Sunday, 31 January 2016

"अनुपम खेर : आप तो ऐसे न थे"

""अनुपम खेर जी, आपसे ये उम्मीद नहीं थी. आपने तो शासन करने की मोदी जी की क्षमता पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया। अल्पसंख्यक मुसलमान  तो पहले से ही अपनी असुरक्षा सम्बन्धी चिंताओं को अभिव्यक्ति दे रहे थे , अब बहुसंख्यक हिन्दुओं को भी असुरक्षा का अहसास होने लगा। 
                                                 आपने तो उन  लोगों को भी दुविधा में डाल दिया जो कल तक आमिर और शाहरुख को असहिष्णुता और असुरक्षा सम्बन्धी अहसासों की अभिव्यक्ति के कारण देशद्रोही की संज्ञा दे रहे थे और पाकिस्तान भेजने की बात कर रहे थे।  मेरी चिंता यह है की अगर कहीं वो आपको नेपाल भेजने लगे, तो फिर आपकी समस्याएं और बढ़ जाएँगी क्योंकि वोहन की स्थिति आजकल ठीक नहीं है।  भारत और भारतियों के नाम पर ही नेपाली भड़क जा रहे हैं।  हाँ, अगर मधेशी बहुल इलाके में भेंजे , तो थोड़ी राहत होगी।                                                                                    
                                                  पर, घबराएँ नहीं, हम सब आपके साथ हैं।असुरक्षा के आपके अहसास को दूर करने और आपकी सुरक्षा को सुनिश्चित करने की हरसंभव कोशिश करूँगा ।  मैं मोदी सरकार से यह मांग करता हूँ कि आपकी हरसंभव सुरक्षा सुनिश्चित की जाये और असुरक्षा के आपके एहसास को दूर करने के लिए उचित कदम उठाये जायें।  अगर ज़रुरत पड़ी,तो धर्मनिरपेक्षों और तथाकथित धर्मनिरपेक्षों को दण्डित भी किया जाये। इसके लिए अगर ज़रुरत पड़े ,तो आपको भारत-रत्न भी ऑफर किया जाये। वैसे आप चाहें तो इसके विरोध में आप अपना पद्म भी  वापस   कर सकते   हैं। आपके इस संघर्ष में मैं आपके साथ हूँ। ""

Saturday, 30 January 2016

"गाँधी को गोडसे ने नहीं मारा!"

बापू, हम सब आपके गुनाहगार हैं। हम सबने आपकी हत्या की है।आपको गोडसे नहीं मारा।ज़रूर ग़लतफ़हमी हुई है लोगों से। गोडसे तो मोहरा बना। उसे तो नाहक ही सज़ा मिली। वास्तव में जो हत्यारे थे वे बच निकले। आज भी वे फल-फूल रहे हैं। चलें, थोड़ी देर के लिए मान ही लेते हैं कि आपको गोडसे ने ही मारा, तो क्या गोडसे को फाँसी के साथ मर गया गोडसे,नहीं न? तो फिर••••••••••• गोडसे ने तो सिर्फ़ एक बार मारा था आपको, हम सब तो बार-बार मार रहे हैं आपको। जब कभी ज़रूरत पड़ती, आपका इस्तेमाल करते हैं और जैसे ही ज़रूरत समाप्त होती है, कभी आपको धकियाते हैं और कभी आपकी सोच को। आपके प्रति ऐसी सोच यत्र-तत्र-सर्वत्र मौजूद है। देखें न,हम भारतवासी आपका कितना सम्मान करते हैं? आपके नाम पर लोकोक्ति और मुहावरे चल पड़े हैं: मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी, अब गाँधी बनने से काम नहीं चलेगा, आज गाँधी भी  होते, तो ऐसा ही करते वग़ैरह - वग़ैरह।बापू, आप हमारा इशारा नहीं समझ रहे हैं। जानते हैं आप, हम भारतीय आपको याद क्यों करते हैं? क्योंकि, आपके नाम पर साल में एक दिन छुट्टी मिल जाती है। अन्यथा सालों भर, तीन सौ चौसठों दिन डाक विभाग के बहाने हम तो आपके मुँह पर कालिख पोतते रहते हैं।
दरअसल बापू, गोडसे कोई व्यक्ति नहीं था। गोडसे एक सोच था, ऐसी सोच जो समय के साथ प्रभावी होती चली गई, जो सोच कभी १९८४ में दिखती है, तो कभी २००२ में और कभी २०१५ में। यह सोच कभी समाप्त नहीं हुई। अत: ज़रूरत इस सोच से लड़ने की है। यह सोच काँग्रेस में भी है और भाजपा में भी। यह सोच वामपंथियों के यहाँ भी है और आपाइटों के यहाँ भी। इस सोच से लड़ने की क़ीमत है और वही व्यक्ति इस सोच के साथ लड़ सकता है जो इसकी क़ीमत चुकाने के लिए तैयार है।

Tuesday, 12 January 2016

बीपीएससी मुख्य परीक्षा ट्रेंड एनालाइसिस पार्ट थ्री: भूगोल एवं अर्थव्यवस्था खंड

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भूगोल एवं अर्थव्यवस्था खंड
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बिहार लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित परीक्षा में भूगोल एवं अर्थव्यवस्था से संबंधित प्रश्नों को एक ही खंड में रखा गया है। सामान्यत: इस खंड से जो भी प्रश्न पूछे जाते हैं, उनके आधार पर निम्न बातें कही जा सकती हैं:
A. भारत एवं बिहार का भूगोल:
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भूगोल खंड से प्रश्न सामान्यत: तीन हिस्सों से पूछे जाते हैं:
1. भौतिक एवं पर्यावरण-भूगोल
2. आपदा और आपदा-प्रबंधन
3. मानव एवं आर्थिक भूगोल
भौतिक एवं पर्यावरण भूगोल के अंतर्गत
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प्राकृतिक विविधता,मानसून, मौसम-पूर्वानुमान, जल-संसाधन प्रबंधन, राष्ट्रीय जल नीति-2012,वायु-प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन, लीमा एवं पेरिस सम्मेलन आदि महत्वपूर्ण हैं।
आपदा और आपदा-प्रबंधन के अंतर्गत
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प्राकृतिक आपदा,बाढ़, सूखा,भूकम्प और चेन्नई आपदा आदि को विशेष रूप से तैयार करें। इसके कारण और प्रभाव, विशेष रूप से मानव निर्मित पक्ष तथा बिहार को तैयार करें।
मानव एवं आर्थिक भूगोल के अंतर्गत
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जनगणना-2011, कन्या भ्रूण-हत्या,शहरीकरण-प्रबंधन,स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट, अमृत परियोजना, सौर ऊर्जा एवं इसके संदर्भ में हाल की प्रगति(बिहार के विशेष संदर्भ में), ठोस कचरा-प्रबंधन आदि टाॅपिक महत्वपूर्ण हैं।
B. भारतीय अर्थव्यवस्था :
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अर्थव्यवस्था खंड से पूछे जाने वाले प्रश्नों को निम्न श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है:
1. सामाजिक एवं आर्थिक विकास
2. आयोजन 
3. कृषि,उद्योग एवं व्यापार
4. सार्वजनिक वित्त
सामाजिक एवं आर्थिक विकास के अंतर्गत 
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जीडीपी आकलन विधि में संशोधन, ग़रीबी, बेरोज़गारी,समावेशी विकास, सतत् विकास, जनांकिकीय लाभांश तथा शिक्षा, स्वास्थ्य एवं समावेशन से संबंधित सरकारी योजनाएँ एवं कार्यक्रम शामिल हैं।
सरकारी योजनाएँ एवं कार्यक्रम के अंतर्गत जनधन स्कीम, अटल पेंशन योजना, प्रधानमंत्री जीवन-ज्योति बीमा योजना, प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना, सुकन्या समृद्धि योजना, बेटी बचाओ:बेटी पढ़ाओ,स्वच्छ भारत मिशन आदि शामिल हैं।
आयोजन के अंतर्गत
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बारहवीं पंचवर्षीय योजना, आयोजन एवं समावेशी विकास,स्वतंत्र भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास में योजना आयोग की भूमिका का मूल्याँकन, आयोजन की प्रासंगिकता, योजना आयोग-नीति आयोग तुलना,नीति आयोग के गठन का औचित्य, नीति आयोग: विविध पक्ष, विशेष राज्य के दर्जे की समाप्ति का प्रश्न और बिहार, पिछड़ा क्षेत्र अनुदान निधि(BRGF) की समाप्ति और इसका बिहार के विकास पर असर आदि महत्वपूर्ण हैं।
कृषि,उद्योग एवं व्यापार के अंतर्गत
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बिहार में भूमि-सुधार, भूमि-अधिग्रहण विवाद,कृषि अर्थव्यवस्था में िस्थरता ,दूसरी हरित क्रांति एवं पहली हरित क्रांति के सबक़ , नई ऊर्वरक सब्सिडी नीति, नई यूरिया नीति, कृषि क्षेत्र के समक्ष मौजूद चुनौतियाँ एवं संभावनाएँ, कृषि क्षेत्र का विकास एवं जेनेटिकली माॅडिफाइड क्राॅप्स, किसानों की बढ़ती आत्महत्या , आर्थिक उदारीकरण एवं वैश्वीकरण के आलोक में कृषि क्षेत्र, बिहार में कृषि क्षेत्र के विकास की रणनीति एवं इसके समक्ष मौजूद चुनौतियाँ आदि महत्वपूर्ण है।
उद्योग के अंतर्गत लघु उद्योगों का योगदान एवं महत्व, बिहार में कृषि आधारित उद्योगों के की संभावनाएँ, राष्ट्रीय विनिर्माण नीति-2011, मेक इन इंडिया, मेक इन इंडिया: रक्षा क्षेत्र का विशेष संदर्भ, खाद्य प्रसंस्करण आदि महत्वपूर्ण हैं।
व्यापार के अंतर्गत नवीन पंचवर्षीय व्यापार नीति (२०१५-२०), विश्व व्यापार संगठन: दोहा दौर एवं नैराबी सम्मेलन,२०१५; ट्रिप्स विवाद आदि टाॅपिक महत्वपूर्ण हैं।
सार्वजनिक वित्त के अंतर्गत
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वस्तु एवं सेवा कर : संबंधित विवाद,सातवें वेतन आयोग की सिफ़ारिशें एवं इसका सार्वजनिक वित्त पर प्रभाव, चौदहवाँ वित्त आयोग, तेरहवें वित्त आयोग से तुलना आदि महत्वपूर्ण हैं।
स्रोत-सामग्री:
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१. सार्थक बिहार मुख्य परीक्षा सामान्य
अध्ययन स्पेशल: कुमार सर्वेश, संजय कुमार
सिंह एवं अन्य।
२. भारतीय अर्थव्यवस्था : कुमार सर्वेश
सार्थक प्रकाशन

Thursday, 7 January 2016

नेपाल: पहले निकटस्थ पड़ोस की भारतीय नीति की त्रासदी

         नेपाल: "पहले निकटस्थ पड़ोस" की 
               भारतीय नीति की त्रासदी
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मुझसे अगर कोई पूछे कि नरेंद्र मोदी जी के प्रधानमंत्रित्व काल के पिछले उन्नीस महीने के दौरान विदेश नीति के मोर्चे पर की गई पहलों में आप किस क़दम को मास्टर स्ट्रोक के रूप में देखते हैं, तो निश्चय ही मेरा जवाब होगा अपने शपथ-ग्रहण समारोह में दक्षिण एशिया के शपथ-ग्रहण समारोह में दक्षिण एशिया के राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित किया जाना। यह शायद सबसे महत्वपूर्ण पहल थी जिसके ज़रिए उन्होंने पड़ोसी दक्षिण एशियाई देशों के साथ संबंध को अनौपचारिक टच देते हुए विदेश नीति को नई दिशा और नई गति देने की कोशिश की थी। साथ ही, इस बात का संकेत भी देने का प्रयास किया गया कि अब छोटे पड़ोसी देश भारतीय विदेश नीति की प्राथमिकता में शीर्ष पर होंगे।
"पहले नज़दीक़ पड़ोस" की नीति:
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"मोदी डाॅक्ट्रिन"(अगर ऐसा कुछ है,) गुजराल डाॅक्ट्रिन से इस मायने में भिन्न है कि यह पड़ोसी देशों के साथ "एकतरफ़ा रियायतों" की जगह समानता पर आधारित संबंधों की प्रस्तावना करता है जो पड़ोसी देशों में विद्यमान हीनभावना तथा पहचान के संकट के साथ-साथ "बड़े भाई" की भूमिका से संबंधित उनकी आशंकाओं के निवारण में समर्थ है। यह अगर मोदी डाॅक्ट्रिन की शक्ति है, तो सीमा भी। सीमा इसलिए कि यह दक्षिण एशियाई राष्ट्र के इस सच की अनदेखी करता है:"अगर दक्षिण एशियाई राष्ट्र आकार-प्रकार या फिर किसी भी दृष्टि से भारत के समकक्ष नहीं हैं, तो फिर उनके साथ समानता पर आधारित सम्बंधों की स्थापना की दिशा में पहल बेमानी है।"
दरअसल आवश्यकता थी गुजराल डाॅक्ट्रिन की एकतरफ़ा रियायतों की नीति को समानता पर आधारित संबंधों के ज़रिए समर्थन प्रदान करने की, ताकि पारस्परिक संदेह और अविश्वास को दूर करते हुए पारस्परिक विश्वास की बहाली को सुनिश्चित किया जा सके और भारत के पड़ोसी देशों को भारतीय हितों के प्रति कहीं अधिक संवेदनशील बनाया जा सके। लेकिन, वर्तमान सरकार की आक्रामक विदेश नीति, जो आर्थिक हितों और सुरक्षा चिंताओं को विदेश नीति के केन्द्र में रखती है और हर क़ीमत पर जल्दबाज़ी में बिना समय दिए उसका त्वरित समाधान चाहती है, कहीं-न-कहीं इस ज़मीनी वास्तविकता की अनदेखी करती है। 
निकटस्थ पड़ोस नीति का व्यावहारिक पक्ष:
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नवनिर्वाचित भारतीय प्रधानमंत्री ने जब अपनी विदेश यात्रा की शुरूआत भूटान और नेपाल से की, तो इससे पड़ोस में उत्साह का माहौल भी बना और सकारात्मक संदेश भी पहुँचा। लेकिन, शीघ्र ही यह उत्साह थमता भी दिखाई पड़ा। अफ़ग़ानिस्तान और श्रीलंका में क्रमश: अशरफ़ घानी और महिंदा राजपक्षे की भारत-विरोधी नीतियों के कारण भारत को प्रतिकूल परिसि्थतियों का सामना करना पड़ा, यद्यपि फ़रवरी,2015 में श्रीलंका में सत्ता-परिवर्तन और नवम्बर,2015 तक आते-आते पाकिस्तान की अफ़ग़ानिस्तान नीति की प्रतिक्रिया में अफ़ग़ान सरकार के रूख में परिवर्तन के बाद भारत के लिए अनुकूल परिस्िथतियाँ बनी हैं। जहाँ तक पाकिस्तान का प्रश्न है, तो पिछले सोलह महीने का अनुभव यह बतलाता है कि वर्तमान में भारत की कोई पाकिस्तान नीति नहीं है। हम अभी "ट्रायल एंड एरर" की नहीं, "एरर एंड एरर" की नीति पर चल रहे हैं और पता नहीं कबतक इस नीति पर चलते रहेंगे? मालदीव रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के बावजूद भारतीय विदेश नीति में उपेक्षित और तिरस्कृत है। वहाँ मोदी सरकार ने चीन को "वाक ओवर" दे रखा है। उपलब्धि के नाम पर बंगलादेश और म्याँमार है, पर उसे भी पिछली सरकार की विदेश नीति की निरंतरता में देखे जाने की ज़रूरत है। जिस लैंड बार्डर एग्रीमेंट को भारतीय संसद की अनुमति को उपलब्धि के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है, दरअसल वह भी पिछली सरकार की उपलब्धि है जो विपक्ष में रहते हुए भाजपा की नकारात्मक भूमिका के कारण अटका बुआ था। जहाँ तक नेपाल की बात है, तो इसे निकटस्थ पड़ोस के प्रति भारतीय नीति की त्रासदी की संज्ञा दी जाए, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
नेपाल: निकटस्थ पड़ोस नीति की त्रासदी
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नेपाल पर चर्चा शुरू करने के पहले यह स्पष्ट करना आवश्यक प्रतीत होता है कि नेपाल भारत का ऐसा पड़ोसी देश है जिसने 1950 के दशक से ही भारत के विरूद्ध चीनी कार्ड का प्रभावी तरीक़े से इस्तेमाल किया है और अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा की है। भारत की नेपाल नीति को निर्धारित करते समय इस बात को अवश्य ध्यान में रखा जाना चाहिए। दूसरी बात यह कि नेपाल के साथ भारत ने अक्सर बड़े भाई वाली भूमिका निभाई है और जब-तब हाथ मरोड़ने की कोशिश की है। तीसरी बात यह कि भारत और चीन के बीच बफ़र स्टेट के रूप में नेपाल की भूमिका उसे रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण बना देती है। चौथी बात यह कि भारत की नेपाल नीति हमेशा से लुँज-पुँज रही है और इस कारण नेपाल की भारत पर निर्भरता के बावजूद नेपाल-भारत द्विपक्षीय संबंध कभी बहुत बेहतर नहीं रहा है। भारत-विरोधी शक्तियाँ नेपाल में हमेशा से सक्रिय रही हैं।
पहली नेपाल यात्रा,अगस्त 2014:
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प्रधानमंत्री बनने के बाद छह महीने के अंदर मोदी जी को दो बार नेपाल की यात्रा करनी पड़ी। अगस्त,2014 में पहली बार मोदी जी नेपाल दौरे पर गए । भूटान के बाद यह उनका दूसरा विदेशी दौरा था। इस यात्रा के दौरान उन्होंने द्विपक्षीय संबंध को जो अनौपचारिक रूप देने का प्रयास किया और जिस तरह से उनकी इस यात्रा विभिन्न राजनीतिक दलों और उसके नेताओं (यहाँ तक कि माओवादी दल के प्रमुख प्रचंड भी )की ओर से ज़बरदस्त रेस्पान्स मिला, निश्चय ही उसने द्विपक्षीय संबंधों को नई ऊर्जा से लैस करते हुए इसमें नई गरमाहट पैदा की। 
दूसरी नेपाल यात्रा,नवम्बर,2014:
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लेकिन, समस्या की शुरूआत भी इसी पृष्ठभूमि में हुई।नवम्बर,2014 में काठमांडू में आयोजित सार्क सम्मिट में भाग लेने के लिए प्रधानमंत्री मोदी को काठमांडू जाना था। इस दौरान वे जनकपुर में पब्लिक मीटिंग को सम्बोधित करना चाहते थे और उसी दौरान लड़कियों के बीच साइकिल का वितरण उनके द्वारा किया जाना था। लेकिन, इस कार्यक्रम को अनुमति के प्रश्न के राजनीतिकरण की पृष्ठभूमि में नेपाल की सरकार ने अंतिम समय में अनुमति देने से इन्कार किया। इसने नेपाली मधेशियों को नाराज़ किया और वे इसका विरोध करते हुए सड़कों पर उतरे। उन्होंने नेपाल सरकार के विरोध में और भारत के साथ-साथ भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समर्थन में नारे लगाए। इसका असर कहीं-न-कहीं द्विपक्षीय संबंधों पर भी पड़ा।
नेपाल-भूकम्प प्रकरण:
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अप्रैल,2015 में आए नेपाल भूकम्प ने भी द्विपक्षीय संबंधों को ज़बरदस्त झटका दिया। राहत और बचाव के संदर्भ में भारत की ओर से जो त्वरित प्रतिक्रिया आई और जो प्रो-एक्टिव स्टेप्स लिए गए, उम्मीद की जा रही थी कि यह क़दम द्विपक्षीय संबंधों को मज़बूती देगा, लेकिन हुआ ठीक उलटा। जिस तरह से भूकम्प-राहत एवं बचाव सहायता पर मीडिया और सोशल मीडिया में भारतीयों की प्रतिक्रियाएँ सामने आईं, उससे ऐसा लगा कि भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश था जो राहत एवं बचाव कार्य में नेपाल को सहायता प्रदान कर रहा है। इस क्रम में सोशल मीडिया में ऐसी टिप्पणियों और फ़ोटोग्राफ़ की बाढ़-सी दिखाई पड़ी जिससे नेपाल की संप्रभुता के प्रति असम्मान और अनादर का भाव प्रकट होता हो। इसकी नेपाल में व्यापक प्रतिक्रिया हुई और अंततः नेपाली दबाव में भारत को अपना राहत एवं बचाव दल वापस बुलाना पड़ा जिससे भारत की काफ़ी फ़ज़ीहत हुई। इस पूरे प्रकरण में भारत की औपचारिक प्रतिक्रिया भी बहुत कुछ इलेक्ट्रानिक एवं सोशल मीडिया वाली ही रही।
नेपाली संविधान का निर्माण:
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नेपाल के नये संविधान के निर्माण की प्रक्रिया 2006 में शुरू हुई और सितम्बर,2016 में पूरी हुई। इस क्रम में तीन महत्वपूर्ण मसलों पर मतभेद उभरकर सामने आए: संघवाद, राज्यों की संख्या, चुनाव-पद्धति और राजनीतिक व्यवस्था: संसदीय प्रणाली या अध्यक्षात्मक व्यवस्था। आरम्भ से ही भारत नृजातीय पहचान पर आधारित संघीय ढाँचे, संसदीय व्यवस्था और धर्मनिरपेक्ष नेपाल के पक्ष में रहा है। लेकिन, केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार बनने के बाद से भारत ने धर्मनिरपेक्ष नेपाल के प्रश्न पर चुप्पी साध ली और संघ परिवार ने हिन्दू राष्ट्र के रूप में नेपाल की पहचान को बनाए रखने के लिए प्रयास शुरू किए जिसका नेपाल के सेक्यूलर तबके तक ग़लत संदेश गया और इसके द्वारा ऐसे प्रयासों का ज़बरदस्त विरोध किया गया। लीक दस्तावेज़ यहाँ तक बतलाते हैं कि हिन्दू राष्ट्र के रूप में नेपाल की पहचान को क़ायम रखने के लिए मोदी सरकार ने नेपाल को संदेश भी भेजा।
खैर, इन तमाम मतभेदों के बावजूद प्रधानमंत्री के नेतृत्व में भारत ने नेपाल को यह संदेश देने की कोशिश की कि वह संविधान के निर्माण को नेपाल का आंतरिक मसला मानता है और इसमें वह कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा। नेपाल ने भी औपचारिक और अनौपचारिक रूप से भारत को यह आश्वस्त किया कि वह भारत की चिंताओं का ध्यान रखेगा। पर, सितम्बर,2015 में जब नेपाल ने अपने संविधान को अंतिम रूप दिया, तो यह भारत के लिए बहुत बड़ा झटका साबित हुआ। भारत ने नेपाल को सात सूत्री दिशानिर्देश दिए और इसके अनुरूप संविधान में संशोधन करने के लिए कहा। ये दिशानिर्देश संघीय ढाँचे, राज्यों के निर्माण एवं इसके स्वरूप तथा नागरिकता संबंधी प्रावधानों से संबंधित थे । यह सच है कि नेपाल ने वादाखिलाफी की; फिर भी नेपाल का संविधान कैसा हो, इसका निर्णय नेपाल की जनता के द्वारा होना चाहिए, न कि भारत के द्वारा। इसीलिए इसे भारत की सबसे भयंकर भूल के रूप में स्वीकारा जाना चाहिए।
भारत की चूक:
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नेपाल मामले में भारत ने कूटनीतिक अपरिपक्वता का परिचय देते हुए कई भूलें की जिसकी भारी क़ीमत भारत को आने वाले समय में चुकानी पड़ सकती है। आज मधेशियों के अलावा सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के द्वारा भारत का विरोध किया जा रहा है और नेपाल मेंँ मौजूद मधेशी संकट के लिए पूरी तरह से भारत को ज़िम्मेवार माना जा रहा है। यद्यपि ऐसा माना जाना उचित नहीं है, तथापि भारत को इस ज़िम्मेवारी से मुक्त भी नहीं किया जा सकता है। नेपाल मेंँ भारत- विरोधी भावनाएँ चरम् पर हैं और प्रतिक्रिया में नेपाल चीन के क़रीब जा रहा है। यद्यपि चीन नेपाल में भारत का स्थान नहीं ले सकता है, फिर भी नेपाल में चीन के लिए स्पेस क्रिएट होता जा रहा है। इसके कारण नेपाल में चीन का प्रभाव बढ़ता चला जा रहा है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण नेपाल का नया संविधान है जो भारत की बजाय चीनी अपेक्षाओं कहीं अधिक क़रीब है और जो आने वाले समय में चीन के प्रभाव को बढ़ाने वाला एवं भारत के प्रभाव को सीमित करने वाला साबित हो सकता है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत के लिए नेपाल तेज़ी से दूसरा पूर्वी पाकिस्तान और श्रीलंका बनने की राह पर तेज़ी से अग्रसर है, यदि समय रहते िस्थति को क़ाबू में नहीं किया गया। अगर आज नेपाल में भारत के सामरिक हित दाँव पर लगे चुके हैं, तो इसके लिए भारत की रणनीतिक भूलों को ज़िम्मेवार माना जा सकता है:
1.भारत द्वारा बैंक चैनल डिप्लोमेसी की उपेक्षा
2.नेपाली आश्वासन पर भारत द्वारा आँख मूँदकर
   भरोसा करना
3.नए संविधान के मसले पर भारत का
   आक्रामक रूख
4.भारत के ख़ुफ़िया तंत्र का पूरी तरह से विफल
   होना
5.नेपाल की आर्थिक नाकेबंदी (वास्तव में ऐसा
   हो अथवा नहीं, पर इसको लेकर नेपाल में
   स्ट्रांग परसेप्शन बन चुका है।)
आज नेपाल भारत से यह अपेक्षा करता है कि वह मधेशियों के बीच अपने गुडविल का इस्तेमाल करते हुए मधेशी संकट, जिसके अलगाववादी रूप लेने के संकेत मिल रहे हैं,से बाहर निकलने में उसकी मदद करे। यह भारत के लिए अपने गुडविल और खोए हुए विश्वास की पुनर्बहाली हेतु एक अवसर भी है और यह भारत के हित में भी है ।

Sunday, 3 January 2016

भारत की पाकिस्तान नीति:पठानकोट के आईने में

भारत की पाकिस्तान नीति: 
पठानकोट के आईने में
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अगर मैं यह कहूँ कि पंजाब िस्थत पठानकोट एयरबेस पर आतंकी हमला मेरे लिए अप्रत्याशित नहीं है, तो आपको आश्चर्य नहीं होना चाहिए। जब-जब भारत-पाकिस्तान संबंध सुधारने की दिशा में पहल की जाती है, उसे पटरी से उतारने के लिए पाकिस्तान िस्थत भारत विरोधी शक्तियाँ सक्रिय हो जाती हैं। इसका एक लम्बा इतिहास है जिसमें मैं उलझना नहीं चाहूँगा, बस इतना कहना चाहूँगा कि पठानकोट हमला उसी की अगली कड़ी है।
प्रधानमंत्री मोदी कहाँ विफल हैं?
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भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी विदेश नीति में निकटस्थ पड़ोस को सर्वोच्च प्राथमिकता दी। ऐसी िस्थति में निश्चय ही उनकी विदेश नीति की सफलता या विफलता को पाकिस्तान के संदर्भ में देखा जाना अपेक्षित है। नई सरकार की पाकिस्तान नीति पिछले उन्नीस महीने के दौरान अमेरिका सहित पश्चिमी देशों के दबाव और उनके उत्साही राष्ट्रवादी समर्थक समूहों के दबाव के बीच झूलती रही है। शायद इसीलिए उसमें निरंतरता का अभाव दिखता है।इसका एक कारण यह भी है कि वे अपनी कट्टर राष्ट्रवादी छवि के भार तले भी दबे हुए हैं। वे बार-बार इससे बाहर निकलना चाह रहे हैं, पर निकल नहीं पा रहे हैं। खै़र, पिछले कुछ दिनों से वे अपने दायरे को लाँघते दिखाई पड़ रहे हैं। पर, समस्या है कि उन्होंने निकटस्थ पड़ोस के प्रति अपनी नीति को उन लोगों के हवाले कर दिया है जिन्हें इस मामले में विशेषज्ञता हासिल नहीं है, चाहे वे अजीत डोभाल (जो आई.बी. के प्रमुख रह चुके हैं और हार्ड लाईनर हैं), राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हों या फिर एस. जयशंकर ( जो अमेरिका और कुछ हद तक चीन मामलों के विशेषज्ञ हैं),विदेश सचिव।
मोदी सरकार की पाकिस्तान नीति में निरंतरता के अभाव के कारणों पर चर्चा के बाद मैं वापस लौटना चाहूँगा उनकी विफलता के प्रश्न पर। उन्होंने अपनी विदेश नीति को दो स्तंभों पर आधारित बनाया: आर्थिक हित (व्यापार, पूँजी और निवेश) और राष्ट्रीय सुरक्षा। पठानकोट आतंकी हमला राष्ट्रीय सुरक्षा के संदर्भ में सरकार की नीतिगत विफलता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। इस हमले को उनकी पाकिस्तान नीति की विफलता से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। राष्ट्रीय सुरक्षा के संदर्भ में नीतिगत विफलता इसलिए कि सरकार पिछले उन्नीस महीने के दौरान ख़ुफ़िया एजेंसी के बीच सहयोग और सामंजस्य सुनिश्चित कर पाने में विफल रही, वह भी तब जब राष्ट्रीय सुरक्षा उसकी सर्वोच्च प्राथमिकता है। इंटेलिजेंस के पास इनपुट उपलब्ध थे, फिर भी सुरक्षा मशीनरियाँ इसे टालने में असमर्थ रही।
पाकिस्तान नीति पर पुनर्विचार का प्रश्न:
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इधर भारत में भी पिछले कुछ वर्षों के दौरान पाकिस्तान-विरोधी लाॅबी का तेज़ी से उभार दिखाई पड़ रहा है। कट्टर राष्ट्रवाद के नाम पर यह लाॅबी मोदी जी की पाकिस्तान नीति की आलोचना से भले परहेज करे, पर पठानकोट जैसी घटनाएँ इन्हें पाकिस्तान नीति पर पुनर्विचार हेतु दबाव बनाने का मौक़ा ज़रूर दे देती हैं। इसलिए ऐसी घटनाओं के बाद अचानक इनकी सक्रियता बढ़ जाती है। इसमें सहायक बनते हैं कुछ मीडिया हाउस और उनके स्वयंभू एंकर। इन लोगों को लगता है कि हर हमला भारत के लिए एक मौक़ा है पाकिस्तान के अस्तित्व को मिटाने का, जिसे गँवाया नहीं जाना चाहिए। इन्हें यह भी ग़लतफ़हमी है कि भारत जब चाहे पाकिस्तान के अस्तित्व को मिटा सकता है। 
दरअसल इन्हें इस बात का आभास भी नहीं है कि ये ऐसाकर पाकिस्तान में मौजूद भारत-विरोधी शक्तियों और आतंकी ताक़तों की मंशा को ही पूरा कर रहे हैं।इस बात को समझने के लिए पाकिस्तान के डायनामिक्स को समझना ज़रूरी है। 

पाकिस्तान का डायनामिक्स:
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पाकिस्तान में दो ताक़तें सक्रिय हैं: इस्लामिक कट्टरपंथी ताक़तें और उदार लोकतांत्रिक ताक़तें। इस्लामिक चरमपंथी ताक़तें भारत-विरोधी रूझान रखती हैं। इनके केन्द्र में पाकिस्तानी सेना और आई.एस.आई. है जिसकी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा है और उस राजनीतिक महत्वाकांक्षा का पूरा होना पाकिस्तानी समाज में उसके सपोर्ट बेस पर निर्भर करता है। इसे यह सपोर्ट बेस हासिल होता है इस्लामिक चरमपंथ और भारत-विरोध के नाम पर। जब भी पाकिस्तान की लोकतांत्रिक सरकार बेहतर भारत-पाकिस्तान द्विपक्षीय संबंध की दिशा में बढ़ती है, पाकिस्तानी सेना आई.एस.आई. और आतंकियों की सहायता से द्विपक्षीय संबंध को पटरी से उतारने की कोशिशों में लग जाती है। अक्सर इसके द्वारा पाकिस्तान की लोकतांत्रिक सरकार पर भारतीय दबाव के समक्ष झुकने और भारत को लेकर नरम रूख अपनाने का आरोप भी लगाया जाता है। 
                   पाकिस्तान की उदार लोकतांत्रिक शक्तियाँ भारत के साथ बेहतर सम्बंध चाहती हैं। लेकिन, इनके साथ समस्या यह है कि ये अभी मज़बूत िस्थति में नहीं हैं। इन्हें लगातार सेना के दबाव में काम करना होता है। पाकिस्तान की कट्टरपंथी ताक़तों और उनके भारत-विरोधी मानस के दबावों को भी झेलना पड़ता है। इन तमाम दबावों के बीच जब इनके द्वारा बेहतर संबंध की दिशा में पहल की जाती है और इस बीच इस तरह की घटनाओं के साथ सक्रिय होती पाकिस्तान- विरोधी शक्तियों और राष्ट्रवादी शक्तियों के दबाव में भारत के द्वारा कठोर प्रतिक्रिया दी जाती है, तो भारत के साथ बेहतर संबंध की चाह रखनेवाली उदार लोकतांत्रिक धारा पर दबाव काफ़ी बढ़ जाता है और यह अप्रासंगिक होने की कगार पर पहुँच जाती है। पाकिस्तानी मिलिट्री इस्टैब्लिशमेंट और भारत -विरोधी शक्तियों को इन्हें बदनाम करने और इन पर जमकर हमला बोलने का मौक़ा मिल जाता है। अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी ज़रूरतों के मद्देनज़र और एक ज़िम्मेवार पड़ोसी देश होने के नाते भारत को चाहिए कि पाकिस्तान की इन उदार लोकतांत्रिक ताक़तों के हाथ को मज़बूत करे, वो भी राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी ज़रूरतों से समझौता किए बग़ैर। 
क्या होना चाहिए?
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पठानकोट आतंकी हमले में शामिल ताक़तों को इस बात की छूट नहीं दी जानी चाहिए कि वे द्विपक्षीय संबंधों को पटरी से उतार सकें। यह तब तक संभव नहीं है जबतक सत्तापक्ष और विपक्ष के साथ-साथ भारतीय जनमानस इन बातों को समझने के लिए तैयार नहीं होते।हाँ, एक नेता के रूप में भारतीय प्रधानमंत्री को और एक राजनीतिक दल के रूप में भाजपा को भी इस बात को समझना होगा कि चाहे वह सत्ता में हो या विपक्ष में, सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए आज़माए गए नुस्खे कई बार भारी पड़ते हैं। आज वही ग़लती कांग्रेस कर रही है जो विपक्ष में रहते हुए और यहाँ तक कि कई बार सत्तापक्ष में रहते हुए भाजपा ने की थी। और अंत में, सरकार भाषणबाज़ी से आगे बढ़कर राष्ट्रीय सुरक्षा के मसलों को लेकर गंभीर हो और उस दिशा में पहल करे ताकि ख़ुफ़िया एजेंसियों के बीच बेहतर तालमेल के ज़रिए ऐसी सुरक्षा चूकों की संभावना को न्यूनतम किया जा सके, अगर समाप्त नहीं किया जा सके तो।