""एक ओर यूरोपियन माइग्रेंट क्राइसिस की मानवीय त्रासदी का प्रतीक बनकर आया सीरियाई बच्चा, दूसरी ओर हरियाणा के फ़रीदाबाद में दलित-आगज़नी काण्ड के शिकार बच्चे। कैसी विडम्बना है कि प्राकृतिक त्रासदी के शिकार उस बच्चे के प्रति भारत सहित पूरी की पूरी दुनिया ने अपनी पूरी संवेदना उड़ेल दी, लेकिन अपने घर के इस बच्चे के प्रति न तो हमारी संवेदना जग पा रही है है, न हमारे नेतृत्व वर्ग की। रही मीडिया की बात, तो वह टीआरपी की चिंता से आगे बढ़कर सोच पाने में असफल है। उसके ध्यान को आकृष्ट करने के लिए किसी गाय, किसी सुधीन्द्र कुलकर्णी,किसी अख़लाक़ या फिर किसी दामिनी का होना आवश्यक है। किसी जीतेन्द्र, वो भी हरियाणा का (यूपी या बिहार का होता, तो बात कुछ और होती) और वो भी दलित....... क्या आकर्षण हो सकता है इनमें? अच्छा किया जो मीडिया ने इस मसले को हासिए पर धकेल दिया। हमारे नेतृत्व वर्ग के लिए भी उसमें विशेष आकर्षण नहीं था। सही मायने में दलितों की िस्थति कुत्तों वाली ही रही है पारंपरिक भारतीय समाज में। जनरल साहब ने ग़लत थोड़े ही कहा, फ़िज़ूल बात का बतंगड़ बनाया जा रहा है। वो तो भला हो बिहार चुनाव का, देर से ही सही , इस पर चर्चा तो शुरू हुई और सीबीआई की जाँच तो बैठी। हो सकता है कि तीसरे चरण का चुनाव आते-आते यह मसला और गरमाए। पता नहीं, हम भारतीयों का सीबीआई पर कितना अधिक विश्वास है कि इसके द्वारा जाँच की बात सामने आते ही मसला ठंडा होने लगता है, जबकि हम जानते हैं कि कुछ होने वाला नहीं है।
ख़ुशी की बात है कि यह मसला दलित-ग़ैर दलित का नहीं है। मसला पैसे की लेन-देन का है जिसे ज़बरन विरोधी दल दलित का मसला बतलाकर राजनीतिक रूप देने की कोशिश कर रहे हैं।बस बहुत याद आते हैं महाभोज के दा साहब और बिसू भी। खैर, इस मसले पर चर्चा के क्रम में उन्हें याद करने का क्या औचित्य और क्या प्रासंगिकता? मैं भी कितनी बहकी-बहकी बातें करने लगता हूँ?शायद जीतेंद्र ने पुलिस प्रोटेक्शन की माँग भी की थी और उसका पूरा परिवार पुलिस प्रोटेक्शन में था, पर क्या फ़र्क़ पड़ता है? हरियाणा बिहार थोड़े है जो वहाँ जंगलराज के बारे में सोचा जा सके। वहाँ तो संघ के दूत खट्टर साहब का रामराज्य है। वहाँ जंगलराज की बात सोचना भी पाप है। देशद्रोहियों, तुम्हें नर्क में भी जगह नहीं मिलेगी।""
बस इतना ही सोचता हूँ, झारखंड में पाँच महिलाओं को डायन बतलाकर पीट-पीट कर हत्या,दाभोलकर.....मुरूगन......कलबुर्गी.......पत्रकार नरेंद्र.........आईपीएस नरेंद्र.......अख़लाक़........और अब जीतेंद्र...... सरकार किसी की भी हो, परिणाम तो यही होना है। कौन-सी विरासत हम छोड़ने जा रहे हैं अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए? क्या जवाब देंगे हम अपने बच्चों को?