आम बजट में रेल बजट का विलय
रेल बजट को सामान्य बजट से अलग पेश करने की पिछले 92 वर्षों से चली आ रही परिपाटी 2017 में समाप्त हो गई, लेकिन सरकार ने यह स्पष्ट किया है कि आम बजट में रेल बजट के विलय के बावजूद रेलवे की अलग पहचान और कामकाजी स्वायत्तता बनी रहेगी। इसके संकेत जून,2016 में ही मिलने लगे थे। अगस्त,2016 में बाकायदा इसकी घोषणा कर दी गई थी। ध्यातव्य है कि 2015 में रेलवे के पुनर्गठन के प्रश्न पर विचार के लिए गठित विवेक देबराय पैनल ने भी इस दिशा में पहल का सुझाव दिया था। यहाँ पर यह प्रश्न सहज ही उठता है कि आख़िर 1924 में रेल बजट को आम बजट से अलगाया क्यों किया गया था और आज इसे इस बार फिर आम बजट के साथ मिलाया क्यों जा रहा है?
आम बजट से अलगाने का आधार:
एकवर्थ समिति,1920 की सिफ़ारिशों के आलोक में आम बजट से पृथक रेल बजट पेश करने की व्यवस्था 1924 में शुरू की गई थी। सर विलियम एकवर्थ ने रेलवे के लिए एकीकृत प्रबंधन की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा कि रेलवे के आंतरिक संसाधनों एवं वित्त पर वित्त मंत्रालय का नियंत्रण समाप्त हो और रेलवे को अपना बजट ख़ुद पेश करने की अनुमति दी जाय। इसका कारण यह था कि रेलवे के राजस्व ने सामान्य राजस्व को पीछे छोड़ दिया और इसीलिए रेल बजट का आकार आम बजट से कहीं अधिक बड़ा था। ऐसी स्थिति में दोनों का साथ-साथ होना आम बजट की अहमियत को पृष्ठभूमि में धकेल देता। अपने बड़े आकार के कारण रेल बजट आम बजट में किसी भी छोटे, किन्तु महत्वपूर्ण विचलन को ढक लेने में समर्थ था।
आज़ादी के समय भी कुछ ऐसी ही स्थिति थी जब रेल-राजस्व का आकार सामान्य राजस्व से 6% अधिक था। इसीलिए रेलवे कन्वेंशन समिति के प्रमुख सर गोपालस्वामी आय्यंगर ने इस परिपाटी को आज़ादी के बाद भी जारी रखने की अनुशंसा की।
बदला हुआ परिदृश्य:
आज का परिदृश्य बदल चुका है। पहली बात, आज रेलवे परिवहन का सर्वप्रमुख साधन नहीं रह गया है। परिवहन के प्रमुख साधन के रूप में सड़क ने रेलवे को प्रतिस्थापित कर दिया है। साथ ही, आज घरेलू विमानन कारोबार से प्राप्त राजस्व रेल-परिवहन से प्राप्त राजस्व से अधिक है। दूसरा, 1979 के दशक में रेल-राजस्व का आकार आम राजस्व के आकार का महज़ 30% रह गया है। 2016-17 में रेल बजट का आकार आम बजट का 6% रह गया है। इतना ही नहीं, रेलवे बदले हुए समय की बदली हुई चुनौतियों के अनुरूप अपने आपको नहीं ढाल पा रही है और इसीलिए इन चुनौतियों का सामना कर पाने में असमर्थ है। इसका कारण बहुत हद तक रेलवे की क्रिया-प्रणाली है और कुछ हद तक संसाधनों का अभाव।
इस दौरान रेलवे के साथ समस्या यह भी रही कि उसने स्वयं को शहरी-परिवहन(मेट्रो) सहित प्रचालन-संबंधी गतिविधियों पर फ़ोकस करने के बजाय उससे परहेज़ करते हुए शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा एवं विनिर्माण जैसी अन्य द्वितीयक गतिविधियों को प्राथमिकता दी। शायद यही कारण है कि रेलवे समय रहते सड़क-परिवहन और विमानन क्षेत्र की ओर से मिल रही नवीन चुनौतियों का सामना नहीं कर पा रही है। रेलवे की क्रॉस-सब्सिडी वाली व्यवस्था, जिसके तहत् माल-भाड़े की क़ीमत पर यात्री-किराए को सब्सिडाइज्ड किया गया जिसने न केवल माल-ढुलाई में किराए एवं डोर-स्टैप डिलीवरी(Doorstep Delivery) के संदर्भ में सड़क परिवहन की ओर से मिल रही चुनौती का सामना करने में रेलवे को असमर्थ बनाया, वरन् संसाधनों की उपलब्धता को प्रभावित करते हुए रेलवे के क्षमता-विस्तार को भी प्रतिकूलत: प्रभावित किया। परिणामत: परिवहन-कारोबार में रेलवे की हिस्सेदारी निरन्तर घटती चली गई। इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि माल ढुलाई से प्राप्त होने वाले राजस्व में रेलवे की कुल हिस्सेदारी 1950-51 के 89% से घटकर 2014-15 में 30% रह गई है और इसके सापेक्ष 2011-12 में सड़क-परिवहन की हिस्सेदारी 65% के स्तर पर पहुँच गई है। इतना ही नहीं, रेलवे को कुछ नई चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा। 1990 के दशक में पेट्रोलियम उत्पादों के परिवहन में रेलवे की हिस्सेदारी 75% के स्तर पर थी, जो पाइपलाइन के ज़रिए सस्ते परिवहन-विकल्पों को अपनाने के कारण 10% के स्तर पर पहुँच चुकी है। रेलवे समय रहते इस चुनौती का भी सामना कर पाने में असफल रही, जबकि रेलवे के लिए यह स्रवाधिक लाभ का कारोबार था। स्पष्ट है कि रेल बजट-आम बजट के संदर्भ में न तो आज वह समस्या नहीं रह गई है जो समस्या आज़ादी के पहले एवं आज़ादी के बाद के कुछ वर्षों के दौरान थी, और न ही आज परिवहन सेक्टर की रेलवे पर वैसी निर्भरता नहीं रह गई है, जैसी उस समय थी।
विलय के प्रश्न पर विचार शुरू:
ऐसा माना जा रहा है कि रेलवे की वित्तीय हालत ने इस विलय की पृष्ठभूमि तैयार की है। वर्तमान में रेलवे के कुल ख़र्च का 50% वेतन एवं पेंशन मद में जाता है, रेलवे की कुल आय का महज़ 25% यात्री किराया के ज़रिए प्राप्त होता है और परिचालन लागत उच्च स्तर पर है। ऐसी स्थिति में रेलवे के लिए तकनीकी उन्नयन एवं आधुनिकीकरण या नई परिसम्पत्तियों एवं रेल-सुरक्षा मद के मद में निवेश कर पाना मुंश्किल है। रेलवे-सुधारों के प्रश्न गठित समितियों ने पृथक रेल बजट के औचित्य पर प्रश्न उठाते हुए आम बजट में इसके विलय पर ज़ोर दिया। 2015 में विवेक देबरॉय समिति ने विलय के पक्ष में तर्क देते हुए कहा कि ऐसा करने से रेल-बजट का बेजा राजनीतिक इस्तेमाल तो बंद होगा ही, रेल-सुधार के कदम उठाने में भी सहूलियत होगी। समिति का मानना था कि अलग से रेल बजट पेश करना केवल रस्मी है क्योंकि आम बजट के मुकाबले इसका आकार बहुत छोटा है। समिति ने सुझाव दिया था कि रेल-बजट सरकार के बजट के राजकोषीय अनुशासन और विकासात्मक रुख का हिस्सा होना चाहिए। इससे पहले कि समिति के सुझावों के अनुरूप विलय की दिशा में पहल की जाती, बदलाव के संकेत मिलने लगे। 2016-17 में बजटीय प्रस्तावों से इतर हटकर कोयला-ढुलाई के भाड़े में बदलाव या फिर प्रीमियम पैसेंजर ट्रेन में हवाई जहाज़ की तर्ज़ पर टिकटों की परिवर्तनीय किराये (Flexible Pricing) की दिशा में की गई पहल से इसी बात के संकेत मिलते हैं।
विलय के तर्काधार:
1. गठबंधन सरकारों के दौर में पृथक रेल बजट रेल-मंत्री के लिए अपने क्षेत्र और गठबंधन सहयोगियों को उपकृत करने के राजनीतिक साधन में तब्दील हो गया, संदर्भ चाहे नये मार्गों पर रेल-लाइन बिछाने का हो, या नयी ट्रेनों के परिचालन की घोषणा का, या फिर रेलवे के द्वारा नयी फैक्ट्रियाँ लगाने का; सर्वत्र रेल-मंत्री ने रेलवे की ज़रूरत, इसकी वित्तीय स्थिति और इसके स्वास्थ्य की धड़ल्ले से उपेक्षा करते हुए अपनी राजनीति चमकाने के लिए अपने गृह-राज्य, अपने संसदीय क्षेत्र और अपने गठबंधन सहयोगियों का विशेष ख़्याल रखा। परिणामत: रेलवे की स्थिति बिगड़ती चली गई। दूसरी तरफ, अन्य क्षेत्रों और अन्य परियोनाओं के लिए संसाधनों की उपलब्धता प्रभावित हुई जिसका प्रतिकूल असर रेलवे के क्षमता-विस्तार और इसकी प्रतिस्पर्द्धात्मकता पर पड़ा। विलय रेलवे के राजनीतिकरण की संभावनाओं को सीमित करेगा, ऐसी सम्भावना है।
2. जब कृषि और उद्योग जैसे अर्थव्यवस्था के अन्य बड़े क्षेत्रों के लिए अलग से बजट नहीं आता, और जब रक्षा बजट, रेल बजट से बड़ा होते हुए भी आम बजट के हिस्से के तौर पर आता है, तो रेल बजट को अलग से लाने की परिपाटी बनाए रखने का कोई औचित्य नहीं था।
3. जिस समय आम बजट से पृथक रेलवे बजट की कल्पना की गई थी, उस समय परिवहन-तंत्र प्रमुखत: रेलवे पर निर्भर था और रेल बजट का आकार आम बजट से ज्यादा बड़ा था। इसीलिए रेलवे के विकास के लिए विशिष्ट रणनीति की ज़रूरत थी। आज का परिवहन-तंत्र कहीं अधिक विविधीकृत है और यदि इसे भविष्य की चुनौतियों से निबटना है, तो इसके लिए समेकित परिवहन-रणनीति की ज़रूरत है जिसका निर्धारण रेल, सड़क, वायु एवं जल-परिवहन; इन चारों को ध्यान में रखते हुए अंतिम रूप दिया जाना चाहिए। यह तभी संभव है जब रेलवे भी आम बजट का हिस्सा बने।
4. इस विलय से अब रेलवे को हर साल वार्षिक लाभांश के रूप में वह राशि नहीं देनी पड़ेगी जो सरकार से प्रति वर्ष मिलने वाले बजटीय समर्थन के बदले देना पड़ता है। इससे रेलवे को 10,000 करोड़. रूपए की सालाना बचत होगी।
5. यह रेलवे-सुधारों के मार्ग को प्रशस्त करेगा और इसके परिणामस्वरूप रेलवे के लिए अपनी प्राथमिक गतिविधियों पर फ़ोकस कर पाना संभव हो सकेगा।
6. यह विलय रेलवे को संसाधनों को जुटा पाने में सक्षम बनाएगा क्योंकि राजनीतिक के बजाय व्यावसायिक आधार पर रेलवे का संचालन इसकी लाभप्रदता की संभावनाओं को बल प्रदान करेगा और यह रेलवे में निवेश के लिए निवेशकों को प्रोत्साहित करेगा। फलत: रेलवे के लिए पूँजीगत ख़र्चों को बढ़ा पाना संभव हो सकेगा जो अंतत: रेलवे के क्षमता-विस्तार में सहायक साबित होगा। इससे कनेक्टिविटी के स्तर में सुधार होगा और देश की आर्थिक संवृद्धि को गति मिलेगी।
विश्लेषण:
स्पष्ट है कि पृथक रेल बजट की समाप्ति और सामान्य बजट में इसका विलय रेलवे के राजनीतिक इस्तेमाल पर अंकुश लगाएगा। रेल मंत्रालय की स्थिति भी दूसरे मंत्रालयों जैसी होगी और शायद रेलमंत्री का भी राजनीतिक कद पहले जैसा नहीं होगा। अब रेलवे से जुड़े प्रस्ताव आम बजट के हिस्से होंगे और रेलवे के आय-व्यय के ब्योरे को संसद में वित्त मंत्रालय पेश करेगा। सरकार सुनिश्चित करेगी कि रेलवे खर्च पर हर साल अलग से चर्चा हो, ताकि विस्तृत संसदीय समीक्षा और जवाबदेही बनी रहे। सरकार ने यह भी स्पष्ट किया कि इससे रेलवे की प्रक्रियात्मक स्वायत्ता (Functional Autonomy) पर किसी असर की संभावना नहीं है। इतना ही नहीं, अब यात्री-किराया और माल-भाड़ा बढ़ाने के लिए सरकार को रेल बजट का इंतजार करने और संसद की सहमति लेने की जरूरत नहीं रहेगी। देबरॉय समिति ने अपनी सिफारिश में स्पष्टत: कहा है कि रेलवे अधिनियम, 1989 के तहत इस तरह के फैसले प्रशासनिक कार्रवाई की तरह भी किए जा सकते हैं।
जब रेलवे बजट का आम बजट में विलय किया जा रहा था, उस समय कहा गया था कि अब रेलवे को पहले की तरह हर साल लाभांश देने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी, लेकिन ऐसा लगता है कि सरकार रेलवे से मिलने वाले लाभांश पर अपना दावा छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। सरकार की नज़र रेलवे के उन 14 सार्वजनिक उपक्रमों से प्राप्त होने वाले राजस्व पर है जो अबतक रेलवे के माध्यम से वित्त मंत्रालय को प्राप्त होता रहा है। आर्थिक मामलों के सचिव शक्तिकांत दास ने कहा कि चूँकि रेलवे वेतन एवं पेंशन समेत अपना व्यय अपनी आय से पूरा करता है, इसीलिए बजट को आम बजट में मिलाने से कोई बदलाव नहीं होगा। उन्होंने कहा कि रेलवे का राजस्व अब भारत की संचित निधि में आएगा और व्यय को इस कोष से पूरा किया जाएगा। इसलिए यह आम बजट के वित्त को प्रभावित नहीं करेगा। चूँकि रेलवे का कर्ज सरकार का कर्ज है, इसलिए विलय से सरकार का कर्ज भी नहीं बढ़ेगा। इतना ही नहीं, संसाधनों के लिए रेलवे की भारतीय रेलवे वित्त निगम(IRFC) पर निर्भरता समाप्त होगी और यह बाहरी स्रोतों के साथ-साथ आंतरिक स्रोतों से संसाधनों को जुटा पाने में कहीं अधिक समर्थ होगा क्योंकि समय के साथ बेहतर रिटर्न की संभावना वाली परियोजनायें निवेश को आकर्षित करने में समर्थ होंगी।
लेकिन, यहाँ पर इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि विलय रेलवे-सुधारों का एक पहलू है, एकमात्र पहलू नहीं और सर्वप्रमुख पहलू नहीं। साथ ही इसकी अपनी जटिलतायें हैं। इसलिए महत्वपूर्ण विलय नहीं, महत्वपूर्ण है रेलवे-सुधारों की दिशा। अगर यह विलय दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य में रेलवे में संरचनात्मक बदलावों का मार्ग प्रशस्त करता है, कारोबारी संस्थाओं की तर्ज़ पर कॉमर्शियल एकाउंटिंग की पारदर्शी लेखांकन व्यवस्था को रेलवे के द्वारा अपनाया जाता है और रेलवे परियोजनाओं के बेहतर क्रियान्वयन के ज़रिये बेहतर उत्पादकता, उच्चतर राजस्व एवं आंतरिक स्रोतों से संसाधनों को सुनिश्चित कर पाने में सफल रहता है, तभी इसकी सार्थकता है, अन्यथा नहीं। और, यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि रेलवे को कहाँ तक ऑपरेशनल स्वायत्तता मिल पाती है, कहाँ तक इसका परिचालन राजनीति के बजाय वाणिज्यिक आधार पर संभव हो पाता है और सरकार इस सन्दर्भ में कहाँ तक राजनीतिक इच्छाशक्ति प्रदर्शित कर पाती है। इसीलिए अब केन्द्र को गम्भीरतापूर्वक स्वतंत्र रेलवे टैरिफ़ नियामक प्राधिकरण के गठन की दिशा में अविलम्ब पहल करनी चाहिए ताकि रेल-भाड़ों के निर्धारण की प्रक्रिया को राजनीति से दूर रखा जा सके। रेलवे को यह सुनिश्चित करने की दिशा में पहल करनी चाहिए कि नई रेल-लाइनों और नई ट्रेनों के प्रश्न पर विचार राजनीति के बजाय आर्थिक वहनीयता के आलोक में किया जाय। साथ ही, रेलवे की आय बढ़ाने के लिए माँग-प्रेरित क्लोन ट्रेन सुविधा शुरू की जाय। सरकार से यह भी अपेक्षा है कि रियायती टिकट सहित सामाजिक दायित्वों को पूरा करने के कारण रेलवे पर 37,000 करोड़ का जो अतिरिक्त वित्तीय दायित्व सृजित होता है, उसकी भरपाई सरकार अपने राजस्व से करे।
रेल बजट को सामान्य बजट से अलग पेश करने की पिछले 92 वर्षों से चली आ रही परिपाटी 2017 में समाप्त हो गई, लेकिन सरकार ने यह स्पष्ट किया है कि आम बजट में रेल बजट के विलय के बावजूद रेलवे की अलग पहचान और कामकाजी स्वायत्तता बनी रहेगी। इसके संकेत जून,2016 में ही मिलने लगे थे। अगस्त,2016 में बाकायदा इसकी घोषणा कर दी गई थी। ध्यातव्य है कि 2015 में रेलवे के पुनर्गठन के प्रश्न पर विचार के लिए गठित विवेक देबराय पैनल ने भी इस दिशा में पहल का सुझाव दिया था। यहाँ पर यह प्रश्न सहज ही उठता है कि आख़िर 1924 में रेल बजट को आम बजट से अलगाया क्यों किया गया था और आज इसे इस बार फिर आम बजट के साथ मिलाया क्यों जा रहा है?
आम बजट से अलगाने का आधार:
एकवर्थ समिति,1920 की सिफ़ारिशों के आलोक में आम बजट से पृथक रेल बजट पेश करने की व्यवस्था 1924 में शुरू की गई थी। सर विलियम एकवर्थ ने रेलवे के लिए एकीकृत प्रबंधन की आवश्यकता पर बल देते हुए कहा कि रेलवे के आंतरिक संसाधनों एवं वित्त पर वित्त मंत्रालय का नियंत्रण समाप्त हो और रेलवे को अपना बजट ख़ुद पेश करने की अनुमति दी जाय। इसका कारण यह था कि रेलवे के राजस्व ने सामान्य राजस्व को पीछे छोड़ दिया और इसीलिए रेल बजट का आकार आम बजट से कहीं अधिक बड़ा था। ऐसी स्थिति में दोनों का साथ-साथ होना आम बजट की अहमियत को पृष्ठभूमि में धकेल देता। अपने बड़े आकार के कारण रेल बजट आम बजट में किसी भी छोटे, किन्तु महत्वपूर्ण विचलन को ढक लेने में समर्थ था।
आज़ादी के समय भी कुछ ऐसी ही स्थिति थी जब रेल-राजस्व का आकार सामान्य राजस्व से 6% अधिक था। इसीलिए रेलवे कन्वेंशन समिति के प्रमुख सर गोपालस्वामी आय्यंगर ने इस परिपाटी को आज़ादी के बाद भी जारी रखने की अनुशंसा की।
बदला हुआ परिदृश्य:
आज का परिदृश्य बदल चुका है। पहली बात, आज रेलवे परिवहन का सर्वप्रमुख साधन नहीं रह गया है। परिवहन के प्रमुख साधन के रूप में सड़क ने रेलवे को प्रतिस्थापित कर दिया है। साथ ही, आज घरेलू विमानन कारोबार से प्राप्त राजस्व रेल-परिवहन से प्राप्त राजस्व से अधिक है। दूसरा, 1979 के दशक में रेल-राजस्व का आकार आम राजस्व के आकार का महज़ 30% रह गया है। 2016-17 में रेल बजट का आकार आम बजट का 6% रह गया है। इतना ही नहीं, रेलवे बदले हुए समय की बदली हुई चुनौतियों के अनुरूप अपने आपको नहीं ढाल पा रही है और इसीलिए इन चुनौतियों का सामना कर पाने में असमर्थ है। इसका कारण बहुत हद तक रेलवे की क्रिया-प्रणाली है और कुछ हद तक संसाधनों का अभाव।
इस दौरान रेलवे के साथ समस्या यह भी रही कि उसने स्वयं को शहरी-परिवहन(मेट्रो) सहित प्रचालन-संबंधी गतिविधियों पर फ़ोकस करने के बजाय उससे परहेज़ करते हुए शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा एवं विनिर्माण जैसी अन्य द्वितीयक गतिविधियों को प्राथमिकता दी। शायद यही कारण है कि रेलवे समय रहते सड़क-परिवहन और विमानन क्षेत्र की ओर से मिल रही नवीन चुनौतियों का सामना नहीं कर पा रही है। रेलवे की क्रॉस-सब्सिडी वाली व्यवस्था, जिसके तहत् माल-भाड़े की क़ीमत पर यात्री-किराए को सब्सिडाइज्ड किया गया जिसने न केवल माल-ढुलाई में किराए एवं डोर-स्टैप डिलीवरी(Doorstep Delivery) के संदर्भ में सड़क परिवहन की ओर से मिल रही चुनौती का सामना करने में रेलवे को असमर्थ बनाया, वरन् संसाधनों की उपलब्धता को प्रभावित करते हुए रेलवे के क्षमता-विस्तार को भी प्रतिकूलत: प्रभावित किया। परिणामत: परिवहन-कारोबार में रेलवे की हिस्सेदारी निरन्तर घटती चली गई। इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि माल ढुलाई से प्राप्त होने वाले राजस्व में रेलवे की कुल हिस्सेदारी 1950-51 के 89% से घटकर 2014-15 में 30% रह गई है और इसके सापेक्ष 2011-12 में सड़क-परिवहन की हिस्सेदारी 65% के स्तर पर पहुँच गई है। इतना ही नहीं, रेलवे को कुछ नई चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा। 1990 के दशक में पेट्रोलियम उत्पादों के परिवहन में रेलवे की हिस्सेदारी 75% के स्तर पर थी, जो पाइपलाइन के ज़रिए सस्ते परिवहन-विकल्पों को अपनाने के कारण 10% के स्तर पर पहुँच चुकी है। रेलवे समय रहते इस चुनौती का भी सामना कर पाने में असफल रही, जबकि रेलवे के लिए यह स्रवाधिक लाभ का कारोबार था। स्पष्ट है कि रेल बजट-आम बजट के संदर्भ में न तो आज वह समस्या नहीं रह गई है जो समस्या आज़ादी के पहले एवं आज़ादी के बाद के कुछ वर्षों के दौरान थी, और न ही आज परिवहन सेक्टर की रेलवे पर वैसी निर्भरता नहीं रह गई है, जैसी उस समय थी।
विलय के प्रश्न पर विचार शुरू:
ऐसा माना जा रहा है कि रेलवे की वित्तीय हालत ने इस विलय की पृष्ठभूमि तैयार की है। वर्तमान में रेलवे के कुल ख़र्च का 50% वेतन एवं पेंशन मद में जाता है, रेलवे की कुल आय का महज़ 25% यात्री किराया के ज़रिए प्राप्त होता है और परिचालन लागत उच्च स्तर पर है। ऐसी स्थिति में रेलवे के लिए तकनीकी उन्नयन एवं आधुनिकीकरण या नई परिसम्पत्तियों एवं रेल-सुरक्षा मद के मद में निवेश कर पाना मुंश्किल है। रेलवे-सुधारों के प्रश्न गठित समितियों ने पृथक रेल बजट के औचित्य पर प्रश्न उठाते हुए आम बजट में इसके विलय पर ज़ोर दिया। 2015 में विवेक देबरॉय समिति ने विलय के पक्ष में तर्क देते हुए कहा कि ऐसा करने से रेल-बजट का बेजा राजनीतिक इस्तेमाल तो बंद होगा ही, रेल-सुधार के कदम उठाने में भी सहूलियत होगी। समिति का मानना था कि अलग से रेल बजट पेश करना केवल रस्मी है क्योंकि आम बजट के मुकाबले इसका आकार बहुत छोटा है। समिति ने सुझाव दिया था कि रेल-बजट सरकार के बजट के राजकोषीय अनुशासन और विकासात्मक रुख का हिस्सा होना चाहिए। इससे पहले कि समिति के सुझावों के अनुरूप विलय की दिशा में पहल की जाती, बदलाव के संकेत मिलने लगे। 2016-17 में बजटीय प्रस्तावों से इतर हटकर कोयला-ढुलाई के भाड़े में बदलाव या फिर प्रीमियम पैसेंजर ट्रेन में हवाई जहाज़ की तर्ज़ पर टिकटों की परिवर्तनीय किराये (Flexible Pricing) की दिशा में की गई पहल से इसी बात के संकेत मिलते हैं।
विलय के तर्काधार:
1. गठबंधन सरकारों के दौर में पृथक रेल बजट रेल-मंत्री के लिए अपने क्षेत्र और गठबंधन सहयोगियों को उपकृत करने के राजनीतिक साधन में तब्दील हो गया, संदर्भ चाहे नये मार्गों पर रेल-लाइन बिछाने का हो, या नयी ट्रेनों के परिचालन की घोषणा का, या फिर रेलवे के द्वारा नयी फैक्ट्रियाँ लगाने का; सर्वत्र रेल-मंत्री ने रेलवे की ज़रूरत, इसकी वित्तीय स्थिति और इसके स्वास्थ्य की धड़ल्ले से उपेक्षा करते हुए अपनी राजनीति चमकाने के लिए अपने गृह-राज्य, अपने संसदीय क्षेत्र और अपने गठबंधन सहयोगियों का विशेष ख़्याल रखा। परिणामत: रेलवे की स्थिति बिगड़ती चली गई। दूसरी तरफ, अन्य क्षेत्रों और अन्य परियोनाओं के लिए संसाधनों की उपलब्धता प्रभावित हुई जिसका प्रतिकूल असर रेलवे के क्षमता-विस्तार और इसकी प्रतिस्पर्द्धात्मकता पर पड़ा। विलय रेलवे के राजनीतिकरण की संभावनाओं को सीमित करेगा, ऐसी सम्भावना है।
2. जब कृषि और उद्योग जैसे अर्थव्यवस्था के अन्य बड़े क्षेत्रों के लिए अलग से बजट नहीं आता, और जब रक्षा बजट, रेल बजट से बड़ा होते हुए भी आम बजट के हिस्से के तौर पर आता है, तो रेल बजट को अलग से लाने की परिपाटी बनाए रखने का कोई औचित्य नहीं था।
3. जिस समय आम बजट से पृथक रेलवे बजट की कल्पना की गई थी, उस समय परिवहन-तंत्र प्रमुखत: रेलवे पर निर्भर था और रेल बजट का आकार आम बजट से ज्यादा बड़ा था। इसीलिए रेलवे के विकास के लिए विशिष्ट रणनीति की ज़रूरत थी। आज का परिवहन-तंत्र कहीं अधिक विविधीकृत है और यदि इसे भविष्य की चुनौतियों से निबटना है, तो इसके लिए समेकित परिवहन-रणनीति की ज़रूरत है जिसका निर्धारण रेल, सड़क, वायु एवं जल-परिवहन; इन चारों को ध्यान में रखते हुए अंतिम रूप दिया जाना चाहिए। यह तभी संभव है जब रेलवे भी आम बजट का हिस्सा बने।
4. इस विलय से अब रेलवे को हर साल वार्षिक लाभांश के रूप में वह राशि नहीं देनी पड़ेगी जो सरकार से प्रति वर्ष मिलने वाले बजटीय समर्थन के बदले देना पड़ता है। इससे रेलवे को 10,000 करोड़. रूपए की सालाना बचत होगी।
5. यह रेलवे-सुधारों के मार्ग को प्रशस्त करेगा और इसके परिणामस्वरूप रेलवे के लिए अपनी प्राथमिक गतिविधियों पर फ़ोकस कर पाना संभव हो सकेगा।
6. यह विलय रेलवे को संसाधनों को जुटा पाने में सक्षम बनाएगा क्योंकि राजनीतिक के बजाय व्यावसायिक आधार पर रेलवे का संचालन इसकी लाभप्रदता की संभावनाओं को बल प्रदान करेगा और यह रेलवे में निवेश के लिए निवेशकों को प्रोत्साहित करेगा। फलत: रेलवे के लिए पूँजीगत ख़र्चों को बढ़ा पाना संभव हो सकेगा जो अंतत: रेलवे के क्षमता-विस्तार में सहायक साबित होगा। इससे कनेक्टिविटी के स्तर में सुधार होगा और देश की आर्थिक संवृद्धि को गति मिलेगी।
विश्लेषण:
स्पष्ट है कि पृथक रेल बजट की समाप्ति और सामान्य बजट में इसका विलय रेलवे के राजनीतिक इस्तेमाल पर अंकुश लगाएगा। रेल मंत्रालय की स्थिति भी दूसरे मंत्रालयों जैसी होगी और शायद रेलमंत्री का भी राजनीतिक कद पहले जैसा नहीं होगा। अब रेलवे से जुड़े प्रस्ताव आम बजट के हिस्से होंगे और रेलवे के आय-व्यय के ब्योरे को संसद में वित्त मंत्रालय पेश करेगा। सरकार सुनिश्चित करेगी कि रेलवे खर्च पर हर साल अलग से चर्चा हो, ताकि विस्तृत संसदीय समीक्षा और जवाबदेही बनी रहे। सरकार ने यह भी स्पष्ट किया कि इससे रेलवे की प्रक्रियात्मक स्वायत्ता (Functional Autonomy) पर किसी असर की संभावना नहीं है। इतना ही नहीं, अब यात्री-किराया और माल-भाड़ा बढ़ाने के लिए सरकार को रेल बजट का इंतजार करने और संसद की सहमति लेने की जरूरत नहीं रहेगी। देबरॉय समिति ने अपनी सिफारिश में स्पष्टत: कहा है कि रेलवे अधिनियम, 1989 के तहत इस तरह के फैसले प्रशासनिक कार्रवाई की तरह भी किए जा सकते हैं।
जब रेलवे बजट का आम बजट में विलय किया जा रहा था, उस समय कहा गया था कि अब रेलवे को पहले की तरह हर साल लाभांश देने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी, लेकिन ऐसा लगता है कि सरकार रेलवे से मिलने वाले लाभांश पर अपना दावा छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। सरकार की नज़र रेलवे के उन 14 सार्वजनिक उपक्रमों से प्राप्त होने वाले राजस्व पर है जो अबतक रेलवे के माध्यम से वित्त मंत्रालय को प्राप्त होता रहा है। आर्थिक मामलों के सचिव शक्तिकांत दास ने कहा कि चूँकि रेलवे वेतन एवं पेंशन समेत अपना व्यय अपनी आय से पूरा करता है, इसीलिए बजट को आम बजट में मिलाने से कोई बदलाव नहीं होगा। उन्होंने कहा कि रेलवे का राजस्व अब भारत की संचित निधि में आएगा और व्यय को इस कोष से पूरा किया जाएगा। इसलिए यह आम बजट के वित्त को प्रभावित नहीं करेगा। चूँकि रेलवे का कर्ज सरकार का कर्ज है, इसलिए विलय से सरकार का कर्ज भी नहीं बढ़ेगा। इतना ही नहीं, संसाधनों के लिए रेलवे की भारतीय रेलवे वित्त निगम(IRFC) पर निर्भरता समाप्त होगी और यह बाहरी स्रोतों के साथ-साथ आंतरिक स्रोतों से संसाधनों को जुटा पाने में कहीं अधिक समर्थ होगा क्योंकि समय के साथ बेहतर रिटर्न की संभावना वाली परियोजनायें निवेश को आकर्षित करने में समर्थ होंगी।
लेकिन, यहाँ पर इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि विलय रेलवे-सुधारों का एक पहलू है, एकमात्र पहलू नहीं और सर्वप्रमुख पहलू नहीं। साथ ही इसकी अपनी जटिलतायें हैं। इसलिए महत्वपूर्ण विलय नहीं, महत्वपूर्ण है रेलवे-सुधारों की दिशा। अगर यह विलय दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य में रेलवे में संरचनात्मक बदलावों का मार्ग प्रशस्त करता है, कारोबारी संस्थाओं की तर्ज़ पर कॉमर्शियल एकाउंटिंग की पारदर्शी लेखांकन व्यवस्था को रेलवे के द्वारा अपनाया जाता है और रेलवे परियोजनाओं के बेहतर क्रियान्वयन के ज़रिये बेहतर उत्पादकता, उच्चतर राजस्व एवं आंतरिक स्रोतों से संसाधनों को सुनिश्चित कर पाने में सफल रहता है, तभी इसकी सार्थकता है, अन्यथा नहीं। और, यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि रेलवे को कहाँ तक ऑपरेशनल स्वायत्तता मिल पाती है, कहाँ तक इसका परिचालन राजनीति के बजाय वाणिज्यिक आधार पर संभव हो पाता है और सरकार इस सन्दर्भ में कहाँ तक राजनीतिक इच्छाशक्ति प्रदर्शित कर पाती है। इसीलिए अब केन्द्र को गम्भीरतापूर्वक स्वतंत्र रेलवे टैरिफ़ नियामक प्राधिकरण के गठन की दिशा में अविलम्ब पहल करनी चाहिए ताकि रेल-भाड़ों के निर्धारण की प्रक्रिया को राजनीति से दूर रखा जा सके। रेलवे को यह सुनिश्चित करने की दिशा में पहल करनी चाहिए कि नई रेल-लाइनों और नई ट्रेनों के प्रश्न पर विचार राजनीति के बजाय आर्थिक वहनीयता के आलोक में किया जाय। साथ ही, रेलवे की आय बढ़ाने के लिए माँग-प्रेरित क्लोन ट्रेन सुविधा शुरू की जाय। सरकार से यह भी अपेक्षा है कि रियायती टिकट सहित सामाजिक दायित्वों को पूरा करने के कारण रेलवे पर 37,000 करोड़ का जो अतिरिक्त वित्तीय दायित्व सृजित होता है, उसकी भरपाई सरकार अपने राजस्व से करे।