCHR को सूचित किया कि सरकार अपनी नृजातीय राष्ट्रीयता की जिम्मेवारी
लेगी, लेकिन यह संभव नहीं है कि अवैध रूप से सीमापार करने वाले रोहिंग्याओं को
मान्यता प्रदान की जाय जो हमसे भिन्न राष्ट्रीयताओं से आते हैं। समस्या का मूल यही
है और इसी के कारण इस आशंका को बल मिलता है कि कहीं शरणार्थियों की वापसी के लिए
जाँच एवं सत्यापन की यह प्रक्रिया भी उनके उत्पीड़न का कारण न बन जाय।
रोहिंग्या अलगाववादियों के द्वारा
इन आरोपों का खंडन:
अराकान रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी(ARSA) के बारे
में सरकार का कहना है कि यह अराकान क्षेत्र में इस्लामिक स्टेट की स्थापना करना
चाहता है, लेकिन इसके नेतृत्व ने इस्लामिक स्टेट्स के साथ किसी भी प्रकार के
लिंकेज की संभावनाओं को ख़ारिज करते हुए म्यांमार में नृजातीय समूह के रूप में
रोहिंग्या को औपचारिक मान्यता दिलवाने, उनके लिए बर्मी नागरिकता को सुनिश्चित करने
और राज्य-प्रेरित उत्पीड़न से रोहिंग्याओं को मुक्ति दिलाने के लिए संघर्ष करने
वाले सशस्त्र समूह होने का दावा किया है। ध्यातव्य है कि रोहिंग्याओं के द्वारा यह माँग की जा रही है कि उनकी नागरिक पहचान को मान्यता
देते हुए उन्हें भी आत्मनिर्णय का अधिकार मिलना चाहिए, लेकिन समस्या यह है कि अराकान मूल के लोगों में हिन्दू भी हैं। बेशक इनकी संख्या
कम है, मगर ‘रखाइन’ प्रदेश से इनका भी लेना-देना है जिसे रोहिंग्या अपना प्रदेश मानते हैं। खैर, यह पता लगाना
तो मुश्किल है कि यह संगठन क्या चाहता है, लेकिन यह सच है कि इस संगठन ने पिछले
कुछ समय के दौरान अपनी प्रहार करने की अपनी क्षमता का उन्नयन किया है और स्थानीय
स्तर पर अपने जनाधार को फैलाने में सफल रहा है।
कोफ़ी अन्नान समिति,2016
अगर म्यांमार
रोहिंग्या-समस्या के समाधान को लेकर वाकई गंभीर है, तो उसे कोफ़ी अन्नान समिति की
सिफारिशों को लागू करने की दिशा में पहल करनी चाहिए। ध्यातव्य है कि सितम्बर,2016 में म्यांमार सरकार ने रखाइन प्रान्त
में स्थिति की जाँच के लिए कोफ़ी अन्नान के नेतृत्व में एक सलाहकारी समिति का गठन
किया जिसमें छः प्रतिनिधि म्यांमार के और तीन प्रतिनिधि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के
शामिल थे। लेकिन, इस समिति
को मानवाधिकार-उल्लंघन से सम्बंधित विशिष्ट या व्यक्तिगत के मामलों की जाँच के लिए
अधिकृत नहीं किया गया। अगस्त,2017 की घटना के ठीक
पहले इस समिति ने अपनी अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत की। इस समिति के द्वारा यह
अनुशंसा की गयी कि रोहिंग्या मुसलमानों के दमन-उत्पीड़न एवं म्यांमार से उनके पलायन
पर रोक की दिशा में अविलम्ब पहल की जाय लगाई जाय। उन्होंने मानवाधिकार संगठनों को
म्यांमार में काम करने की अनुमति देने, रोहिंग्या मुस्लिमों की नागरिकता की समस्या
के हल निकालने एवं इसके अनुरूप नागरिकता अधिनियम,1982 में अपेक्षित संशोधन करने,
शिक्षा एवं स्वास्थ्य-सुविधाओं तक सबकी पहुँच सुनिश्चित करने, मानवाधिकार-उल्लंघन
के आरोपियों को सजा देने और रखाइन प्रान्त में सभी लोगों को बेरोक-टोक आवाजाही की
अनुमति देने की अनुशंसा की थी। इसके अतिरिक्त समिति ने
समग्रता में विभिन्न समूहों के समुचित एवं पर्याप्त प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित
करने, अंतर्साम्प्रदायिक जुड़ाव एवं सद्भाव को मजबूती प्रदान करने, एंटी-ड्रग
एप्रोच अपनाने, सेना को मानवीय संकट से निपटने के लिए प्रशिक्षण देने और संघर्ष
वाले इलाके में उनके निष्पादन की निगरानी का सुझाव भी दिया।
पार्ट फोर: रोहिंग्या समस्या:
व्यापक सामाजिक-आर्थिक-कूटनीतिक परिप्रेक्ष्य
रोहिंग्या मुसलमानों की वैधानिक
स्थिति:
म्यांमार के बहुसंख्यक बौद्धों और
अल्पसंख्यक ईसाइयों का मानना है कि रोहिंग्या अवैध मुस्लिम बंगाली प्रवासी हैं।
इसी सोच के अनुरूप आपात् अप्रवासन अधिनियम (Emergency Immigration Act),1974 के
जरिये रोहिंग्याओं को बर्मी राष्ट्रीयता से वंचित किया गया और आगे चलकर नागरिकता
अधिनियम,1982 के
जरिये उन्हें संवैधानिक रूप से म्यांमार की नागरिकता के लिए योग्य करार दिया गया,
जिसके परिणामस्वरूप रोहिंग्या मुसलमान स्थाई रूप से म्यांमार की नागरिकता से वंचित
हो गए। यह अधिनियम वैधानिक रूप से मान्यता प्रदत्त 135 नृजातीय समूहों की सूची में
रोहिंग्याओं को स्थान नहीं देता है। साथ ही, इस कानून के तहत् अगर आवेदक म्यांमार
में आधिकारिक रूप से रजिस्टर्ड 135 जातीय समूहों से ताल्लुक नहीं
रखता है, तो उसे नागरिता पाने का हक़ नहीं है। इस
कानून के अंतर्गत गैर-नागरिकों को विदेशी पंजीकरण-कार्ड (White Card) उपलब्ध करवाया
जाता है और जिन नागरिकों के पास यह कार्ड उपलब्ध होता है, उनके बच्चे सार्वजानिक
पद नहीं धारण कर सकते हैं। फलतः सरकारी शिक्षा और नौकरियों में भी इनका प्रवेश
बाधित हुआ। चूँकि कई पीढ़ियों से म्यांमार में रहने के बावजूद उन्हें आर्थिक
प्रवासी के रूप में देखते हुए नागरिक-सुविधाओं से वंचित रखा गया है, इसीलिए
म्यांमार के अन्दर उनकी आवाजाही और वैधानिक स्थिति प्रतिबंधित है
नृजातीय एवं धार्मिक आधार पर भेदभाव:
म्यांमार में बहुसंख्यक आबादी बौद्धों
की है जिनका म्यांमार की आबादी में अनुपात 90% है। इन बहुसंख्यक आबादी का अल्पसंख्यक
मुसलमानों के प्रति नजरिया शत्रुतापूर्ण है। इनमें भी रोहिंग्या उनके निशाने पर
हैं जिनका म्यांमार के सैन्य-तंत्र की मदद से दमन एवं उत्पीड़न का क्रम निरंतर जारी
है। संयुक्त राष्ट्र(UNO) ने इन्हें दुनिया का सबसे उत्पीड़ित अल्पसंख्यक समुदाय
बताया है। कई दशकों से पहचान के संकट से जूझ रहे रोहिंग्याओं को बहुत ही दयनीय एवं
अमानवीय परिस्थितियों में रहना पड़ रहा है और उन्हें शारीरिक एवं मानसिक-उत्पीड़न
तथा बलात्कार जैसे अपराधों का शिकार होना पड़ता है। इनकी जीवनगत् विडम्बना यह है कि
जिस देश में ये सदियों से आबाद हैं, वह उन्हें अपना नागरिक स्वीकार करने और मूलभूत
अधिकार देने को तैयार नहीं है। इतना ही नहीं, वह जातीय सफाये की रणनीति के तहत्
व्यावहारिक रूप से उन्हें समाप्त करना चाहता है। म्यांमार के राष्ट्रपति थीन सेन
का आदेश इसी दिशा में संकेत करता है। उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि “हम अपनी ही
जाति के लोगों की ज़िम्मेदारी ले सकते हैं, किन्तु अपने देश में ग़ैर क़ानूनी रूप
से प्रविष्ट होने वाले रोहिग्या मुसलमानों की ज़िम्मेदारी स्वीकार करना हमारे लिए
असंभव है जो हमारी जाति से संबंध नहीं रखते।”
परस्पर विश्वास का अभाव(Trust
Deficit) और पहचान का संकट:
बहुसंख्यक
बर्मी बौद्धों के अल्पसंख्यक हिन्दुओं और ईसाइयों के साथ अपेक्षाकृत अच्छे संबंध
रहे हैं जो इस बात का संकेत देता है कि धार्मिक एवं नृजातीय कारक के साथ-साथ आस्था
और परंपरा की भिन्नता बौद्ध-रोहिंग्या टकराव का एकमात्र कारण नहीं है। इस
परिप्रेक्ष्य में देखा जाय, तो ऐतिहासिक रूप से औपनिवेशिक काल से ही बहुसंख्यक
बौद्धों के मुस्लिमों से तनावपूर्ण संबंध रहे हैं जिसे पृथक पहचान का मसला और
पारस्परिक विश्वास का अभाव गहरा रहा है। रोहिंग्या मुसलमानों से आशंकित म्यांमारी
बौद्धों की यह धारणा है कि अगर मुसलमानों की तेज़ी से बढ़ती आबादी को गंभीरता से
नहीं लिया गया, तो भारत और इंडोनेशिया की तरह बौद्ध-विरासत यहाँ भी ख़त्म हो
जाएगी, जबकि म्यांमार में कुल आबादी के महज चार फ़ीसदी ही मुस्लिम हैं।
स्पष्ट
है कि बहुसंख्यक बौद्ध रखाइन के इस्लामीकरण की आशंका से ग्रस्त हैं। इसके मूल में
है बर्मीज महिलाओं से रोहिंग्या मुसलमानों की शादी और शादी के बाद उनका धर्मांतरण।
इसी की पृष्ठभूमि में रोहिंग्याओं के प्रति बौद्ध आक्रोश गहरा रहा है। साथ ही,
बौद्धों की इनके सन्दर्भ में यह धारणा भी है कि रोहिंग्या मसलमानों के द्वारा अपने
धन का इस्तेमाल ज़मीन ख़रीदने एवं मस्जिदों के निर्माण के लिए किया जा रहा हैं जो
म्यांमार के इस्लामीकरण के मार्ग को प्रशस्त कर रहा है। म्यांमार में यह भावना
प्रबल हो चुकी है कि इन बंगाली मुसलमानों के द्वारा बौद्ध-स्तूपों की ज़मीन पर
अतिक्रमण किया जा रहा है और ये रखाइन क्षेत्र को इस्लामिक लैंड में तब्दील करना
चाहते हैं। इसी पृष्ठभूमि में म्यांमार में बौद्ध राष्ट्रवाद लगातार अपनी मज़बूत
एवं प्रभावी उपस्थिति दर्ज करवा रहा है और यह धारणा जोर पकड़ रही है कि बर्मीज का
बौद्ध होना अनिवार्य है।
तेज़ होता दमन-चक्र(2012 से अबतक):
जून,2012 में एक बार फिर से अराकानी
क्षेत्र में सांप्रदायिक तनाव फैला जिसमें लगभग एक लाख लोग विस्थापित हुए और कई
लोग मारे गए। इन विस्थापितों को आतंरिक विस्थापित कैम्पों(IDC) में शरण लेनी पड़ी।
नवम्बर,2012 में नवी पिल्लई ने म्यांमार की सरकार से अपने नागरिकता कानून की
समीक्षा का सुझाव दिया ताकि रोहिंग्याओं की राज्य-विहीनता को समाप्त करते हुए उनकी
नागरिकता तक समान पहुँच सुनिश्चित की जा सके। मई,2013 में मॉंगडाव जिला के
अधिकारियों ने रोहिंग्या परिवारों पर दो बच्चे के मानकों को आरोपित किया जिसे संयुक्त राष्ट्र के विशेष
प्रतिनिधि ने धार्मिक एवं नृजातीय समुदाय विशेष को लक्षित करने के कारण
मानवाधिकारों का उल्लंघन माना और म्यांमार की सरकार से इस स्थानीय आदेश को
सुनिश्चित किये जाने की माँग की। फरवरी,2014 में
बौद्ध भिक्षुओं के सम्मलेन में प्रस्तावित अंतर्धार्मिक विवाह क़ानून को अंतिम रूप देते हुए बौद्ध महिला के मुस्लिम
पुरूष के साथ शादी को प्रतिबंधित किया गया, इसके लिए अधिकारियों की अनुमति को
अनिवार्य बनाया गया और मुस्लिम युवक के लिए पहले बौद्ध धर्म स्वीकार करने की शर्त
जोड़ी गयी। यह अधिनियम विभेदकारी था और मौलिक अधिकार, स्वतंत्रता एवं धार्मिक आस्था
पर आधारित अंतर्राष्ट्रीय संधियों के प्रतिकूल था। इसी वर्ष म्यांमार ने 1983 के बाद पहली जनगणना करवाई जिसमें रोहिंग्याओं को पृथक नृजातीय समूह
के रूप में मान्यता देने से इन्कार किया। काचिन क्षेत्र भी इस जनगणना से बाहर रहे। इसी
आलोक में अक्टूबर,2014 में म्यांमार के लिए विशेष दूत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा
को संबोधित करते हुए सुधार की प्रक्रिया से म्यांमार के पीछे हटने को लेकर चिंता
प्रदर्शित की। उन्होंने रखाइन प्रदेश में अशांति और रोहिंग्याओं के साथ
भेदभाव, उनके मानवाधिकारों के उल्लंघन एवं उनकी आवाजाही पर रोक के कारण स्वास्थ्य,
भोजन, पेयजल, स्वच्छता, जीविका आदि बुनियादी सुविधाओं से उनके वंचित रहने की ओर भी
ध्यान आकृष्ट किया। लेकिन,
फरवरी,2015 में इन सबसे अप्रभावित म्यांमार सरकार ने चीनी बॉर्डर पर उत्तर में
स्थित शान प्रान्त में कोकांग विद्रोहियों से मिपटने के लिए अस्थाई तौर पर मार्शल
लॉ लगाया। फरवरी,2015 में
म्यांमार सरकार ने प्रस्तावित संवैधानिक जनमत-संग्रह के ठीक पहले बहुसंख्यक बौद्धों के दबाव में रोहिंग्याओं को अस्थाई
मताधिकार से भी वंचित कर दिया। मार्च,2015 में सरकार ने रोहिंग्याओं के
द्वारा धारित श्वेत
(पहचान) कार्ड को अवैध करार दिया
और उन्हें निर्देश दिया कि वे खुद को बंगाली के रूप में पंजीकृत करें जो उनके अवैध
प्रवासन का संकेत देता है। मई,2015 में संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत ने नस्ल एवं धर्म
को संरक्षण हेतु प्रस्तुत चार विधेयकों में से पहले जनसंख्या-नियंत्रण हेल्थकेयर बिल के सन्दर्भ में चेतावनी देते हुए कहा कि नृजातीय एवं धार्मिक अल्पसंख्यक
समूहों के प्रति विभेदकारी होने के कारण यह बिल नृजातीय तनावों को बढ़ावा देने वाला
साबित होगा। नवम्बर,2015
में अराकान राज्य के पुलिस प्रमुख ने गैर-मुस्लिम निवासियों के सिविलियन सुरक्षा
बल के स्थानीय पुलिस बल के द्वारा प्रशिक्षण एवं शस्त्र उपलब्ध करवाये जाने के
संकेत दिये, लेकिन मुस्लिम अल्पसंख्यकों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया। अक्टूबर,2016 में होने वाले आतंकी हमले के लिए
पुलिस ने लम्बे संमय से मृतप्राय उग्रवादी समूह रोहिंग्या सॉलिडेरिटी आर्गेनाईजेशन
को जिम्मेवार माना, तो सरकार ने पकिस्तान में तालिबान द्वारा प्रशिक्षित व्यक्ति
के नेतृत्व वाले जिहादी संगठन अका-उल-मुजाहिदीन से जुड़े हुए लोगों को। इसी
आलोक में इस क्षेत्र को सेना ने ऑपरेशन जोन घोषित किया और्व्रोहिंग्याओं के दमन
एवं उत्पीड़न का नया चक्र शुरू हुआ, जो अगस्त,2017 के हमले के बाद तेज़ होता चला गया।
फलतः अपनी जान-माल की सुरक्षा के लिए रोहिंग्याओं को पलायन की ओर रुख करना
पड़ा।
राजनीतिक
एवं आर्थिक परिप्रेक्ष्य:
म्यांमार ने नागरिकता अधिनियम,1982 के जरिये 135 नृजातीय समूहों को
औपचारिक रूप से मान्यता प्रदान की है। ऐसी स्थिति में यह मानना मुश्किल है कि केवल
धार्मिक एवं नृजातीय भिन्नता ही बौद्ध-रोहिंग्या तनाव, रोहिंग्याओं के
दमन-उत्पीड़न, और म्यांमार से उनके पलायन के मूल में है क्योंकि अगर ऐसा होता, तो
अन्य अल्पसंख्यक नृजातीयों (हिन्दुओं एवं ईसाइयों) के साथ भी रोहिंग्या मुसलमानों
की तरह ही व्यवहार किया जाता। इसीलिए रोहिंग्याओं के साथ-साथ काचिन, शान, करेन,
शिन और मोन जैसी अल्पसंख्यक नृजातीयों को हाशिये पर पहुँचाने की प्रक्रिया को महज
धार्मिक एवं नृजातीय पहचान पर आधारित टकराव के परिप्रेक्ष्य में सीमित कर देखने की
बजाय निहित राजनीतिक एवं आर्थिक हितों के परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की ज़रुरत है।
रखाइन प्रान्त का आर्थिक-सामरिक महत्व:
म्यांमार प्राकृतिक संसाधनों के लिहाज
से काफी संपन्न है। लकड़ी और रबड़ के अलावा रखाइन प्रान्त में प्राकृतिक गैस का
विपुल भंडार है। विशेष रूप से प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से रखाइन क्षेत्र का
भू-सामरिक महत्व भी इसे महत्वपूर्ण बना देता है। रखाइन क्षेत्र में
रोहिंग्या-समस्या, रोहिंग्याओं के नाम पर होने वाली पहचान-आधारित राजनीति और इसकी
हिंसात्मक परिणति को इसी भू-सामरिक अवस्थिति के परिप्रेक्ष्य में रखकर देखे जाने
की जरूरत है। 13,540 वर्ग मील में फैले रखाइन प्रान्त (पहले अराकान
राज्य) बंगलादेश से लगा हुआ म्यांमार का एक सीमावर्ती राज्य है जिसमें लगभग बीस
लाख लोग रहते हैं। बंगाल की खाड़ी के पूर्वी तट से लगा हुआ यह राज्य अराकान योमा
रेंज और बंगाल की खाड़ी के बीच अवस्थित है और उत्तर से दक्षिण तक फैला योमा रेंज
इसे शेष म्यांमार से अलग करता है। इसकी विशिष्ट भौगोलिक अवस्थिति म्यांमार के लिए
इसे सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण बना देती है।
तटवर्ती एवं पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण रखाइन प्रान्त प्राकृतिक संसाधनों की
दृष्टि से समृद्ध है। रखाईन से लगे
म्यांमार के विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र(EEZ) में कई तेल एवं गैस ब्लॉक अवस्थित हैं
जिनमें निहित संभावनाओं के दोहन के लिए म्यांमार के द्वारा विदेशी निवेश को
प्रोत्साहन दिया जा रहा है। इसके अलावा संगमरमर के दोहन एवं प्रसंस्करण की
संभावनाओं के मद्देनज़र खनन-क्षेत्र भी निवेश की व्यापक संभावनाओं से लैश है। इसी
तरह इस क्षेत्र की भौगोलिक अवस्थिति इसे पर्यटन की संभावनाओं से लैश करती है। इस
क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों, विशेषकर तेल एवं गैस में भारत, चीन एवं बंगलादेश
के साथ-साथ पश्चिमी देशों की रुचि है। इसकी पुष्टि इस बात से होती
है कि वित्त वर्ष 2016-17 में रखाइन क्षेत्र में खनन एवं सेवा क्षेत्र की एक-एक
परियोजनाओं के सहित ऊर्जा क्षेत्र की 27 परियोजनाओं में कुल-मिलाकर 10.3 बिलियन
अमेरिकी डॉलर का निवेश किया गया। इन परियोजनाओं से न केवल पूरे म्यांमार को
रोजगार मिलता है, वरन् तेल एवं गैस-राजस्व और ट्रांजिट-शुल्क भी प्राप्त होता
है।
स्पष्ट है कि रखाइन क्षेत्र के इन प्राकृतिक
संसाधनों पर न केवल म्यांमार सरकार की, वरन् भारत और चीन सहित इसके पड़ोसी देशों और
पश्चिमी देशों की नजर काफी समय से रही है। इन संसाधनों के दोहन के लिए इन पर कब्जे
की होड़ ने म्यांमार के कई हिस्सों में आतंरिक गृह-युद्ध के हालात बना दिए हैं।
आर्थिक विकास की गलत रणनीति:
पिछले कुछ सालों के दौरान म्यांमार ने सात से आठ प्रतिशत की विकास-दर को हासिल किया है जिसमें विदेशी कंपनियों और उनके द्वारा किये जाने वाले विदेशी निवेश की अहम् भूमिका रही है।
1990 के दशक में सैन्य-जुंटा के द्वारा देश भर में मौजूद प्राकृतिक संसाधनों के
दोहन से सम्बंधित विकास-परियोजनाओं, बड़ी कृषि-परियोजनायें और पर्यटन के साथ-साथ
सैन्य-बेस के विस्तार के लिए जबरन भूमि-अधिग्रहण किया गया। 2011 में म्यांमार में ‘आर्थिक सुधार’ की प्रक्रिया को और तेज करते हुए विदेशी निवेश को अधिकाधिक प्रोत्साहन की रणनीति अमल में लाई गई। इसी के साथ ऊँची
विकास-दर प्राप्त करने के लिए जबरन भूमि-अधिग्रहण और संसाधनों पर कब्ज़े को लेकर
स्थानीय लोगों में सत्ता-संघर्ष शुरू हुआ क्योंकि भारत, चीन, जापान, कोरिया समेत कई
देशों की विदेशी कंपनियाँ के लिए म्यांमार के शान, कचीन, करेन और रखाइन
राज्यों में विदेशी निवेश एवं विकास के नाम पर ज़मीन का अधिग्रहण तो किया गया, लेकिन न तो समुचित एवं पर्याप्त
मुआवजे की व्यवस्था की गयी और न ही विस्थापितों के पुनर्वास एवं पुनर्स्थापन का प्रबंध किया गया। यहाँ तक कि विस्थापितों की रोजी-रोटी के वैकल्पिक
इंतजाम भी नहीं किये गये। इतना ही नहीं, ‘न्यूट्रल एडवाइजरी कमीशन ओं रखाइन स्टेट की अनुशंसा के बावजूद सित्तवे-कुनमिंग गैस पाइपलाइन से सम्बंधित योजनाओं के सामाजिक एवं पर्यावरणीय प्रभाव के आकलन की जरूरत भी नहीं समझी गयी। यही स्थिति बहुत कुछ अन्य विकास-परियोजनाओं की भी रही। बिना किसी संरक्षण
के जबरन भूमि-अधिग्रहण एवं विस्थापन की तेज़ होती प्रक्रिया ने स्थानीय असंतोष को
जन्म दिया। यह प्रक्रिया नृजातीय एवं धार्मिक कारकों से परे हटकर चली। फलतः इसके शिकार सिर्फ रोहिंग्या
मुसलमान ही नहीं, वरन् स्थानीय हिंदू और बौद्ध भी हुए। करेन, शान और कचीन समुदायों का सीधा
टकराव म्यांमार की सेना से हुआ है। लेकिन, इसने
नृजातीय अल्पसंख्यकों को विशेष रूप से प्रतिकूलतः प्रभावित किया। इसी दौरान
म्यांमार की सरकार ने कृषि-भूमि के प्रबंधन एवं वितरण से सम्बंधित कई कानून बनाये
जिससे अंततः बड़े कॉर्पोरेशन लाभान्वित हुए इसीलिए जो विकास हुआ, वह समावेशी न होकर
स्थानीय जातीय समूह की कीमत पर हुआ। इस स्थिति ने उत्तरी और पूर्वी म्यांमार में रहने वाले कुछ बौद्ध जनजातीय
समूहों के लाखों लोगों को शरणार्थी की ज़िंदगी जीने के लिए विवश किया।
स्थानीय संसाधनों पर नियंत्रण को लेकर तेज़ होता
सत्ता-संघर्ष:
स्पष्ट है कि स्थानीय जातीय समूहों के जीवन की
कीमत पर विकास-दर को सुनिश्चित करने की रणनीति ही वह पृष्ठभूमि है जिसमें म्यांमार
के विभिन्न हिस्सों में विभिन्न नृजातीय समूहों के द्वारा राज्य और सेना के खिलाफ
संघर्ष किया जा रहा है। इस संघर्ष में 2011 के बाद कहीं अधिक तेज़ी आयी है। इसे
रखाइन प्रान्त में रोहिंग्या मुसलमानों के साथ-साथ उत्तरी और पूर्वी म्यांमा में
गैर-मुसलिम जातीय समूहों के साथ म्यांमार की सेना के तेज़ होते संघर्ष के
परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। रखाइन में दो कोरियाई और चीन की कुछ कंपनियों
की परियोजनाओं के लिए जमीन अधिग्रहण के बाद स्थानीय लोगों और सेना के बीच टकराव
बढ़ा। चूँकि रखाइन प्रांत में रोहिंग्या मुसलमानों की संख्या अच्छी-खासी है, इसलिए इसे धार्मिक या सांप्रदायिक रूप देने की कोशिश की गई।
कचीन प्रांत में तो 1960 से ही कचीन इंडिपेंडेंस
ऑर्गेनाइजेशन और सेना के बीच संघर्ष चल रहा है, लेकिन 2011 में सेना और
गैर-मुस्लिम कचीन जाति, जिनमें बौद्ध और ईसाई दोनों शामिल हैं, के बीच दुबारा शुरू
हुआ संघर्ष तेज हो गया। इसके बाद लगभग एक लाख कचीनों ने शरणार्थी शिविरों में शरण
ली। करेन राज्य में करेन जातीय समूह, जिनमें बौद्ध और ईसाई दोनों शामिल हैं, और
सेना के बीच लगातार जारी संघर्ष के फलस्वरूप लाखों करेनों को थाईलैंड में शरण लेनी
पड़ी और आज वो शरणार्थी की ज़िन्दगी जीने को अभिशप्त हैं। इन सबके बावजूद
रोहिंग्या-समस्या को धार्मिक एवं सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश ने संकट को और अधिक गहराने का काम किया है, जबकि सच्चाई कुछ और
है। दरअसल रोहिंग्या-समस्या को
संसाधनों को लेकर चल रहे युद्ध के परिप्रेक्ष्य में ज्यादा बेहतर तरीके से समझा जा
सकता है।
कूटनीतिक
परिवर्तनों की भूमिका:
हाल के वर्षों में इस क्षेत्र में कूटनीतिक परिवर्तनों की प्रक्रिया
तेज हुई है। एक ओर हिन्द महासागर में चीन की बढ़ती हुई रुचि और इस कारण म्यांमार
में चीन के बढ़ते हुए प्रभाव ने भारत और अमेरिका सहित पश्चिमी देशों को आशंकित किया
है तथा उनके सामरिक हितों प्रतिकूलतः प्रभावित किया है, दूसरी ओर म्यांमार में चीन
की आक्रामक रणनीति एवं म्यांमार सरकार पर बढ़ते चीनी दबाव के कारण म्यांमार को भी
इस बात का दर हुआ कि अगर समय रहते उसने चीनी प्रभाव को प्रतिसंतुलित करने की कोशिश
नहीं की, तो उसके लिए चीनी दबाव का सामना करना मुश्किल हो जाएगा। यही वह पृष्ठभूमि
है जिसमें म्यांमार के सैन्य-तंत्र ने धीमे, किन्तु क्रमिक एवं चरणबद्ध तरीके से
लोकतंत्रीकरण की दिशा में पहल करते हुए पश्चिमी जगत से सम्बन्ध सुधरने की दिशा में
कदम बढाया और पश्चिमी देशों ने भी म्यांमार के प्रति अपने नज़रिए को बदलते हुए
संबंधों में सुधर की दिशा में पहल की, ताकि हिन्द महासागर में चीन के बढ़ते प्रभाव
और उसके बढ़ते अंतर्राष्ट्रीय कद को प्रति-संतुलित करने के साथ-साथ म्यांमार में
अपने सामरिक-आर्थिक हितों को संरक्षित किया जा सके। इस पूरी प्रक्रिया में भारत की
रणनीतिक भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही जिसने म्यांमार एवं पश्चिमी जगत के बीच
ब्रिज वाली भूमिका का निर्वाह किया।
इस
परिदृश्य में भारत और पश्चिमी देश रोहिंग्या मसले पर सख्त रूख अपनाते हुए म्यांमार
के सैन्य-तंत्र पर दबाव बनायेंगे, इसमें संदेह है। इससे म्यांमार की नाराज़गी का
खतरा उत्पन्न हो सकता है और इसके जो सामरिक एवं आर्थिक निहितार्थ होंगे, उसके लिए
ये देश तैयार नहीं हैं; विशेष रूप से उस स्थिति में, जब चीन इस मसाले पर म्यांमार
की सरकार के साथ दृढ़तापूर्वक खड़ा है। इसका मतलब होगा चीन को सामरिक बढ़त देते हुए
इस क्षेत्र में अपनी स्थिति मज़बूत करने का अवसर देना।
स्पष्ट है कि धार्मिक एवं नृजातीय कारकों की जटिलता एवं प्रासंगिकता
से इन्कार नहीं किया जा सकता है, पर इसे राजनीतिक एवं आर्थिक कारकों के साथ-साथ
व्यापक भू-राजनीतिक एवं कूटनीतिक परिप्रेक्ष्य में देखे जाने की जरूरत है।
पार्ट फाइव : रोहिंग्या समस्या:
भारत एवं चीन का विशेष सन्दर्भ
प्रधानमंत्री का म्यांमार दौरा,सितम्बर 2017
म्यांमार में साझा प्रेस-कॉन्फ्रेंस में म्यांमार की शांति-प्रक्रिया
की तारीफ करते हुए कहा कि म्यांमार जिन चुनौतियों का मुकाबला कर रहा है, भारत उन्हें पूरी तरह समझता है और इस समस्या के समाधान में
हरसंभव मदद को तैयार है।
प्रधानमंत्री
मोदी ने कहा, रखाइन स्टेट में चरमपंथी हिंसा के चलते
खासकर सिक्यॉरिटी फोर्सेज और मासूम जीवन की हानि को लेकर आपकी चिंताओं के हम
भागीदार हैं। म्यांमार में शांति-प्रक्रिया में भारत पूरा-पूरा सहयोग करेगा ताकि
म्यांमार की एकता और भौगौलिक अखंडता का सम्मान करते हुए सभी के लिए शांति, न्याय, सम्मान और लोकतांत्रिक मूल्य सुनिश्चित
किये जा सकें।
पड़ोसी
होने के नाते समान सुरक्षा-हित के मद्देनज़र दोनों पक्षों ने स्थल एवं समुद्री सीमा पर आपसी
सुरक्षा-सहयोग की दिशा में संकेत दिए। साथ ही, भारत आने वाले म्यामांर के नागरिकों
के लिए निःशुल्क वीजा उपलब्ध कराने की दिशा में पहल के भी संकेत दिये। आतंकवाद के
मसले पर दोनों पक्षों ने एक दूसरे की जमीन के इस्तेमाल न होने देने के प्रति अपनी
प्रतिबद्धता प्रदर्शित की। भारत का मानना है कि
समस्या की जटिलता को समझते हुए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय रोहिंग्या-समस्या से निपटने
के लिए म्यांमार को अधिक समय दे।
सितम्बर,2017 में जारी भारत-म्यांमार
साझा बयान में रखाइन प्रान्त के विकासात्मक एवं सुरक्षात्मक आयाम हैं। भारत अवसंरचना-विकास तथा विशेष रूप से
शिक्षा, स्वास्थ्य कृषि, कृषि-प्रसंस्करण, सामुदायिक विकास, सड़क एवं पुल-निर्माण
और पर्यावरण-संरक्षण से सम्बंधित रखाइन क्षेत्र विकास कर्यक्रम के सन्दर्भ में
म्यांमार के साथ सहयोग करेगा और दोनों पक्ष आनेवाले महीनों में इस कार्यक्रम के
प्रभावी क्रियान्वयन को सुनिश्चित करेंगे। लेकिन, साझा बयान में कहीं भी
रोहिंग्या समस्या और इस सन्दर्भ में हालिया प्रगति, या फिर भारत में अवैध रूप से
रह रहे रोहिंग्याओं की वापसी के मसले का जिक्र नहीं है।
भारत
के सन्दर्भ में रोहिंग्या समस्या के निहितार्थ:
रोहिंग्या
आतंकवादी संगठन के बहाने म्यांमार की सेना के द्वारा अल्पसंख्यक रोहिंग्याओं के
दमन एवं उत्पीड़न की पृष्ठभूमि में भारत सहित दुनिया के विभिन्न हिस्सों में उनके
प्रति उपजी हुई सहानुभूति एवं संवेदना सहज एवं स्वाभाविक है, पर इस
सन्दर्भ में भारत की स्थिति कहीं अधिक
जटिल है। इसे निम्न परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है:
1. आतंरिक सुरक्षा: भारत सरकार रोहिंग्याओं को भारत की आतंरिक सुरक्षा के लिए खतरा मानती
है क्योंकि ख़ुफ़िया सूचनाओं के हवाले उसे रोहिंग्याओं के तार इस्लामिक स्टेट्स और
पकिस्तान से जुड़े होने के संकेत मिले हैं जो भारत के लिए खतरनाक साबित हो सकता है।
चिंता इसलिए भी कि सामान्यतः दमन एवं उत्पीड़न से बचने के लिए देश से पलायन करने
वाले लोग सीमावर्ती क्षेत्रों में शरण लेते हैं, पर रोहिंग्या अलग-अलग मार्गो से
भारत में प्रवेश करते हुए जम्मू-कश्मीर घाटी, मेवात और हैदराबाद
जैसी संवेदनशील जगहों सहित भारत के विभिन्न हिस्सों में फ़ैल चुके हैं। यहाँ पर इस
बात को भी ध्यान में रखने की ज़रुरत है कि अवैध प्रवासियों ने किस प्रकार
पूर्वोत्तर और पश्चिम बंगाल के कई इलाकों में सामाजिक संतुलन को गड़बड़ाते हुए
सामाजिक-सांस्कृतिक संकट की स्थिति को जन्म दिया है और इसके कारण इन क्षेत्रों में
किस प्रकार की समस्यायें उभर कर सामने आ रही हैं।
आशंका इस बात की भी है कि कहीं रोहिंग्याओं के बहाने
नृजातीय-सांप्रदायिक टकराहट की आग सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक-सांप्रदायिक
वैविध्य से भरे भारत को भी अपनी चपेट में लेकर उसे झुलसा न दे। इसके संकेत पहले ही
मिल चुके हैं। जुलाई, 2013 को
गया के महाबोधि मंदिर में हुए नौ धमाकों के तार म्यांमार की रोहिंग्या-बौद्ध
प्रतिद्वंद्विता से जुड़ने के संकेत मिले। अगर ऐसा होता है, तो फिर इस आग को फैलने से रोक
पाना और इसे नियंत्रित कर पाना भारत के लिए बहुत ही मुश्किल हो जायेगा। इतना ही नहीं, दुनिया
के विभिन्न हिस्से में शरणार्थियों के रवैये और विशेष रूप से हाल में यूरोपीय
देशों में मुस्लिम शरणार्थियों के द्वारा अपनाये गए रवैये भी भारत को चिंतित कर
रहे हैं।
2.
जटिल घरेलू परिदृश्य: रोहिंग्या-समस्या से जूझने की कोशिश में लगे भारत को
आतंरिक एवं बाह्य स्तर पर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। म्यांमार सरकार के
द्वारा रोहिंग्याओं का दमन एवं उत्पीड़न भारतीय मुसलमानों के मन में रोहिंग्याओं के
प्रति सहानुभूति को जन्म दे रहा है। समस्या यह भी है कि इन रोहिंग्याओं के प्रश्न
के साथ मुस्लिम-तुष्टिकरण की नीति और मोदी-विरोध का प्रश्न सम्बद्ध हो गया है। इन्हें भारतीय उदारवादियों और
धर्मनिरपेक्षतावादियों का भी समर्थन मिल रहा है जिनका मानना है कि भारत सरकार को
मानवीय आधार पर रोहिंग्याओं के पक्ष में खड़ा होना चाहिए और उन्हें न केवल शरण देनी
चाहिए, वरन् उनके पक्ष में अंतर्राष्ट्रीय माहौल बनाते हुए म्यांमार सरकार पर दबाव
बनाना चाहिए। स्पष्ट है कि जोर पकड़ती
हिन्दुत्ववादी राजनीति की पृष्ठभूमि में होनेवाले सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ने
रोहिंग्या शरणार्थियों से जुड़े प्रश्नों को कहीं अधिक जटिल बनाया है।
3.
बढ़ता अंतर्राष्ट्रीय दबाव: रोहिंग्याओं को
लेकर भारत पर मानवाधिकार संगठनों के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय संगठनों का दबाव बढ़ता
जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र
संघ के साथ-साथ विश्व-जनमत रोहिंग्याओं के साथ खड़ा है और भारत से यह अपेक्षा करता
है कि वह म्यांमार सरकार पर रोहिंग्याओं के दमन एवं उत्पीड़न रोकने के लिए दबाव
बनाये, रोहिंग्याओं के मानवाधिकार-उल्लंघन से सम्बंधित मामलों की स्वतंत्र एवं
निष्पक्ष जाँच के लिए म्यांमार सरकार को राजी करे और इस समस्या का स्थाई समाधान
निकालने में मदद करे। भारत सरकार की दुविधा का अंदाज़ा सिर्फ इस बात से लगाया जा
सकता है कि एक ओर भारत सरकार इन्हें जबरन वापस बर्मा भेजना चाहती है, दूसरी ओर
ढाका स्थित भारतीय राजदूत ने बांग्लादेश में घुसे साढ़े चार लाख रोहिंग्या
शरणार्थियों के लिए भरपूर मदद भेजने का इंतजाम किया है। वर्तमान में यह मसला
सुप्रीम कोर्ट में लंबित है।
इस जटिल परिदृश्य में प्रश्न यह उठता
है कि क्या भारत को चुप्पी साध लेनी चाहिए, या फिर आगे बढ़कर रोहिंग्या मुसलमानों
के पक्ष में खड़ा होना चाहिए? प्रश्न यहीं पर समाप्त नहीं होते। प्रश्न यह भी उठता
है कि क्या भारत इस सन्दर्भ में म्यांमार सरकार पर दबाव बना पाने की स्थिति में
है, विशेषकर तब जब म्यांमार में चीन के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकना भारत के लिए
रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है? प्रश्न यह भी है कि जो चालीस हज़ार रोहिंग्या
शरणार्थी भारत के विभिन्न हिस्सों में रह रहे हैं, क्या भारत उन्हें बाहर निकाल
पाने की स्थिति में है? और, अगर इसके द्वारा उन्हें बाहर निकलने का निर्णय लिया
जाता है, तो यह निर्णय व्यावहारिक होगा? बात केवल रोहिंग्याओं की नहीं है, बात
दुनिया के विभिन्न हिस्सों में अल्पसंख्यकों के दमन एवं उत्पीड़न की भी है।
रोहिंग्या-समस्या तो इसी बृहत्तर समस्या का महज छोटा-सा हिस्सा है।
भारत अपने पड़ोसी देशों की जातीय समूहों की समस्याओं से प्रत्यक्षतः या परोक्षतः
सम्बद्ध होने के कारण चाहकर भी उनकी अनदेखी नहीं कर सकता है। इसलिए भी कि 1935 तक पूरा म्यांमार ब्रिटिश भारत का ही हिस्सा था और यहाँ के
निवासी भी भारतीय ही कहलाते थे। साथ ही, जिस दौर में ये बंगाली मुसलमान पूर्वी
बंगाल से म्यांमार में जाकर बसे, उस दौर में यह क्षेत्र भारत का ही हिस्सा था।
इसीलिये ऐसे मसले पर मानवीय नजरिया अपनाना उससे अपेक्षित है, न केवल इसलिए कि वह
इससे अप्रभावित नहीं रह सकता है, वरन् इसलिए भी कि वह अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में
अपने लिए जिस महती भूमिका को सुनिश्चित करना चाहता है, उसके कारण उसकी जिम्मेवारी
बढ़ जाती है। इसलिए भी वह रोहिंग्याओं के मानवीय एवं नागरिक अधिकारों के प्रश्न की
अनदेखी नहीं कर सकता। इसे हिन्दू-मुसलमान के नजरिये से देखना तो और भी जोखिम भरा
हो सकता है। इन सबसे इतना तो संकेत
मिलता ही है कि उसे आगे बढ़कर अपनी
जिम्मेवारी स्वीकार करते हुए अधिक सक्रिय भूमिका निभानी होगी और म्यांमार की सरकार
के साथ मिलकर रोहिंग्या समस्या का व्यावहारिक एवं स्थाई हल निकालना होगा। उसे म्यांमार सरकार के साथ
अपने बेहतर सम्बन्ध का इस्तेमाल करते हुए यह सुनिश्चित करना होगा कि म्यांमार की
सरकार रखाइन स्टेट में हाल में फ़ैली सांप्रदायिक हिंसा के दौरान रोहिंग्या
मुसलमानों के मानवाधिकार उल्लंघन से सम्बंधित घटनाओं की किसी स्वतंत्र एजेंसी के
माध्यम से स्वतंत्र एवं निष्पक्ष जाँच करवाए। इस क्रम में इस बात को भी
ध्यान में रखा जाना चाहिए कि न तो यह राष्ट्रीय सुरक्षा से किसी
प्रकार के समझौते की स्थिति में है
और न ही अपने सामरिक हितों की अनदेखी की स्थिति में। सभी रोहिंग्या आतंकवादी नहीं हो सकते, पर इस तथ्य
से इन्कार करना आसान नहीं होगा कि भारत-विरोधी शक्तियाँ और आतंकी संगठन भारत के
विभिन्न हिस्सों में उनका इस्तेमाल भारत-विरोधी गतिविधियों को अंजाम देने और भय
एवं आतंक का वातावरण सृजन करने के लिए कर सकते हैं। इसलिए
सबसे बेहतर यह होगा कि भारत म्यांमार एवं बांग्लादेश मिलकर रोहिंग्या मुसलमानों की
समस्या का स्थाई समाधान तलाशे। एक अच्छी बात यह हुई है कि म्यांमार सरकार
रोहिंग्या शरणार्थियों को वापस बुलाने पर सैद्धांतिक तौर पर सहमत हो गई है, लेकिन
आगे का रास्ता इतना आसान नहीं होने जा रहा है। इसका संकेत इस बात से भी मिलता है
कि पलायन कर चुके रोहिंग्या-शरणार्थियों को वापस म्यांमार लौटने के लिए म्यांमार-सीमा पर बारूदी सुरंग बिछाने की बात भी सामने आयी है।’ UNHRC के 36वें सेशन में मानवाधिकार आयुक्त ने भारत की कार्यवाही की निंदा
करते हुए कहा गया कि भारत रोहिंग्याओं का सामूहिक निष्कासन नहीं कर सकता है और
उन्हें जबरन उस जगह पर वापस नहीं भेज सकता है जहाँ उनकी जान को खतरा हो। भारत ने
इस संस्था के द्वारा आतंकवाद की समस्या के नजरंदाज़ पर नाखुशी प्रदर्शित की।
म्यांमार में भारत का प्रवेश:
रखाइन क्षेत्र में भारत के आर्थिक-सामरिक हित दाँव पर लगे हुए हैं। 1990 के दशक में म्यांमार और चीन के संबध गहराते गए और भारत ने अपनी विदेश नीति
में लोकतान्त्रिक मूल्यों एवं इसके प्रति अपनी प्रतिबद्धता के कारण म्यांमार के
सैन्य-तंत्र से दूरी बनायी, इस तथ्य के बावजूद कि म्यांमार की भू-सामरिक अवस्थिति
इसे भारत के लिए महत्वपूर्ण बना देती है। यह भारत को जमीन के रास्ते दक्षिण-पूर्व
एशिया से जोड़ता हुआ लैंड-ब्रिज में तब्दील हो जाता है। इतना ही नहीं, म्यांमार
भारत की आतंरिक सुरक्षा के लिहाज से भी महत्वपूर्ण है, विशेष रूप से भारत के लिए
म्यांमार के प्रभावी सहयोग के बिना पूर्वोत्तर भारत में चल रहे उपद्रव पर अंकुश
लगा पाना बहुत ही मुश्किल होगा। म्यांमार के रास्ते हिन्द महासागर तक पहुँचने की
कोशिश में लगा चीन भी म्यांमार को भारत के लिए सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण बना
देता है। इसीलिए रखाईन स्टेट में शांति एवं स्थिरता के साथ भारतीय सामरिक हित जुड़े
हुए हैं। फलतः म्यांमार में चीन को बढ़त मिली और भारत पिछड़ता चला गया। लेकिन, पिछले
कुछ वर्षों के दौरान भारत ने म्यांमार को लेकर अपनी नीति में परिवर्तन लाया।
अब भारत एक्ट ईस्ट नीति के तहत् म्यांमार के साथ बेहतर सामरिक सम्बन्ध
के साथ-साथ बेहतर आर्थिक-व्यापारिक संबंधों की अपेक्षा रखता है, ताकि भारत को
घेरने और हिन्द महासागर में सामरिक प्रभाव-विस्तार की चीनी रणनीति की प्रभावी काट
प्रस्तुत की जा सके। इसके लिए बौद्धिज्म अनुकूल ऐतिहासिक-सांस्कृतिक वातावरण सृजित
करता है। साथ ही, वह यह भी अपेक्षा रखता है कि म्यांमार की सेना नागा-विद्रोहियों
के ख़़िलाफ़ प्रभावी कार्रवाई करते हुए उन पर अंकुश लगाने में उसके साथ सहयोग करे।
लेकिन, म्यांमार के सामरिक एवं सुरक्षा हितों के प्रति संवेदनशीलता प्रदर्शित किये
बिना ऐसा संभव नहीं है। इसके अतिरिक्त म्यांमार भारत की ऊर्जा-सुरक्षा में भी
महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। यही कारण है कि भारत म्यांमार की सेना को हथियार
और वित्तीय मदद भी मुहैया करा रहा है।
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें
भारत ने हाल के वर्षों में म्यांमार के साथ बेहतर सम्बन्ध विकसित करते हुए
म्यांमार, विशेष रूप से रखाइन क्षेत्र में अपने निवेश में तेज़ी लाई है। इस क्षेत्र में निहित इन्हीं संभावनाओं के दोहन के
लिए भारत ने सित्तवे बंदरगाह के आधुनिकीकरण की परियोजना अपने हाथों में ली और इसके
लिए संसाधन उपलब्ध करवाए। सित्तवे बंदरगाह के आधुनिकीकरण का यह काम 2017 में पूरा
हुआ। अब इस बंदरगाह की संभावनाओं के दोहन के लिए सड़क मार्ग से प्लेत्वा एवं
कोलकाता को जोड़ा जा रहा है। ऐसा माना जा रहा है कि कलादान मल्टी-मॉडल ट्रांसपोर्ट प्रोजेक्ट को
भारत में मोरेह(मिजोरम) को मांडले एवं यांगून होते हुए
थाईलैंड में मासोट से जोड़ने वाले भारत-म्यांमार-थाईलैंड त्रिपक्षीय हाईवे
प्रोजेक्ट से सम्बद्ध किया जाएगा। यह परियोजना रखाईन प्रान्त से होकर गुजरती है और
इसके जरिये चारों ओर जमीन से घिरे (Land Locked)
पूर्वोत्तर के
राज्यों के लिए नए व्यापारिक
नेटवर्क सृजित करने की कोशिश की जा रही है। यही कारण है कि चीन और भारत, दोनों ने ही रोहिंग्या-मुसलमानों के खिलाफ म्यांमार-शासन की
सैन्य-कार्रवाई का समर्थन किया है।
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर म्यांमार
का अलगाव चीन के लिए अवसर:
भारत की तरह ही चीन भी शान और कचेन्स समस्या से
प्रभावी तरीके से निपटने में म्यांमार की मदद करना चाहता है क्योंकि शान और कचेन्स
का चीन में काफ़ी प्रभाव है। भारत की तरह चीन ने भी
रखाइन प्रांत में हुए हिंसक हमले की कड़ी निंदा करते हुए रखाइन प्रान्त में शांति
और स्थिरता की बहाली की म्यांमार सरकार की कोशिशों का समर्थन किया। साथ ही, अंतरराष्ट्रीय समुदाय से म्यांमार के समर्थन की अपील की।
दरअसल म्यांमार में सक्रिय अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों में चीन अग्रणी है जिसने
1990 के दशक में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर म्यांमार के अलगाव का फायदा उठाते हुए म्यांमार
के करीब पहुँचने की कोशिश की। इसने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर म्यांमार पर बनाये जाने
वाले कूटनीतिक दबावों को प्रतिसंतुलित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी और इसके
एवज में म्यांमार के प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन के लिए वहाँ निवेश करने
की छूटें हासिल की। चाहे श्वे गैसफील्ड से गुआंगझाओ तक म्यांमारी तेल और गैस
पहुँचाने के लिए रखाइन प्रान्त की राजधानी सित्तवे से लेकर चीन के कुनमिंग प्रान्त
तक चीन की नेशनल पेट्रोलियम कंपनी के द्वारा निर्मित गैस पाइपलाइन के निर्माण का मसला हो, या फिर
मध्य-पूर्व के तेल को क्यौक्फ्यू बंदरगाह से चीन तक पहुँचाने के लिए इसके समानांतर
पाइपलाइन के निर्माण का मसला, म्यांमार के सरकार ने स्थानीय समुदाय पर इसके
प्रतिकूल प्रभाव सहित इसके व्यापक सामाजिक-पर्यावरणीय प्रभावों के आकलन की सलाह को
ठुकराते हुए इन परियोजनाओं को अनुमति प्रदान की। बिना समुचित एवं पर्याप्त मुआवजे
के और पुनर्वास एवं पुनर्स्थापन की व्यवस्था किये जबरन भूमि-अधिग्रहण, पर्यावरणीय
क्षरण तथा स्थानीय लोगों के बजाय बाहरी लोगों को सृजित रोजगार-अवसरों के सृजन के
लाभ ने स्थानीय स्तर पर तनाव को बढ़ावा दिया। उत्तरी म्यांमार के शान
प्रान्त में भी चीनी कम्पनियों ने वहाँ के वनों की लकड़ियों, नदियों और खनिजों का
जमकर दोहन किया जिसके प्रति स्थानीय स्तर पर व्यापक प्रतिक्रिया हुई और इस
प्रतिक्रिया ने पूर्वी काचिन प्रान्त एवं उत्तरी शान प्रान्त में सैन्य-तंत्र एवं
स्थानीय जनजातीय समूह के बीच सशस्त्र एवं हिंसक संघर्ष की परिस्थितियाँ निर्मित
की। आज संघर्ष की इन
परिस्थितियों के कारण रखाइन क्षेत्र सहित पूरे म्यांमार में चीन के द्वारा भारी
मात्रा में किया गया विदेशी निवेश दाँव पर लगा हुआ है।
रोहिंग्या-समस्या
पर भारत का रुख और बंगलादेश:
अगस्त-सितम्बर,2017 में जब रोहिंग्या
मुसलमानों के दमन-उत्पीड़न का नया चरण शुरू हुआ, तब आरम्भ में बांग्लादेश ने
रोहिंग्या शरणार्थियों के मसले पर कड़ा रूख अपनाते हुए बॉर्डर गार्ड बांग्लादेश को
यह निर्देश दिया कि उन्हें हर हालत में बांग्लादेश की सीमा में प्रवेश न करने दिया
जाय और वापस भेजा जाय। लेकिन, बांग्लादेश के इस निर्णय के कारण नैफ नदी को क्रॉस
करने की कोशिश में सैंकड़ों रोहिंग्याओं की मौत ने बांग्लादेश में जन-असंतोष को
जन्म दिया और अंततः बंगलादेशी सरकार को अपने दरवाज़े रोहिंग्या शरणार्थियों के लिए
खोलने पड़े।
शिन एवं रखाइन प्रान्त में 271 किलोमीटर तक बंगलादेश की सीमा म्यांमार
से लगती है और रोहिंग्या शरणार्थी न केवल ऐतिहासिक-धार्मिक कारणों से
बांग्लादेशियों के साथ नृजातीय-सांस्कृतिक जुड़ाव महसूस करते हैं, वरन् भौगोलिक
दृष्टि से किसी अन्य पड़ोसी देश की तुलना बंगलादेश पहुँचना उनके लिए आसान भी है। इस
पृष्ठभूमि में रोहिंग्या शरणार्थियों का बांग्लादेश की ओर बढ़ता
हुआ रुझान और बांग्लादेश के राजनीतिक एवं सामरिक-सुरक्षा परिदृश्य पर इसके संभावित
असर ने पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत के लिए मुश्किलें खड़ी की हैं।
विशेष रूप से सितम्बर,2017 से स्थिति काफी तेजी से बिगड़ी है। 1990 के दशक के
आरंभिक दौर के बाद बंगलादेश पहली बार रोहिंग्या शरणार्थियों का ऐसा दबाव महसूस कर
रहा है। एक आकलन के मुताबिक इन शरणार्थियों के लिए बेसिक सुविधाये उपलब्ध कराने
में बंगलादेश को तकरीबन एक बिलियन अमेरिकी डॉलर की वार्षिक खर्च आयेगी। अगर दोनों पक्ष रोहिंग्याओं के प्रत्यार्पण के लिए राजी
भी हो गए, तो तीन लाख रोहिंग्याओं की सुरक्षित वापसी की औपचारिकताओं को पूरा करने
में में वर्षों लग जायेंगे। इसकी पृष्ठभूमि
में इस समस्या पर भारत के द्वारा अपनाये गए रूख और उसके द्वारा अंतर्राष्ट्रीय
स्तर पर अलग-थलग पड़े म्यांमार का खुलकर समर्थन बांग्लादेशी जनता में भारत के प्रति
असंतोष को जन्म देते हुए शेख हसीना की सरकार के लिए घरेलू एवं कूटनीतिक मोर्चों पर
और ज्यादा मुश्किलें खड़ी कर रहा है। ऐसा
माना जा रहा है कि बांग्लादेश में 2018 में प्रस्तावित नेशनल असेंबली के चुनाव में
बेगम खालिदा जिया के नेतृत्व वाला विपक्ष इसको भुनाने की हरसंभव कोशिश करेगा।
अब अगर देखें, तो म्यांमार के साथ-साथ बांग्लादेश भी
भारत के लिए सामरिक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण सहयोगी राष्ट्र है।
जिस तरह अशांत उत्तर-पूर्व में उग्रवाद की चुनौतियों से निपटने और उस पर प्रभावी
अंकुश लगाने के लिए भारत को म्यांमार की ज़रुरत है, उसी प्रकार बांग्लादेश की
ज़रुरत। म्यांमार की ही तरह बांग्लादेश ने भी अबतक उत्तर-पूर्व के उग्रवाद पर अंकुश
लगाने में भारत के सहयोगी के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। इसके अतिरिक्त
दोनों की भू-सामरिक अवस्थिति कनेक्टिविटी और एक्ट ईस्ट नीति के सन्दर्भ में भारत
के लिए दोनों को महत्वपूर्ण बना देती है। उत्तर-पूर्व और हिंद महासागर के सन्दर्भ
में म्यांमार की तरह बांग्लादेश के भी सामरिक निहितार्थ हैं और दोनों देशों में
भारत को चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकने की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। इसीलिए
रोहिंग्या के मसले पर भारत खुद को विचित्र दुविधा की स्थिति में पा रहा है और
कूटनीतिक स्तर पर भी इस दबाव को महसूस कर रहा है। शायद यही कारण है कि सितम्बर,2017
के आरम्भ में जारी साझा बयान में रोहिंग्याओं के दमन-उत्पीड़न के प्रश्न पर चुप्पी
साधने वाले भारत ने महज कुछ ही दिनों के भीतर नए बयान जारी करते हुए गहराते हुए
शरणार्थी संकट पर दुःख प्रकट किया और संयम एवं परिपक्वता प्रदर्शित करने की अपील
करते हुए असैन्य नागरिकों के कल्याण को प्राथमिकता दिए जाने की आवश्यकता पर बल
दिया।
बांग्लादेशी नागरिक भारत के इस रूख से खुद को
छला हुआ महसूस कर रहे हैं क्योंकि उत्तर-पूर्व के
उग्रवाद और भारतीय सामरिक चिंताओं से निपटने में बांग्लादेश
ने भारत को हरसंभव सहयोग दिया, लेकिन रोहिंग्याओं के मसले पर
बांग्लादेश की सुरक्षा एवं
मानवीय चिंताओं से बेखबर भारत म्यांमार में अपने सामरिक हितों को साधने के लिए
म्यांमार की सरकार के साथ खड़ा है। भारत ही नहीं, चीन ने भी म्यांमार की ओर झुकाव
प्रदर्शित करते हुए बांग्लादेश को निराश किया
है। यद्यपि चीन ने आरम्भ में बांग्लादेश और
म्यांमार के बीच इस मसले पर मध्यस्थता की पेशकश की थी, तथापि मार्च,2017 और फिर
सितम्बर,2017 में सुरक्षा परिषद् में रूस के साथ मिलकर अपने वीटो के जरिये
म्यांमार के प्रति अपनी पक्षधरता प्रदर्शित की। आज के परिप्रेक्ष्य में भारत को यह
भी समझना होगा कि वह चीन का स्थान नहीं ले सकता है, जिसने सुरक्षा परिषद् में अपने
वीटो के जरिये लगातार म्यांमार को समर्थन दिया है और म्यांमार को आज उसके वीटो के
समर्थन की जरूरत कहीं ज्यादा है। बांग्लादेश को
दुःख इस बात का है कि भारत हो या चीन, दोनों ने अपने सामरिक हितों को लोकतांत्रिक
एवं मानवीय मूल्यों पर तरजीह दी है।
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें संयुक्त
राष्ट्र, पश्चिमी देश और आसियान के इस्लामिक देशों के साथ-साथ आर्गेनाईजेशन
ऑफ़ इस्लामिक स्टेट्स(OIC) की ओर बंगलादेश के बढ़ते हुए रुझान को देखा जा सकता है।
म्यांमार के साथ द्विपक्षीय चैनल के जरिये इस समस्या के समाधान तक पहुँचने में
विफलता और भारत-चीन जैसे निकटस्थ पड़ोसी के असहयोगात्मक रवैये के कारण बांग्लादेश के
पास इसके अलावा अन्य कोई विकल्प शेष भी नहीं रह गया था। इस प्रकार पिछले कुछ दिनों
से बंगलादेश को रोहिंग्या-मसले के अंतर्राष्ट्रीयकरण की दिशा में पहल करते सहज ही
देखा जा सकता है। बंगलादेश म्यांमार के भीतर
ही सुरक्षित जोन के सृजन को इस समस्या के समाधान के विकल्प के रूप में देख रहा है।
बांग्लादेश
का पाँच सूत्री फार्मूला:
बांग्लादेश की
प्रधानमंत्री शेख हसीना ने संयुक्त राष्ट्र के समक्ष रोहिंग्या-समस्या के स्थाई
समाधान के लिए पाँच सूत्री फ़ॉर्मूला प्रस्तुत किया जिसके अंतर्गत निम्न बिदुओं पर
जोर दिया गया:
1.
म्यांमार जातीय सफाये के अभियान और इसके
तहत् होने वाली हिंसा को हमेशा के लिए बिना शर्त और अविलम्ब रोके।
2.
धर्म और नृजातीयता से परे हटकर म्यांमार में सभी असैन्य
नागरिकों की सुरक्षा को सुनिश्चित करने म्यांमार के भीतर ही सुरक्षित जोन सृजित
किये जायें।
3.
इसके मद्देनज़र संयुक्त राष्ट्र महासचिव के द्वारा फैक्ट
फाइंडिंग मिशन म्यांमार भेजा जाए और संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में सभी असैन्य
नागरिकों के लिए सुरक्षित जोन सृजित किये जा सकें।
4.
बलपूर्वक विस्थापित रोहिंग्या शरणार्थियों की सुरक्षित म्यांमार-वापसी
सुनिश्चित की जाए।
5.
कोफ़ी अन्नान समिति की रिपोर्ट अविलम्ब एवं बिना शर्त समग्रता
में लागू किया जाय।
रोहिंग्या
मानवीय संकट के समाधान के लिए संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् ने इस प्रस्ताव
को विचारार्थ स्वीकार किया है, लेकिन रूस एवं चीन के रूख को देखते हुए इसमें संदेह
है कि कोई सार्थक प्रगति हो पायेगी। ध्यातव्य है कि रूस इसे म्यांमार का आतंरिक
मामला बतलाकर पल्ला झार ले रहा है और चीन अपने सामरिक एवं कारोबारी हितों के कारण
दृढ़ता पूर्वक म्यांमार के पक्ष में खड़ा है।
पार्ट सिक्स: रोहिंग्या समस्या:
अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का रूख
2012 के बाद से इस समस्या ने अंतर्राष्ट्रीय
समुदाय का ध्यान लगातार अपनी ओर आकृष्ट किया है क्योंकि इस दौरान रोहिंग्याओं के
दमन-उत्पीड़न एवं उनके मानवाधिकारों के उल्लंघन की प्रक्रिया तेज़ होती चली गयी
जिसने पड़ोसी देशों की ओर रोहिंग्याओं के पलायन को जन्म दिया। साथ ही,
म्यांमार सरकार के द्वारा इस्लामिक उग्रवादियों और विशेष रूप से इस्लामिक स्टेट्स
के साथ इनके सम्बन्ध के सन्दर्भ में प्रदर्शित आशंका ने भी अंतर्राष्ट्रीय समुदाय
का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया। यह दक्षिण एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया के लिए
सुरक्षा-चुनौतियाँ उत्पन्न कर रहा है। इसके कारण पड़ोसी देशों में भी रोहिंग्या
शरणार्थियों की मुश्किलें बढ़ी हैं और उन्हें शंका एवं संदेह भरी नज़रों से देखा जा
रहा है। यही कारण है कि आसियान देश इस समस्या के घरेलू समाधान पर बल दे रहे हैं।
संयुक्त राष्ट्र और रोहिंग्या समस्या:
UN रिपोर्ट इस बात का
संकेत देता है कि लगभग 30,000 रोहिंग्या मुसलमान अराकान की पहाड़ियों में फँसे हुए
हैं जहाँ भोजन और पानी तक उनकी पहुँच नहीं है। UN के अनुमान के मुताबिक शरणार्थियों के लिए आपातकालीन
खाद्य-आपूर्ति हेतु वित्तीयन गंभीर समस्या के रूप में उभरकर सामने आयी है। साथ ही, इनसे रोहिंग्याओं के
दमन-उत्पीड़न, आगजनी, नरसंहार और बलात्कार की सूचनाएँ मिल रही हैं। इसके कारण चटगाँव के पहाड़ी इलाकों में रहने वाले
स्थानीय जुम्मा समुदाय के लोग, जो पिछले तीन दशक से स्वायत्तता के लिए संघर्ष कर
रहे हैं, अपने बौद्ध विश्वास के कारण डरे-सहमे हुए हैं। 2012 के रामू हमले की स्मृतियाँ इनके स्मृति-पटल से ओझल नहीं हो
पायी हैं। आसियान के महासचिव ने भी रखाईन स्टेट में हिंसा के इस निरंतर
क्रम पर अंकुश लगाने और इस समस्या के समाधान के लिए म्यांमार सरकार, संयुक्त
राष्ट्र संघ और आसियान के बीच मध्यस्थता का प्रस्ताव रखा, लेकिन म्यांमार की सरकार
ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। इस पृष्ठभूमि में UN अपने ओर से
हरसंभव मानवीय सहायता उपलब्ध करने की कोशिश में लगा है। बांग्लादेश-प्रशासन की अगुवाई में बनाई गई
प्रतिक्रिया-योजना के तहत संयुक्त राष्ट्र की शरणार्थी एजेंसी ‘UNHCR’
और विश्व खाद्य कार्यक्रम(WFP) के द्वारा शरणार्थियों के लिए खाद्य-सहायता
उपलब्ध कराई जा रही है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन(WHO) के द्वारा
स्वास्थ्य-सुविधा।
पिछले कुछ वर्षों से संयुक्त राष्ट्र
मानवाधिकार परिषद् म्यांमार में नृजातीय-धार्मिक अल्पसंख्यकों पर होनेवाले
अत्याचार के मसले को लगातार उठाता रहा है, लेकिन म्यांमार के द्वारा पिछले कुछ
वर्षों के दौरान राजनीतिक एवं आर्थिक सुधार की प्रक्रिया को आगे बढाते हुए
लोकतंत्रीकरण की आड़ में नृजातीय एवं धार्मिक अल्पसंख्यकों के दमन-उत्पीड़न को ढँकने
की कोशिश की गयी और कहीं-न-कहीं इसके कारण रोहिंग्याओं के मानवाधिकारों के उल्लंघन
को लेकर संयुक्त राष्ट्र और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की आलोचना का स्वर मद्धिम होता
जा रहा है जो चिंता का विषय है। लेकिन, हाल के घटनाक्रमों ने संयुक्त राष्ट्र और
अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय को कठोर रूख अपनाने के लिए विवश किया। UN ने इस मसले पर आपात-सत्र बुलाया, लेकिन चीन ने यह स्पष्ट
कर दिया कि वह इस मसले पर किसी भी प्रस्ताव को वीटो करेगा। सू की ने भी
रोहिंग्यों के दमन एवं उत्पीडन की बात को यह कहते हुए ख़ारिज कर दिया कि ये मनगढ़ंत
बातें सांप्रदायिक तनाव एवं हिंसा फ़ैलाने और आतंकी हितों के प्रोत्साहन के
उद्देश्य से फैलाई जा रही हैं।
संयुक्त
राष्ट्र प्रस्ताव पर भारत का रूख:
वैश्विक महाशक्तियाँ भी रोहिंग्या शरणार्थी
समस्या पर बँटती नजर आ रही हैं। एक ओर संयुक्त राष्ट्र(UNO) म्यांमार सरकार को
समस्या को गंभीरता से न लेने का दोषी मान रहा है, दूसरी ओर म्यांमार के पक्ष में
खुलकर सामने आ चुके भारत और चीन सेना की
कार्रवाई को जायज ठहरा रहे हैं। भारत ने अंतर्राष्ट्रीय
समुदाय की इस माँग के प्रति सकारात्मक प्रतिक्रिया देने से भी परहेज किया है। अबतक
भारत ने म्यांमार के मसले पर संयुक्त राष्ट्र के किसी भी प्रस्ताव से दूरी बनाये
रखी है।
उसका मानना है कि
UNCHR के द्वारा किसी देश विशेष के विरुद्ध प्रस्ताव काउंटर-प्रोडक्टिव साबित हो
सकता है। इस सैद्धांतिक रूख से इअतर हटकर भी देखें, तो
यह सच है कि म्यांमार के लिए रोहिंग्या-मसले की संवेदनशीलता के मद्देनज़र भारत ने
अंतर्राष्ट्रीय प्लेटफॉर्म पर न केवल रोहिंग्याओं के पक्ष में कुछ भी बोलने से
परहेज़ किया है, वरन् म्यांमार का खुलकर समर्थन करते हुए कहा कि इस मसले की
संवेदनशीलता और गंभीरता को समझते हुए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय म्यांमार को और अधिक
समय दे। उसने रोहिंग्या
मसले पर म्यांमार के रूख का समर्थन करते हुए कहा कि म्यांमार की सरकार
परिस्थितियों की विपरीतताओं के बावजूद रखाइन प्रदेश में जो सकारात्मक पहलें कर रही
हैं, उसे अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के द्वारा सही तरीके से उसे नोटिस में नहीं लिया
गया और न ही म्यांमार की सरकार की आलोचना करते वक़्त उन चुनौतियों को ध्यान में रखा
गया है जिनका सामना म्यांमार की सरकार को करना पड़ रहा है। एमनेस्टी इंटरनेशनल ने
भारत के रूख को निराश करने वाला बताते हुए कहा कि जहाँ भारत ने म्यांमार के समक्ष
मौजूद चुनौतियों की ठीक-ठीक पहचान की है, वहीं उसने अक्टूबर,2016 से रखाइन प्रदेश
में सेना के द्वारा रोहिंग्याओं के सफाये के लिए चलाये जा रहे अभियान और मानवाधिकारों
के उल्लंघन की अनदेखी की है।
समस्या की क्षेत्रीय
प्रकृति और इसका समाधान:
म्यांमार की सरकार रोहिंग्या मुसलमानों की
समस्या का हल निकालने को तैयार नहीं है, जबकि पड़ोसी देशों की ओर रोहिंग्याओं के
पलायन की पृष्ठभूमि में यह समस्या क्षेत्रीय समस्या का रूप ले चुकी है। रोहिंग्या
मुसलमान म्यांमार में होने वाली हिंसा के बाद जमीन के रास्ते भाग कर भारत, थाईलैंड और बांग्लादेश पहुँचे, जबकि समुद्री रास्ते का
इस्तेमाल कर उन्होंने इंडोनेशिया, मलेशिया और आस्ट्रेलिया
में शरण ली। इसका सीधा असर भारत, बांग्लादेश, चीन, थाईलैंड, इंडोनेशिया जैसे
देशों पर पड़ा है। इसने धार्मिक विविधता के मद्देनज़र दक्षिण एशिया और
दक्षिण-पूर्व एशिया के इन देशों में भी धार्मिक-सांप्रदायिक टकराव के उस खतरे को
जन्म दिया है जिसकी आग में म्यांमार पहले से ही झुलस रहा है। मलेशिया, बांग्लादेश और
इंडोनेशिया में बौद्धों पर हुए हमले, जकार्ता में बौद्ध केंद्र को बम से उदय जाना
और इंडोनेशिया स्थित म्यांमार के दूतावास में बम प्लांट करने की कोशिश इसी दिशा
में संकेत करती है। इसकी पुष्टि सितम्बर, पुश्हती सितम्बर,2017
में कोलम्बो(श्रीलंका) में घटी उस घटना से भी होती है जिसमें बौद्ध-भिक्षुओं और कट्टर सिंहली
राष्ट्रवादियों के एक समूह ने 31
रोहिंग्या-शरणार्थियों को श्रीलंका में शरण दिए जाने के विरोध में उनपर हमला कर दिया।
इसीलिए
रोहिंग्या-समस्या के क्षेत्रीय निहितार्थों को समझते हुए म्यांमार के भारत सहित दक्षिण एवं दक्षिण-पूर्व एशियाई पड़ोसी देशों को यह
समझना होगा कि रोहिंग्या शरणार्थियों को अपनी सीमा में प्रवेश न करने देना, या फिर
उन्हें जबरन वापस भेजना समस्या का हल नहीं है और न ही रोहिंग्या-समस्या केवल
म्यांमार की समस्या है। यह एक क्षेत्रीय समस्या है और इसलिए इसका क्षेत्रीय
समाधान तलाशा जाना चाहिए, अन्यथा यह इस क्षेत्र को तनाव एवं अस्थिरता की ओर ले
जायेगा। विशेष रूप से इस मसले पर भारत और बांग्लादेश को एक दूसरे के साथ बेहतर
संवाद स्थापित करते हुए किसी सार्थक समाधान तक पहुँचने के लिए म्यांमार को राजी
करना चाहिए और म्यांमार की वर्तमान सरकार को यह समझाना चाहिए कि आसियान देशों के
साथ सहयोग इस समस्या के समाधान तक पहुँचाने में मददगार होगा। इस सन्दर्भ में आसियन
रीजनल फोरम और बिम्सटेक जैसे क्षेत्रीय संगठनों का प्रभावी इस्तेमाल म्यांमार की
वर्तमान सरकार को भारत एवं थाईलैंड जैसे देशों से सहयोग लेने और उनके अनुभवों से
लाभ उठाने के लिए राजी करने के लिए किया जा सकता है क्योंकि इन दोनों देशों ने
लम्बे समय तक स्थानीय उपद्रव और आतंकवाद की चुनौतियों का सामना किया है। लेकिन,
इसके लिए आसियान को सदस्य-देशों के आतंरिक मामलों में अहस्तक्षेप की नीति छोड़नी
होगी। स्पष्ट है कि इस समस्या के समाधान के लिए
द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय चैनलों के माध्यम से प्रयास करने होंगे और ऐसे समाधान की
संभावनाओं की तलाश करनी होगी जो सभी पक्षों के लिए स्वीकार्य हो।